विधि व्यवसाय में एक अधिवक्ता के लिये वर्जित कदाचार क्या है?

विधि व्यवसाय में एक अधिवक्ता के लिये वर्जित कदाचार क्या है?

अधिवक्ता के लिये वर्जित कदाचार

अधिवक्ताओं का समाज में एक विशेष स्थान होता है. उन्हें समाज में आदर्श प्रस्तुत करना होता है अत: उन्हें ऐसे कार्य नहीं करने चाहिये जिससे कि विधि व्यवसाय कलंकित हो.

“विधि व्यवसाय का एक आदर्श व्यवसाय है. इस व्यवसाय के लिये विशिष्ट बुद्धिमता एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है.” अधिवक्ता को गरिमा, शालीनता एवं अनुशासन के साथ अपने कर्तव्य का निर्वहन करना होता है. अधिवक्ताओं की अपनी एक आचार संहिता है.

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अतः कोई भी व्यक्ति तब तक विधि व्यवसाय नहीं कर सकता है जब तक कि उसके पास निर्धारित शैक्षणिक योग्यता न हो और अधिवक्ता नामावली में उसका नाम प्रविष्ट न हो. यदि कोई व्यक्ति बिना शैक्षणिक योग्यता धारण किये हुए तथा अधिवक्ता नामावली में नाम प्रविष्ट कराये बगैर विधि व्यवसाय करता है तो उसे अधिवक्ता अधिनियम की धारा 45 के अन्तर्गत दोष सिद्ध किया जा सकता है. किसी अधिवक्ता को निम्नलिखित कदाचार नहीं करना चाहिए-

1. निर्धारित योग्यता एवं सनद प्राप्त किये बगैर वकालत न करना

अधिवक्ताओं का यह कर्तव्य है कि वे विधि व्यवसाय करने के लिये अपेक्षित शैक्षणिक योग्यताएं एवं विधिज्ञ परिषद् से वांछित सनद प्राप्त कर लें. बिना शैक्षणिक योग्यता एवं सनद प्राप्त किये किसी भी व्यक्ति को विधि व्यवसाय प्रारम्भ नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा किया जाना अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 45 के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध है. ऐसे व्यक्ति को छः माह के कारावास से दण्डित किया जा सकता है.

नीलगिरी बार एसोसियेशन बनाम T. K. महालिंगन (1998 Cr. LR 247 SC) के मामले में प्रत्यर्थी के पास न तो विधि स्नातक की उपाधि थी और न ही उसका नाम अधिवक्ता नामावली में नामांकित था फिर भी वह लगातार आठ वर्षों तक न्यायालयों में वकालत करता रहा. जब उसका अभियोजन किया गया तो उसने अपने अपराध की स्वीकारोक्ति की. विचारण न्यायालय ने उसे परिवीक्षा का लाभ दिया.

उच्च न्यायालय ने भी परिवीक्षा के आदेश को यथावत रखा. लेकिन जब यह मामला उच्चतम न्यायालय में पहुंचा तो उच्चतम न्यायालय ने ऐसे व्यक्ति को परिवीक्षा का लाभ देना उचित नहीं माना और प्रत्यर्थी को 6 माह के कठोर कारावास तथा 5000 रुपये के जुर्माने से दण्डित किया. जुर्माना जमा नहीं कराये जाने पर तीन माह के अतिरिक्त कारावास की सजा सुनाई.

उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि “वकालत का व्यवसाय एक आदर्श एवं पवित्र व्यवसाय है. अधिवक्ता का समाज में अपना एक विशिष्ट स्थान है. जनसाधारण अधिवक्ता को आदर की दृष्टि से देखता है. ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति इस व्यवसाय की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाने वाला कार्य करता है तो ऐसा व्यक्ति किसी सहानुभूति का पात्र नहीं रह जाता है. ऐसे व्यक्तियों के लिये कठोर दण्ड ही उचित दण्ड है.”

इस प्रकार उपरोक्त सभी विधि व्यवस्थाओं एवं विनिर्णयों से यह स्पष्ट है कि विधि व्यवसाय केवल अधिकृत व्यक्तियों द्वारा ही किया जाना चाहिये. कोई भी व्यक्ति जिसके पास विधि स्नातक की उपाधि न हो और अधिवक्ता नामावली में जिसका नाम प्रविष्ट न हो, उसे विधि व्यवसाय नहीं करना चाहिये.

