हत्या क्या है? कब सदोष मानव वध हत्या नहीं होती? | हत्या के अपराध के आवश्यक तत्व

Table of Contents

हत्या क्या है? कब सदोष मानव वध हत्या नहीं होती? | हत्या के अपराध के आवश्यक तत्व

हत्या क्या है?

IPC 300 In Hindi? IPC की धारा 300 उन परिस्थितियों को बात करता है जिसमें आपराधिक मानव वध हत्या होती है. हत्या में आपराधिक मानव वध शामिल है लेकिन आपराधिक मानव वध हत्या हो भी सकता है नहीं भी हो सकता. मानव वध हत्या तभी होगा जब धारा 300 के 4 खण्डों में से किसी के अन्तर्गत भी आता हो;

  1. यदि वह कार्य मृत्यु करने के आशय से किया गया हो, अथवा
  2. ऐसी शारीरिक क्षति पहुंचाने के आशय से कार्य किया गया है जिसके बारे में अपराधी जानता है कि इस व्यक्ति की मृत्यु होना सम्भव है, अथवा
  3. यदि कार्य द्वारा किसी व्यक्ति को ऐसी शारीरिक क्षति पहुँचाता है जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु करने के लिए पर्याप्त है, अथवा
  4. यदि कार्य इतना खतरनाक है कि उसे करने वाला व्यक्ति जानता है कि उससे मृत्यु होने की पूर्ण सम्भावना है.

उदाहरण

  1. ‘य’ को मार डालने के आशय से ‘क’ उस पर गोली चलाता है, परिणामस्वरूप ‘य’ मर जाता है. ‘क’ हत्या का दोषी है.
  2. ‘क’ यह जानते हुये कि ‘य’ ऐसे रोग से पीड़ित है कि सम्भवतः प्रहार से उसकी मृत्यु हो जाये, उस पर प्रहार करता है. ‘य’ की मृत्यु हो जाती है. ‘क’ ने हत्या की है.
  3. ‘य’ को तलवार या लाठी से ऐसा घाव ‘क’ साशय करता है जो प्रकृति के मामूली अनुक्रम में किसी मनुष्य की मृत्यु करने के लिए पर्याप्त है. परिणामस्वरूप ‘क’ की मृत्यु हो जाती है। ‘क’ ने हत्या की है.
  4. ‘क’ बिना किसी हेतु के भीड़ पर भरी हुई तोप चलाता है और उनमें से एक का वध कर देता है. ‘क’ हत्या का दोषी है. यद्यपि किसी एक व्यक्ति की हत्या करने का उसका आशय नहीं था.

हत्या के अपराध के आवश्यक तत्व

1. मृत्यु कारित करने के आशय से कार्य का किया जाना

IPC की धारा 300 का प्रथम खण्ड यह उपबन्धित करता है. कि यदि अभियुक्त द्वारा मृत्यु कारित करने के आशय से कार्य किया जाता है तो वह हत्या होगी. इसी प्रकार का प्रावधान IPC की धारा 299 सदोष मानव वध के लिये करती है. साधारण शब्दों में दोनों खण्डों का तात्पर्य यह है कि अपराधकर्ता को इस बात की जानकारी थी कि उसके कार्य से मृत्यु होने की सम्भावना है तो उसका कार्य सदोष मानव वध होगा.

परन्तु यदि इस बात की जानकारी थी और उसका कार्य इस प्रकार का था कि उससे मृत्यु होने की पूर्ण सम्भावना थी तो वह हत्या का अपराधी होगा.

निर्णीत वाद; भगू भाई मनीलाल बनाम गुजरात राज्य (AIR 1996 SC 2555) के मामले में अभियुक्त ने मृतक को पंचायत ऑफिस से घसीटा तथा मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी. 75% जलने से उसकी मृत्यु हो गयी. न्यायालय ने निर्धारित किया कि यह हत्या आशयपूर्वक की गयी हैं.

