चोरी एवं उद्दापन किसे कहते हैं? दोनों में क्या अंतर है?

चोरी एवं उद्दापन किसे कहते हैं? दोनों में क्या अंतर है?

चोरी की परिभाषित

चोरी क्या है? भारतीय दण्ड संहिता की धारा 378 चोरी (Theft) को परिभाषित करता है इसके अनुसार, जब कोई व्यक्ति किसी के कब्जे से उसकी सहमति के बिना कोई चल सम्पत्ति बेईमानी पूर्ण आशय से हटाता है तो चोरी का अपराध करता है.

इसके निम्नलिखित तत्व हैं-

  1. चल सम्पत्ति,
  2. सहमति के बिना,
  3. किसी के कब्जे से सम्पत्ति हटाना,
  4. बेईमानी पूर्ण आशय, अथवा
  5. सम्पत्ति हटाना।

उदाहरण; ‘य’ को सहमति के बिना ‘य’ के कब्जे में से एक वृक्ष बेईमानी से लेने के आशय से ‘य’ की भूमि पर लगे हुए वृक्ष को ‘क’ काट डालता है, यहाँ ज्यों ही ‘क’ ने इस प्रकार लेने के लिए उस वृक्ष को पृथक किया, उसने चोरी की |

चोरी के आवश्यक तत्व

1. किसी व्यक्ति के कब्जे में से सम्पत्ति का हटाना

चोरी के अपराध के लिए सम्पत्ति किसी अन्य व्यक्ति के कब्जे में से लिया जाना आवश्यक है परन्तु कब्जा शब्द को संहिता में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है. कब्जे के लिए न तो भौतिक नियंत्रण जरूरी है और न ही वास्तविक चोरी के लिए चल सम्पत्ति का किसी व्यक्ति के कब्जे में से हटाया जाना जरूरी है लेकिन उस व्यक्ति का स्वामित्व आवश्यक नहीं समझा गया है और न ही उस व्यक्ति का उस पर वैध कब्जा आवश्यक है. चोरी के अपराध के लिए इतना पर्याप्त है कि वस्तु उस व्यक्ति के शारीरिक नियंत्रण में हो. जंगली पशु, खुले आसमान पर उड़ते पक्षी, नदी का पानी, उसमें रहने वाली मछलियाँ आदि की चोरी नहीं की जा सकती.

राजस्थान राज्य बनाम पूर्ण सिंह (1977 C.R.L.J. 1055) के मामले में कहा गया है कि चोरी का अपराध उस समय गठित होता है जब कोई व्यक्ति सम्पत्ति किसी अन्य व्यक्ति के कब्जे में से हटाये. ‘अ’ सड़क पर एक घड़ी पड़ी हुई पाता है और वह उसे बेईमानीपूर्ण आशय से अपने पास रख लेता है. यहाँ चोरी का अपराध गठित नहीं होगा, क्योंकि घड़ी को किसी के कब्जे में से नहीं लिया गया है, बल्कि वह सार्वजनिक सड़क पर पाई गई है अतः इसे हम सम्पत्ति का आपराधिक दुर्विनियोग कहेंगे.

2. उस व्यक्ति की सहमति के बिना

चोरी का दूसरा तत्व यह है कि प्रश्नगत सम्पत्ति कब्जाधारी व्यक्ति की सहमति के बिना ले जानी चाहिए. अर्थात यदि कोई व्यक्ति कब्जाधारी व्यक्ति की सहमति से उसकी सम्पत्ति ले जाता है तो उसे इस धारा के अन्तर्गत अपराधी नहीं माना जा सकता. सहमति अनुचित दबाव या अनुचित परिस्थितियों में नहीं होनी चाहिए.

जनक यादव बनाम राज्य [(1960) 2 Cr. L.J. 1646] के मामले में यह कहा गया है कि यदि सहमति धोखा देकर प्राप्त की गयी है तो अभियुक्त किसी अपराध के लिए भले ही दोषी ठहराया जाये, परन्तु वह चोरी के लिए दण्डित नहीं किया जा सकता.

3. कोई चल सम्पत्ति

चोरी की गई सम्पत्ति चल होनी चाहिए क्योंकि अचल सम्पत्ति को कब्जे से हटाना सम्भव नहीं होता. भूमि से जुड़ी वस्तु चोरी की विषयवस्तु नहीं हो सकती, परन्तु वह ज्यों ही भूमि से अलग की जाती है उसकी चोरी की जा सकती है.

