दुराशय क्या है? यह सिद्धान्त के बिना दुराशय कोई अपराध नहीं बनता, कहाँ तक lPC में माना गया है?

दुराशय क्या है? यह सिद्धान्त के बिना दुराशय कोई अपराध नहीं बनता, कहाँ तक lPC में माना गया है?

मेंस री (Mens Rea) का अर्थ

‘मेंस री (Mens Rea)’ एक लैटिन शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘आपराधिक मनःस्थिति’, ‘दुराशय’, ‘अपराधी मन’, ‘दोषपूर्ण मन’, ‘दोषपूर्ण मनोवृत्ति’, या ‘दोषी दिमाग’. यह एक विधियाँ और न्यायिक प्रक्रिया में महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो आपराधिक कानून के माध्यम से अपराधी की मानसिक स्थिति को मापने का प्रयास करता है |

दुराशय का सिद्धांत

दुराशय का सिद्धांत (Actus non facit reum nisi mens sit Rea) लैटिन भाषा के आवरण में था. यह सिद्धान्त प्राकृतिक न्याय पर आधारित है. स्टाउड महोदय ने ‘मेंस री (Mens Rea)’ की परिभाषा निम्न प्रकार दी है-

“प्रत्येक अपराध का जन्म किसी न किसी दोषपूर्ण मानसिक स्थिति में होती है और उनका विलय भी किसी न किसी दोषपूर्ण मानसिक स्थिति से होती है”.

किसी व्यक्ति पर आरोपित किसी अपराध के लिए दण्डादेश को परिस्थितियों पर निर्भर करता है-

  1. अपराधी का कार्य विधि के द्वारा निषिद्ध था, और
  2. जब उसने उस कार्य को किया, उसको इस बात को जानना आवश्यक था, या जानना चाहिये था, या वह जानता था कि उसका वह कार्य विधि के द्वारा निषिद्ध है.

इन दोनों दशालों को ‘दोषपूर्ण कार्य (Actus Reus)’ के नाम से पुकारा जा सकता है और दोषपूर्ण आशय (Culpable Intentionality) के तत्व को ‘Mens Rea’ के नाम से पुकारा जा सकता है. कोई भी ‘Actus’ केवल उसी दशा में ‘Reus’ कहा जा सकता है जब विधि उसको विशिष्ट ढंग से निषिद्ध करती है. यदि अधिनियमित विधि (Statutory Law) के अन्तर्गत किसी अपराध को किया गया है तो इसमें ‘Mens Rea’ के तत्व की कोई आवश्यकता नहीं है.

अपराध का मुख्य तत्व दुराशय ही है जहाँ किसी अपराध करने में दुराशय (Mens Rea) उपस्थित नहीं होती है, तो वह दोष सिविल दोष (Civil Wrong) होता है. यदि किसी व्यक्ति का अपराध करते समय दिमान निर्दोष या तो वह उसके लिये आपराधिक रूप से उत्तरदायी नहीं होगा.

हालांकि वह पीड़ित पक्षकार को सिविल विधि के अन्तर्गत क्षतिपूर्ति अदा करने के लिये उत्तरदायी ठहराया जा सकता है. भारतीय दण्ड संहिता (IPC) में अधिकतर अपराधों में आपराधिक आशय, या ज्ञान को आवश्यक तत्व माना गया है. IPC के अन्दर भिन्न उपबन्धों में ये शब्द “स्वेच्छा से”, “जान-बूझकर”, “बेईमानी से”, “कपटपूर्ण विधि से”, “आशयित करके” आदि दिखाते हैं कि अपराध के लिये आपराधिक दिमाग होना चाहिये.

“विश्वास करने का कारण होते हुए” शब्द IPC में प्रयोग किये गये हैं. ये शब्द इस सिद्धान्त को परिवर्तित करते हैं तथा जिन मामलों में ये शब्द प्रयोग किये गये हैं, उनमें यह आवश्यक नहीं है कि अपराध करने वालों का आपराधिक आशय ही हो.

