किन सीमाओं के अन्तर्गत प्राइवेट (निजी) प्रतिरक्षा के अधिकार प्रयोग किया जा सकता है?

किन सीमाओं के अन्तर्गत प्राइवेट (निजी) प्रतिरक्षा के अधिकार प्रयोग किया जा सकता है?

भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 96, 97 तथा 99 से 106 में प्राइवेट (निजी) प्रतिरक्षा के अधिकारों का वर्णन किया गया है. उपयुक्त धाराएँ निम्न हैं-

IPC की धारा 96

कोई कार्य अपराध नहीं है जो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में किया जाता है |

IPC की धारा 97

IPC की धारा 99 के अन्तर्गत दिये गये निर्बन्धन के अधीन, प्रत्येक व्यक्ति को रक्षा करने का अधिकार है.

  1. अपने शरीर व अन्य किसी व्यक्ति के शरीर के विरुद्ध किसी अपराध से;
  2. सम्पत्ति चाहे चल हो या अचल, अपनी हो या किसी अन्य व्यक्ति की, उन अपराधी के विरुद्ध हो जो चोरी, डकैती, रिष्टि (Mischief) या आपराधिक अतिचार (Criminal Trespass) या इन अपराधों के लिए प्रयत्न करने के विरुद्ध प्रतिरक्षा का अधिकार है |

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IPC की धारा 99

ऐसे कार्य के विरुद्ध जिसमें मृत्यु या गम्भीर चोट पहुँचाने की आशंका गुक्तियुक्त रूप से प्रकट नहीं होती. यदि ऐसा कार्य किसी लोकसेवक द्वारा सद्भावनापूर्वक अपने पदाधिकार के भ्रम में कार्य करते हुए किया जाता है, या किये जाने का प्रयत्न किया जाता है, भले ही वह कार्य अक्षरशः न्याय की दृष्टि से संगत न हो, प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार है.

ऐसे कार्य के विरुद्ध, जिससे मृत्यु या गम्भीर चोट पहुँचाने की आशंका युक्तियुक्त रूप से प्रकट नहीं होती, यदि ऐसा कार्य किसी लोकसेवक के निर्देशानुसार किसी व्यक्ति द्वारा सद्भावना-पूर्वक अपने पदाधिकार के भ्रम में कार्य करते हुए किया जाता है या किये जाने का प्रयत्न किया जाता है, भले ही वह कार्य अक्षरशः न्याय की दृष्टि से संगत न हो, प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार नहीं है |

IPC की धारा 100

प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार उपर्युक्त तक धारा को सोमाओं के अधीन, हमला करने वाले की मृत्यु या अन्य किसी नुकसान तक प्रयोग किया जा सकता है. यदि ऐसे अपराध निम्न प्रकार के हों-

  1. ऐसा हमला जिसका परिणाम मृत्यु होने की आशंका हो.
  2. ऐसा हमला जिससे गम्भीर चोट की आशंका हो.
  3. ऐसा हमला जिसका परिणाम बलात्कार करना हो.
  4. ऐसा हमला जिसका परिणाम अप्राकृतिक कामवासना (Unnatural Offence) करना हो.
  5. ऐसा हमला जिसका परिणाम भागना या अपहरण करना हो.
  6. ऐसा हमला जिसका परिणाम दोषपूर्ण रूप से बन्दी किये जाने की विवेकयुक्त आाशका हो कि वह अपनी मुक्ति के लिये लोक-पदाधिकारियों का अवलम्बन प्राप्त नही कर सहेगा |

IPC की धारा 101

यदि अपराध पिछली धारा में दिये गये अपराधों में न हो तो अन्य प्रसंगों में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार कोई हानि, जो मृत्यु से कम हो, पहुँचाने तक होता है |

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IPC की धारा 102

शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार उसी क्षण आरम्भ हो जाता है जिस समय कि अपराध करने की चेष्टा या धमकी से शरीर के संकट की विवेकयुक्त आशंका उत्पन्न होतो है और यह अधिकार उस समय तक बना रहता है जब तक यह आशंका बनी रहेगी |

IPC की धारा 103

सम्पत्ति को प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार धारा 99 के अन्तर्गत दो गई सीमाओं के अधीन, हमला करने वाले को हत्या करने या और कोई हानि पहुँचाने तक होता है, यदि ऐसे अपर।घ निम्न प्रकार के हों-

  1. लूट (Robbery),
  2. रात्रि में गृह-भेदन (House-breaking by Night),
  3. अग्नि द्वारा रिष्टि (Mischief by Fire) जो मानव निवास-स्थान, टैन्ट या जलयान जो सम्पत्ति को अभिरक्षा के स्थान पर पहुँचाता हो.
  4. चोरी, रिष्टि, गृह अतिचार (House Trespass) जिससे मृत्यु या गम्भीर चोट को सम्भावना हो |

IPC की धारा 104

यदि अपराध चोरी, रिष्टि या गृह अतिचार हो जो कि पिछली धारा में दी गई व्याख्या के अनुसार न हो तो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार धारा 99 के अधीन कोई हानि जो मृत्यु से कम हो, पहुँचाने तक होता है |

IPC की धारा 105

प्राइवेट सम्पत्ति की प्रतिरक्षा का अधिकार उसी क्षण प्रारम्भ हो जाता है जिस समय से सम्पत्ति को खतरा प्रारम्भ होता है.

चोरी के विरुद्ध प्राइवेट सम्पत्ति की प्रतिरक्षा का अधिकार अपराधी द्वारा सम्पत्ति सहित पलायन कर जाने अथवा लोक-प्राधिकारियों की सहायता अभिप्राप्त कर लेने या सम्पत्ति पुनः प्राप्त-कर लेने तक है.