वहीं अबु ठाकिर और अन्य बनाम राज्य, [(2010) 3 Cr.L.J. 2480 (SC)] इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि हेतु का महत्व हत्या के अपराध में तब समाप्त हो जाता है जब प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध होता है.

2. कार्य ऐसी शारीरिक क्षति पहुंचाने के आशय से किया गया हो जिससे अभियुक्त जानता है कि मृत्यु होना सम्भव है

IPC की धारा 300 का खण्ड 1 यह उपबन्धित करता है कि धारा 300 में उपबन्धित अपवादों को छोड़कर एक व्यक्ति का कार्य ऐसी शारीरिक क्षति पहुंचाना है जिसके बारे में वह जानता है कि उस क्षति के परिणामस्वरूप उस व्यक्ति की मृत्यु होना सम्भव है. इस खण्ड को उपबन्धित करने का मुख्य उद्देश्य उन मामलों के सम्बन्ध में प्रावधान करना है जिन पर खण्ड तीन लागू नहीं होता. अतः यह खण्ड उन मामलों पर लागू होता है जिन पर पहुँचायी गयी क्षति से साधारणतया मृत्यु नहीं होती परन्तु उस व्यक्ति की बीमारी या विशेष परिस्थिति के कारण मृत्यु हो जाती हैं.

निर्णीत वाद; मुन्नी उर्फ राहत जान खान बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश (AIR 2006 SC 2902) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मृतक के नाक, सिर व हाथ पर घातक प्रहार किया जाना भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अधीन अपराध माना जायेगा, बशर्ते ऐसे प्रहार के परिणामस्वरूप मृतक की मृत्यु हो गयी हो.

3. ऐसी शारीरिक क्षति पहुंचाने के आशय से कार्य करना जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु करने के लिये पर्याप्त हो

यदि कोई व्यक्ति साशय शारीरिक क्षति करता है जो प्रकृति के मामूली अनुक्रम में मृत्यु करने के लिये पर्याप्त है तब वह हत्या के लिए अपराधी होगा. यदि मृत्यु की सम्भाव्यता प्रबल है तो इस खण्ड के अन्तर्गत अपराध होगा.

स्टेट आफ राजस्थान बनाम अर्जुन सिंह, [(2011) 4 Cr.L.J. 4943 (SC)] उच्चतम न्यायालय ने कहा कि गोलियां या छरें बरामद न होने का यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि गोलियां चलने की कोई घटना नहीं हुई. मेडिकल साक्ष्य जिसके अनुसार, हेमराज को बन्दूक की गोलियों से सात चोटें आई जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिए यथेष्ट थी, पर विचार करते हुए उच्चतम न्यायालय सन्तुष्ट था कि हेमराज सिंह की मृत्यु IPC की धारा 302 के अन्तर्गत हत्या है.

वहीं, उत्तर प्रदेश राज्य बनाम बाबू (AIR 1978 SC 1084) के मामले में यह कहा गया है कि जब डाक्टर ने यह व्यक्त किया हो कि मृतक को पहुँचायी गयी क्षति प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु करने के लिये पर्याप्त थी तो वह हत्या के अपराध का दोषी होगा.

4. कार्य करने वाला यह जानता हो कि कार्य इतना खतरनाक है कि उससे मृत्यु होने की पूरी सम्भावना है

IPC की धारा 300 का चौथा खण्ड यह उपबन्धित करता है कि यदि अभियुक्त के कार्य से उत्पन्न खतरा इस प्रकार का है कि उससे मृत्यु होना प्रायः निश्चित सा है तो अभियुक्त का आशय चाहे जो भी रहा हो यदि उसे इस बात की जानकारी है अर्थात् अपने कार्य के खतरनाक होने की जानकारी थी तो वह हत्या के लिये उत्तरदायी ठहराया जायेगा.