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2. विधि-व्यवसाय के साथ कोई अन्य व्यवसाय न करना

विधि व्यवसाय एक पूर्णकालिक व्यवसाय है. इसके साथ कोई अंशकालिक व्यवसाय नहीं किया जा सकता. अधिवक्ता के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने व्यवसाय के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित रहे अर्थात् वह विधि व्यवसाय के साथ-साथ अन्य कोई व्यवसाय नहीं करे. इसका मुख्य कारण है कि विधि व्यवसाय एक आदर्श व्यवसाय है. इसमें अधिवक्ताओं को समर्पित भाव से कार्य करना होता है. साथ ही विधि व्यवसाय में पूरा समय देने की भी आवश्यकता होती है.

अतः यदि कोई अधिवक्ता विधि व्यवसाय के साथ-साथ अन्य कोई व्यवसाय प्रारम्भ कर देता है तो वह विधि व्यवसाय के साथ न्याय नहीं कर पाता है. यही कारण है कि अधिवक्ताओं को विधि व्यवसाय के साथ-साथ अन्य किसी व्यवसाय से निवारित रखने की व्यवस्था की गई है.

3. अपने पक्षकारों को गलत राय न देना

अधिवक्ताओं का यह कर्तव्य है कि वे अपने पक्षकारों को सदा सही राय दें. उन्हें कभी गलत राय देने का प्रयास नहीं करें क्योंकि गलत राय देने से पक्षकार भ्रमित हो सकते हैं.

4. अनुचित एवं अनावश्यक रूप से हड़ताल न करना

अधिवक्ताओं को अपने पेशे के प्रति सदा समर्पित रहना चाहिये. साथ ही मामलों की पैरवी में हमेशा सतर्क एवं सचेत रहना चाहिये. अधिवक्ताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अनावश्यक रूप से न्यायालयों से अनुपस्थित नहीं रहें.

कई बार यह देखा जाता है कि अधिवक्ता छोटी-छोटी बातों को लेकर हड़ताल कर देते हैं. हड़ताल से मामलों की पैरवी में व्यवधान उत्पन्न होता है. पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक मामले में ऐसी हड़तालों को आचार संहिता के विपरीत माना है तथा यह कहा है कि अधिवक्ताओं को ऐसी प्रवृत्ति से बचना चाहिये.

5. विरोधी पक्षकार से दुरभिसंधि न करना

अधिवक्ताओं का यह कर्तव्य है कि वे अपने पक्षकार के प्रति सदैव कर्तव्य निष्ठावान रहें. पक्षकार के विश्वास को आघात नहीं पहुंचायें. अपने पक्षकारों के मामलों की पैरवी पूर्ण निष्ठा से करें. इस सन्दर्भ में अधिवक्ताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे विरोधी पक्षकार के साथ दुरभिसंधि नहीं करें अर्थात्-

  1. विरोधी पक्षकार के मामले की पैरवी नहीं करें.
  2. विरोधी पक्षकार को राय न दें.
  3. विरोधी पक्षकार से अवैध दुरभिसंधि नहीं करें.
  4. विरोधी पक्षकार से अवैध रूप से शुल्क आदि प्राप्त न करें.
  5. विरोधी पक्षकार को अपने पक्षकार के विरुद्ध उत्प्रेरित आदि नहीं करें.

इस प्रकार अधिवक्ताओं को उपरोक्त सभी कृत्यों से बचने की राय दी जाती है.

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6. किसी अन्य अधिवक्ता के मामले में अनावश्यक हस्तक्षेप न करना

अधिवक्ताओं का यह कर्तव्य है कि वे केवल अपने मामलों में पैरवी तक ही सीमित रहें। अन्य अधिवक्ताओं के मामलों में हस्तक्षेप करना उचित नहीं होता. कई बार यह देखा जाता है कि अधिवक्ता दूसरे अधिवक्ताओं के मामलों को लेकर उनमें पैरवी प्रारम्भ कर देते हैं. उन अधिवक्ताओं को इस बात का पता भी नहीं चलता. इस प्रकार अन्य अधिवक्ताओं के मामलों में अनुचित रूप से हस्तक्षेप करना भी वृत्तिक कदाचार की परिधि में आता है.

7. वादग्रस्त सम्पत्ति का क्रय न करना

अधिवक्ताओं का यह कर्तव्य है कि वे अपने ही पक्षकार की वादग्रस्त सम्पत्ति को कभी क्रय न करे. ऐसा करने से पक्षकारों के विश्वास पर आघात होता है. ऐसा अधिवक्ताओं की आचार संहिता के विपरीत है.

उच्चतम न्यायालय ने P. D. गुप्ता बनाम राममूर्ति (AIR 1998 SC 283) के मामले में अधिवक्ता के इस प्रकार के कृत्य को वृत्तिक कदाचार (Professional Misconduct) माना है |

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