उदाहरण; भूमि चोरी की विषयवस्तु नहीं होती, परन्तु ज्यों ही वह रेत या मिट्टी के रूप में अलग की जाती है तो चोरी की विषयवस्तु हो जाती है.

अवतार सिंह बनाम राज्य [(1965) 1 Cr. L.J. 605] के मामले में यह कहा गया है कि विद्युत चल सम्पत्ति न होने के कारण दण्ड संहिता की धारा 378 के अर्थों में चोरी की विषयवस्तु नहीं है.

4. सम्पत्ति को बेईमानी से ले जाने का आशय हो

चोरी के अपराध का चौथा तत्व है सम्पत्ति को बेईमानी से ले जाने का आशय होना चाहिये. यदि अभियुक्त का बेईमानी का आशय साबित किया जा सका हो तो वह सन्देह का लाभ पाने का अधिकारी है. बेईमानी का आशय साबित करने के लिए अभियोजन सदोष लाभ अथवा सदोष हानि को साबित कर सकता है.

K. A. मेहरा बनाम राजस्थान राज्य (AIR 1957 SC 369) के मामले में अभियुक्त ने भारतीय वायु सेना के एक हवाई जहाज को अनधिकृत रूप से उड़ान भरने के लिए ले लिया था. उच्चतम न्यायालय ने उसे चोरों के अपराध के लिए दण्डित किया.

5. सम्पत्ति का हटाया जाना

चोरी का पाँचवां तत्व सम्पत्ति का हटाया जाना है. अंग्रेजी विधि में जहाँ सम्पत्ति को स्थायी रूप से हटाना आवश्यक समझा जाता है वहाँ भारतीय विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति को मामूली सा हटाना भी चोरी के अपराध के लिए पर्याप्त है. सम्पत्ति को उस स्थान से हटाना जरूरी है, जहाँ कि कब्जाधारी ने उसे रखा है.

प्यारे लाल बनाम राजस्थान राज्य (AIR 1963 SC 1094 ) के बाद में अभियुक्त विभाग की एक फाइल कुछ समय के लिए ले गया. यद्यपि उसका आशय उसे कुछ समय के पश्चात् वापस लौटाने का था, परन्तु चूँकि उसने फाइल को विभाग के कब्जे में से हटा दिया था, अतः उसे चोरी के अपराध का दोषी माना गया |

क्या कोई व्यक्ति अपनी ही सम्पत्ति की चोरी कर सकता है?

चोरी का अपराध कब्जे के विरुद्ध अपराध है स्वामित्व के विरुद्ध नहीं अतः सम्पत्ति पर जिसका तत्काल कब्जा है वही हकदार होता है इसलिए स्वामी का सम्पत्ति पर कब्जा नहीं है फिर भी लेने का प्रयास करेगा तो चोरी का अपराध करेगा.

उदाहरणार्थ, यदि ‘क’ अपनी घड़ी ‘य’ के पास पणयम करने के बाद घड़ी के बदले लिये गये ऋण को चुकाये बिना उसे ‘य’ के कब्जे में से ‘य’ की सम्मति के बिना ले लेता है तो उसने चोरी की है, यद्यपि वह घड़ी उसकी अपनी ही सम्पत्ति है, क्योंकि वह उसको बेईमानी से ले लेता है |

धारा 379 में सजा

IPC धारा 379 के अनुसार, जो कोई चोरी करेगा, वह दोनों में से किसी भी तरह के फारावास से, जिनकी अवधि दो साल तक की हो सकती है, या जुर्माने से, या दोनों से दण्डित किया जाएगा. यह एक गैर-जमानती, संज्ञेय अपराध है और न्यायाधीश द्वारा विचारणीय है |

उद्दापन क्या है?

उद्दापन को अपकर्षण भी कहाँ जाता है. उद्दापन (Extortion) चोरी और लूट के बीच का अपराध है अर्थात यदि अभियुक्त कब्जाधारी के कब्जे में से सम्पत्ति उसकी सहमति के बिना ले जाता है तो वह चोरी का अपराध करता है. इसके अलावा यदि वह सम्पत्ति छीन कर ले जाता है तो वह लूट का अपराध करता है. परन्तु यदि वह कब्जाधारी को चोट का भय दिखाकर उसको या किसी अन्य व्यक्ति को सम्पत्ति प्रदान करने के लिये विवश या उत्प्रेरित करता है तो वह उद्दापन का अपराध करता है.