निर्णीत वाद; राम प्रसाद, (AIR1968 SC 881) के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह खण्ड उन मामलों में लागू होता है जिसमें किसी व्यक्ति की मृत्यु करने का आशय नहीं रहता है फिर भी जोखिम ऐसा होता है कि मृत्यु की प्रबल सम्भावना होती है तो अपराध होगा.

वहीं, राजवन्त सिंह बनाम केरल राज्य (AIR 1966 SC 1874) के मामले में मृतक को बाँधकर उसके मुँह में कपड़ा देकर काफी मात्रा में क्लोरोफार्म सुँघाया गया जिसके लिये उन्हें धारा 300 (खण्ड 4) के अन्तर्गत हत्या का अपराधी माना गया.

कब सदोष मानव वध हत्या नहीं है?

IPC की धारा 300 का प्रथम भाग जिसमें चार उपखण्ड हैं, हत्या की परिभाषा प्रस्तुत करता है. परन्तु उक्त चार खण्डों के अन्तर्गत आने वाला मामला हत्या नहीं समझा जायेगा, यदि यह धारा के दूसरे भाग में उपबन्धित पाँच अपवादों में से किसी एक के अन्तर्गत आता है.

ये पाँचों अपवाद निम्नलिखित हैं-

1. गम्भीर एवं अचानक प्रकोपन

प्रथम अपवाद के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति अचानक और गम्भीर प्रकोपन (Provocation) के कारण आत्मसंयम खो बैठा है और उस स्थिति में वह प्रकोपन देने वाले व्यक्ति को मृत्यु कर दे तो वह सदोष-मानव वध का दोषी माना जायेगा न कि हत्या का. प्रकोपन मृतक द्वारा दिया जाना चाहिये, किसी अन्य व्यक्ति द्वारा नहीं. प्रकोपन शब्दों में या संकेतों द्वारा दिया जा सकता है, परन्तु वह अचानक व गम्भीर होना चाहिये.

निर्णीत वाद; K. M. नानावती बनाम महाराष्ट्र राज्य (AIR 1962 एस० सी० 605) के मामले में अभियुक्त अपने दोस्त के साथ अपनी पत्नी द्वारा प्रेम सम्बन्ध स्वीकार कर लिये जाने के बाद योजनाबद्ध ढंग से अपने दोस्त की मृत्यु कर दी. अचानक प्रकोपन का तर्क दिये जाने पर न्यायालय ने मानने से इनकार कर दिया और उसे हत्या का दोषी ठहराया.

इस वाद के निर्णय में यह बताया गया कि प्रकोपन किये जाने तथा घटना के घटित होने में समय का अन्तर बहुत कम होना चाहिए.

2. अचानक एवं गम्भीर प्रकोपन की कसौटी

K. M. नानावती बनाम महाराष्ट्र राज्य (AIR 1962 SC 605), के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रकोपन उस समय अचानक एवं गम्भीर माना जायेगा जब यह निष्कर्ष निकलता हो कि-

  1. एक युक्तियुक्त व्यक्ति उन परिस्थितियों में जिनमें अभियुक्त था, अपना आत्मसंयम खो बैठेगा.
  2. घटनाग्रस्त व्यक्ति की स्थिति पर भी विचार करने से ऐसा निष्कर्ष निकलता हो कि वह व्यक्ति आत्मसंयम खो बैठा था.
  3. मृत्यु स्पष्टतः उस समय प्रकोपन का परिणाम हो.
  4. भारत में शब्द एवं संकेत भी कुछ परिस्थितियों में ऐसा प्रकोपन करने वाले माने जा सकते हैं.

संक्षेप में इस अपवाद के लिये निम्नलिखित बातों का साबित किया जाना आवश्यक है-

  1. प्रकोपन मृतक द्वारा कार्यों या शब्दों द्वारा किया गया हो.
  2. प्रकोपन अचानक व गम्भीर हो, तथा
  3. प्रकोपन के कारण युक्तियुक्त व्यक्ति आत्मसंयम खो बैठा हो.