वह उन परिस्थितियों में अपराधी हो सकता है यदि साधारण पता वाला व्यक्ति यह अनुमति प्राप्त कर सकता हो कि विधि के अनुसार ऐसा अपेक्षित है तथा उसे अपराधी माना जा सकता है. ऐसी परिस्थितियों में अपराधी दुराशय नहीं रखता था. परन्तु वह इतना लापरवाह था कि साधारण पता वाला व्यक्ति यह समझता था कि इसके लिये निर्दोष नहीं माना जा सकता. विधि ऐसी परिस्थितियों में प्रलक्षित दुराशय मानती है. कुछ ऐसे अपराध भी हैं जिनमें आशय तथा ज्ञान आवश्यक तत्व नहीं होते हैं. असावधानी तथा प्रमाद के अपराधों में आशय या ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है. विभिन्न अपराध जिनमें दुराशय आवश्यक नहीं है, का निम्न प्रकार वर्गीकरण किया जा सकता है-

अपराध जिसमें ‘मेंस री’ आवश्यक नहीं है

  1. कार्य या चूक जो वास्तविक रूप में अपराध नहीं है परन्तु जनहित या कल्याण हेतु अपराध को तरह निषिद्ध है.
  2. लोक अपदूषण (Public Nuisance)
  3. व्यावहारिक अधिकार जो आपराधिक विधि द्वारा संरक्षित है तथा जिनके लिये ऐसे अधिकार के महत्व तथा अविलम्ब देखते हुये आपराधिक विधि में सारांश उपचार दिया गया है. प्रतिनिधिक दायित्व (Vicarious Liability) के अपराधों में भी दुराशय का तत्व अनुपस्थित होता है.

उत्तरदायित्व से संरक्षण

दुराशय का तत्व किसी अपराध के लिए आवश्यक हो या न हो भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 81 के अनुसार कोई अपराध नहीं है जो केवल इस ज्ञान से किया गया है कि इससे हानि होना सम्भव है और यदि इस हानि के पहुँचाने में किसी भी आपराधिक अभिप्राय के बिना व्यक्ति और सम्मत्ति को अन्य हानि के दूर करने या रोकने के उद्देश्य से सद्भावनापूर्वक कार्य किया गया हो.

प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार (Right Of Private Defence) के मामले में साशय कार्यों के मामले में भी अपराध नहीं होता है. एक मरीज का डॉक्टर द्वारा किया गया आपरेशन अपराध नहीं होता है. हालांकि यह इस पूर्ण ज्ञान से किया गया था कि इससे मरीज की मृत्यु हो सकती है; क्योंकि उसका उद्देश्य मरीज का जीवन बचाना होता है |

महत्वपूर्ण मामलें

टॉल्सन 1889 का मामला

टॉल्सन के मामले (1889) में न्यायमूर्ति विल्स ने इस सम्बन्ध का निम्न प्रकार अनुपालन किया है, “दोषी साशय आवश्यक रूप में उसी कार्य को करने के लिये नहीं होता है जो कि विधि द्वारा निषिद्ध है. परन्तु कम से कम कुछ अनुचित कार्य करने का आशय होना चाहिये.”

हालांकि प्रथमदृष्टिया तथा सामान्य नियमों के अनुसार किसी कार्य को अपराध होने से पहले ‘दुराशय (Mens Rea)’ होनी चाहिये. यह कोई अटल नियम नहीं है तथा किसी विधान द्वारा यह घोषित किया जा सकता है कि कोई कार्य अपराध होगा चाहे उसको करते समय आपराधिक आशय न हो |

आर बनाम प्रयाग सिंह 1890 का मामला

आर बनाम प्रयाग सिंह (1890) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 154 और 155 के अन्तर्गत, निरपेक्ष दायित्व के सिद्धान्त को प्रतिनिधिक दायित्व (Vicarious Liability) के रूप में ग्रहण किया गया है. इन धाराओं के अन्तर्गत यदि किसी भूमि के स्वामी अथवा कब्जा रखने वाले व्यक्ति की भूमि में कोई अपराध किया जाता है तो भूमि का स्वामी अथवा कब्जा ग्रहण करने वाला उसका उत्तरदायी होता है. स्वामी अथवा कब्जा धारण करने वाला उस अवस्था में भी उत्तरदायी होता है जब अपराध उसकी गैर-जानकारी में किया गया हो अथवा उसने अपराध में कोई भी योगदान न किया हो |

नन्दिनी सतप्थी 1978 का मामला

नन्दिनी सतप्थी बनाम P. L. दानी तथा अन्य (1978) में यह अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 179 के अनुसार अपराध में ‘दुराशय (Mens Rea)’ आवश्यक है तथा वहाँ जानबूझकर निषेध नहीं किया गया था परन्तु मात्र चूक या निर्दोष बचाव से अपराध नहीं बनता है.

उपर्युक्त विवेचना से यह अवाश्यक है कि IPC के सभी अपराधों में अधिकतर दुराशय आवश्यक है |

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