लूट (Robberty) के विरुद्ध प्राइवेट सम्पत्ति की प्रतिरक्षा का अधिकार तब तक है जब कि अपराधी किसी व्यक्ति की हत्या कर रहा हो या उसे चोट पहुँचा रहा हो या उसे दोषपूर्ण रूप से अवरुद्ध कर रहा हो या तत्काल मृत्यु या तत्काल उपहति का या तत्काल प्राइवेट अवरोध का भय बना हो.

आपराधिक अतिचार या रिष्टि (Criminal Trespass or Mischief) के विरुद्ध प्राइवेट सम्पत्ति की प्रतिरक्षा का अधिकार तब तक रहता है जब तक अपराधी आपराधिक अतिचार या रिष्टि करता रहता है.

रात्रि में गृह-भेदन (House-breking by night) के विरुद्ध प्राइवेट सम्पत्ति की प्रतिरक्षा का अधिकार तब तक रहता है जब तक कि गृह-अतिचार होता रहे |

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IPC की धारा 106

यदि प्राइवेट प्रतिरक्षा के आधार का प्रयोग करने वाला प्रतिरक्षक ऐसी परिस्थिति में हो कि वह अधिकार का प्रयोग, बिना एक निर्दोष व्यक्ति को हानि पहुँचाये नहीं कर सकता तो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अन्तर्गत वह ऐसा जोखिम ले सकता है.

बेन्थम ने आत्म-प्रतिरक्षा का महत्व बताते हुए कहा है कि “आत्म-प्रतिरक्षा का अधिकार निर्विवाद रूप से आवश्यक है. अधिकारियों के द्वारा की जाने वाली व्यक्तियों की निगरानी व्यक्तियों के द्वारा स्वयं की जाने वाली अपनी निगरानी के तुल्य नहीं हो सकती. इस अधिकार को बाहर फेंक दो, फिर देखोगे कि स्वयं तुम भी सभी बुरे व्यक्तियों के हमजोली बन गये हो.”

महत्वपूर्ण मामलें

ओंकार सिंह 1974 का मामला

ओंकार सिंह तथा अन्य बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश AIR 1974 SC 1550 में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूतियों ने निम्न अवलोकन किया-

“व्यक्तिगत प्रतिरक्षा का अधिकार आवश्यक रूप में प्रतिरक्षा या स्वयं रक्षा का अधिकार है तथा यह प्रतिशोध या दण्ड का अधिकार नहीं है. यह अधिकार अपराध करने या उमकी धमकी से शरीर को खतरा आरम्भ होने के साथ आरम्भ हो जाता है. यह वास्तविक, उपस्थित तथा शीघ्र घटित होने वाले खतरे के विरुद्ध उपलब्ध है. इसके स्पष्टीकरण न होने की दशा में न्यायालय गवाहों के बयान को सत्यता देखने के लिये तथ्य को विचार में रखकर साक्ष्य की जाँच करेगा. प्रत्येक मामला अपना रूप प्रर्दाशत करता है.”

मुन्ने खाँ 1971 का मामला

मुन्ने खाँ बनाम स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश, AIR 1971, SC 1491 में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमाएँ बताते हुए यह अवलोकन किया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार धारा 101 से अभिशासित होता है तथा यह दो निर्बन्धनों के अध्यधीन है. प्रथम यह है कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के प्रयोग करने में मृत्यु के अतिरिक्त कोई चोट पहुंचायी जा सकती है तथा दूसरा यह है कि बल का प्रयोग उससे अधिक नहीं होना चाहिये जितना कि उस व्यक्ति को बचाने के लिये आवश्यक है, जिसको प्रतिरक्षा में यह प्रयोग किया गया है |

गुरुबचन सिंह 1974 का मामला

गुरुबचन सिंह बनाम स्टेट ऑफ हरयाना, AIR 1974, SC 4961 के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूतियों ने यह अवलोकन किया कि मामले के तथ्यों पर केवल प्रश्न यह है कि क्या अपीलकर्ता को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध था? इसके अतिरिक्त कि उसने न तो प्राइवेट प्रतिरक्षा तथा न ही तथ्य की गलती या दुर्घटना का अभिवचन लिया है. प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार बिना हथियार वाले तथा निरपराधी व्यक्ति के विरुद्ध प्राप्त नहीं होता है |

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पूरन सिंह 1975 का मामला

पूरन सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, AIR 1975 SC 1674 में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह सत्य है कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार निम्न सीमाओं के अधीन प्रयोग किया जाना चाहिए-

  1. यदि लोक अधिकारियों की सहायता प्राप्त करने का समय है तो यह अधिकार उपलब्ध नहीं है.
  2. आवश्यकता से अधिक नुकसान नहीं पहुँचाया जाना चाहिए.
  3. यह कि सम्बन्धित व्यक्ति के शरीर या सम्पत्ति को मृत्यु या गम्भीर चोट या युक्ति-युक्त खतरा है |

बलजीत सिंह 1976 का मामला

बलजीत सिंह तथा अन्य बनाम स्टेट ऑफ UP (1976), 4 SC 590 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि यदि अपीलकर्ता ने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को बढ़ा लिया है तो सामान्य उद्देश्य, जिसके अन्तर्गत उन पर अभियोग लगाया गया था, असफल हो जाता है तथा उनका भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 147, 149 के अधीन दण्डादेश संघृत (Sustain) नहीं किया जा सकता |

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