वहीं, नमला सुब्बा राव बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य [(2007) क्रि० एल० जे० 47 SC] में अभियुक्त ने अपनी पत्नी की हत्या उसके प्रेमी के घर में कर दी थी. पत्नी ने पति के साथ रहने से और प्रेमी के घर से वापस आने से इनकार कर दिया. घर जाते समय रास्ते में एक हथियार से अभियुक्त ने पत्नी की हत्या करने के लिए उठा लिया था. उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह परिस्थिति गंभीर और अचानक प्रकोपन की नहीं है अतः अभियुक्त हत्या का दोषी है.

3. व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण

यदि कोई व्यक्ति प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते समय अतिक्रमण कर देता है अर्थात् आनुपातिक क्षति से अधिक क्षति पहुँचा देता है तो उसे क्षति के परिणामस्वरूप हुई मृत्यु हत्या के बजाय सदोष मानव वध माना जाएगा. संक्षेप में धारा 300 के दूसरे अपवाद के लिए निम्न बातों का होना आवश्यक है-

  1. अभियुक्त को व्यक्तिगत प्रतिरक्षा का अधिकार हो,
  2. अभियुक्त ने व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किया हो,
  3. अभियुक्त ने व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण सद्भावनापूर्वक किया हो.
  4. कार्य बिना किसी पूर्वधारणा और प्रतिरक्षा के लिए आवश्यक उपहति से अधिक उपहति करने के आशय के बिना किया गया हो.

इस अपवाद में वर्णित नियम इस सिद्धान्त पर निर्भर करता है कि कानून स्वयं किसी व्यक्ति की मृत्यु से कम कोई भी क्षति कारित करने का अधिकार प्रदान करती है और यदि इस अधिकार के प्रयोग में कोई मृत्यु कर देता है तो कठोर दण्ड से दण्डित नहीं किया जायेगा.

नवीन चन्द्र बनाम उत्तरांचल राज्य (AIR 2007 SC 363) के वाद में घटना के पहले आपस में जबानी कहासुनी हुई. गुस्से में आकर अभियुक्त ने निरस्त्र व्यक्तियों के मर्म स्थानों पर वार किये. इस मामले में दो भाइयों के मध्य पारिवारिक विवाद हुआ था. घटना के दिन सुबह अभियुक्त को पीटा गया था. पंचायत के द्वारा उनके बीच समझौता करवाने के दौरान अभियुक्त क्रुद्ध हो गया और उसने आक्रमण कर दिया. न्यायालय ने हत्या के लिये अभियुक्त को व्यक्तिगत प्रतिरक्षा का लाभ नहीं प्रदान किया. न्यायालय ने कहा कि शरीर सम्बन्धी अपराध की आशंका के शुरू होने से इस प्रकार का अधिकार प्रारम्भ होता है और खतरा बने रहने तक यह अधिकार कायम रहता है.

4. लोकसेवक द्वारा शक्ति का अतिक्रमण

IPC की धारा 300 का तीसरा अपवाद लोक सेवक द्वारा या उसकी सहायता करने वाले व्यक्ति द्वारा आवश्यकता से अधिक शक्ति का प्रयोग करके किसी व्यक्ति की मृत्यु कारित कर देने पर लागू होता है। दूसरा अपवाद जहाँ व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अधिकार के अतिक्रमण पर लागू होता है वहाँ तीसरा अपवाद लोक सेवक द्वारा अतिक्रमण किए जाने पर लागू होता है. इस अपवाद के लिए निम्न बातों का साबित किया जाना आवश्यक है-

  1. शक्ति का अतिक्रमण करने वाला व्यक्ति लोक सेवक हो,
  2. यह व्यक्ति लोक सेवक को सहायता करने वाला हो,
  3. लोक सेवक या उसके सहायक द्वारा शक्ति का अतिक्रमण किया गया हो,
  4. प्रयोग की गई शक्ति उस विधि द्वारा प्रदान की गयी हो,
  5. शक्ति का अतिक्रमण उसने सद्भावनापूर्वक किया हो.