उद्दापन किसे कहते हैं? धारा 383 के अनुसार, जब किसी व्यक्ति को स्वयं उसके या अन्य व्यक्ति को क्षति पहुंचाने के आशय से भय पहुंचाया जाता है ताकि वह सम्पत्ति मूल्यवान वस्तु दे दे या हस्ताक्षरित दस्तावेज दे दे जिसको मूल्यों में परिवर्तित किया जा सकता है तो यह उद्दापन (Extortion) का अपराध कहलायेगा.

उदाहरण; ‘अ’ ‘ब’ को धमकी देता है कि यदि उसने 5,000 रुपये नहीं दिये तो वह उसके बच्चों को गायब कर देगा. यह अपकर्षण या उद्दापन का अपराध होगा.

धारा 383 उद्दापन के अपराध की परिभाषा देती है. इसके अनुसार, जो कोई किसी व्यक्ति को या तो स्वयं उस व्यक्ति को या किसी अन्य व्यक्ति की कोई क्षति करने के भय में साशय डालता है और तद्द्वारा इस प्रकार भय में डाले गए व्यक्ति को कोई सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति या हस्ताक्षरित या मुद्रांकित कोई चीज जिसे मूल्यवान प्रतिभूति में परिवर्तित किया जा सके किसी को पारित करने के लिये बेईमानी से उत्प्रेरित करता है वह उद्यापन करता है |

उद्यापन के आवश्यक तत्व

  1. किसी व्यक्ति को क्षति पहुंचाने की धमकी देना,
  2. क्षति का भय उस व्यक्ति को स्वयं या अन्य व्यक्तियों के लिये होना,
  3. ऐसा भय या धमकी को बुरे इरादे से दिया जाना,
  4. भय में डालकर सम्पत्ति या ऐसे दस्तावेज लेगा जिसका मूल्य प्राप्त हो सकता है.

धारा 383 के अन्तर्गत अपराधी के द्वारा किसी व्यक्ति को साशय क्षति करने के भय में डाला जाना आवश्यक है. इस क्षति का भय उस व्यक्ति को स्वयं को या किसी अन्य व्यक्ति को डाला जा सकता है. इसके द्वारा इस प्रकार भय में डाले गए व्यक्ति के द्वारा कोई सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति, या हस्ताक्षरित या मुद्रांकित कोई चीज जिसे मूल्यवान प्रतिभूति में परिवर्तित किया जा सके, किसी व्यक्ति की परिदत करने के लिए उत्प्रेरित किया जाना चाहिए. यह उत्प्रेरण बेईमानी से किया जाना आवश्यक है. यह अपराध तभी पूर्ण होता है. जब परिदान कर दिया जाए |

धारा 384 में सजा

IPC धारा 384 के अनुसार, जो कोई उद्दापन करेगा, वह दोनों में से किसी भी तरह के कारावास से, जिसकी अवधि तीन साल तक की हो सकती है, या जुर्माने से, या दोनों से दण्डित किया जाएगा. यह एक गैर-जमानती, संज्ञेय अपराध है और मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है |

चोरी तथा उद्दापन के बीच अंतर?

  1. चोरी (Theft) के अपराध में कब्जाधारी की सहमति के बिना सम्पत्ति ले जायी जाती है, जबकि उद्दापन (Extortion) के अपराध में सम्पत्ति के स्वामी की सहमति उसे भय में डालकर प्राप्त की जाती है.
  2. चोरी के अपराध में बल प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती, जबकि उद्यापन में भय उत्पन्न करने के लिए बल प्रयोग किया जाता है.
  3. चोरी के अपराध में भय दिखाना आवश्यक नहीं होता, जबकि उद्दापन के अपराध में सम्पत्ति के स्वामी या किसी अन्य व्यक्ति को भय दिखाना आवश्यक है.
  4. चोरी के अपराध में संपत्ति कब्जाधारी की अनुपस्थिति में हटायी जाती है, जबकि उद्यापन के अपराध में सम्पत्ति स्वामी की उपस्थिति और अनुपस्थिति में हटायी जा सकती है.
  5. चोरी के अपराध में सम्पत्ति चल होनी चाहिए, जबकि उद्दापन का अपराध चल और अचल दोनों प्रकार की सम्पत्ति के सम्बन्ध में किया जा सकता है |

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