किन्तु यह अपवाद वहाँ लागू नहीं होगा जहाँ लोक सेवक द्वारा किया गया कार्य अवैध है.

5. आकस्मिक लड़ाई

IPC की धारा 300 का चौथा अपवाद दो पक्षों में आकस्मिक लड़ाई हो जाने पर कारित की गयी मृत्यु के सम्बन्ध में उपबन्ध करता है. आकस्मिक लड़ाई से तात्पर्य बिना पूर्व नियोजित चिन्तन या विचार के दो व्यक्तियों या दलों में आपस में होने वाली लड़ाई से है. यदि इस प्रकार की लड़ाई में आवेश में किसी व्यक्ति की मृत्यु कर दी जाती है तो वह व्यक्ति हत्या के बजाय सदोष मानव वध का दोषी होगा. इस अपवाद के लागू होने के लिए आवश्यक है कि-

  1. लड़ाई बिना किसी आयोजन के हो,
  2. लड़ाई आकस्मिक हो,
  3. अभियुक्त ने कोई अनुचित लाभ ग्रहण न किया हो या क्रूर व्यवहार किया हो,
  4. लड़ाई मृत व्यक्ति के साथ हुई हो.
  5. लड़ाई से तात्पर्य वाद-विवाद से कुछ अधिक होता है.

निर्णीत वाद; सरजुग प्रसाद बनाम बिहार राज्य (AIR 1959 पटना 66 ) के बाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कठोर तथा उत्तेजित करने वाले शब्दों का केवल आदान-प्रदान ही पर्याप्त नहीं है बल्कि हाथापाई भी आवश्यक है किन्तु आयुधों का प्रयोग आवश्यक नहीं है.

6. सहमति से की गई मृत्यु

इस अपवाद का लाभ प्राप्त करने वाले को निम्नलिखित सिद्ध करना पड़ेगा-

जिस व्यक्ति की मृत्यु कारित की गयी है वह अपने मृत्यु की जोखिम उठाने की सहमति दिया हो.
सहमति देने वाले व्यक्ति की आयु 18 वर्ष से अधिक हो.

उदाहरण के लिए, ‘य’ को जो 18 वर्ष से कम आयु का है, उकसाकर ‘क’ उससे स्वेच्छया आत्महत्या करवाता है. यहां कम उम्र होने के कारण ‘य’ अपनी मृत्यु के लिए सम्मति देने में असमर्थ था इसलिए ‘क’ ने हत्या का दुष्प्रेरण किया है.

दसरथ पासवान बनाम बिहार राज्य (AIR 1965 पटना 190) के मामले में अभियुक्त दसवीं कक्षा में तीन बार फेल हो चुका था. हताश होकर उसने अपनी पढ़ी-लिखी पत्नी से आत्महत्या करने की बात कही तो पत्नी ने पहले अपनी हत्या करने को कहा. समझौते के अनुसार अभियुक्त ने अपनी पत्नी की हत्या कर दी परन्तु स्वयं की हत्या करने से पहले उसे पकड़ लिया गया. न्यायालय ने उसे सदोष मानव वध का दोषी ठहराया न कि हत्या का. उक्त अपवाद निम्न बातों के साबित हो जाने पर लागू होगा—

  1. मृतक व्यक्ति ने अपनी मृत्यु के लिए स्वयं सहमति दी हो,
  2. सहमति देने वाला व्यक्ति 18 वर्ष से अधिक की उम्र का हो,
  3. सहमति स्वतंत्र हो अर्थात् कपट या अनुचित प्रभाव द्वारा न प्राप्त की गयी हो |

Leave a Comment