विधिक अधिकार क्या है? | विधिक अधिकार की परिभाषा, सिद्धान्त एवं तत्व

विधिक अधिकार क्या है? | विधिक अधिकार की परिभाषा, सिद्धान्त एवं तत्व

विधिक अधिकार क्या है? अधिकार की निश्चित परिभाषा नहीं की जा सकती. इसकी परिभाषा अनेक प्रकार से विधि साहित्य में पायी जाती है. इसको सामान्यतया अनुज्ञात कार्य का मानक माना जाता है. अधिकार का यह अर्थ आक्सफोर्ड डिक्शनरी (Oxford Dictionary) में दिया गया हैं. एक विधिक पद के रूप में इसका अर्थ है कि विधि द्वारा अनुज्ञात कार्य का मानक किसी व्यक्ति का ऐसा अनुज्ञात कार्य का मानक उसका अधिकार कहा जाता है. विधिक अधिकार विधिक न्याय के एक नियम द्वारा मान्य और रक्षित एक हित है |

विधिक अधिकार की परिभाषायें

आस्टिन के अनुसार, ‘अधिकार एक क्षमता है जो विहित पक्ष या पक्षकारों में विधि द्वारा निहित की जाती है और जो अन्य पक्ष या पक्ष के प्रतिकूल प्राप्त होती है.’ उसके अनुसार एक व्यक्ति के पास तभी अधिकार होता है जबकि दूसरा या दूसरे के उसके सम्बन्ध में मौलिक कार्य करने, प्रगति करने के लिये विधि द्वारा आबद्ध या साध्य होते हैं.

हालैंड के अनुसार, हालैंड की परिभाषा ऑस्टिन से ही मिलती-जुलती है. उसके अनुसार अधिकार एक व्यक्ति में रहने वाली क्षमता है जो कि राज्य की अनुमति और सहायता से दूसरे के कार्यों का नियन्त्रण करती है.’

सामण्ड ने अधिकार को परिभाषा इस प्रकार की है कि ‘अधिकार एक हित है जो युक्तता के नियम से मान्य और संरक्षित होता है.’ सामण्ड ने अपनी परिभाषा को स्पष्ट किया है कि यह एक हित है जिसका सम्मान एक कर्तव्य है और अवहेलना एक दोष है. इस परिभाषा के दो तत्व हैं-

  1. युक्तता के नियम का अर्थ है विधि शासन या दूसरे शब्दों में अधिकार वह हित है जिसका न्यायिक परिवर्तन किया जाता है.
  2. अधिकार एक हित है जिसका तात्पर्य है कि हित का तत्व अधिकार के सृजन के लिये आवश्यक है. प्रवर्तन का तत्व सामण्ड ने अपनी विधि की परिभाषा से अधिकार में जोड़ दिया है.

ग्रे के अनुसार, “विधिक अधिकार ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों को कोई कार्य करने या कार्य करने से उपरत रहने के लिए वैधानिक कर्तव्य द्वारा बाध्य करता है.”

किन्तु कुछ विधिशास्त्री जो लोकविधि (Public Law) के समर्थक हैं, वे अधिकार की सत्ता को नहीं मानते हैं. उनका विचार है कि विधिक अधिकार जैसा कोई सम्प्रत्यय ही नहीं है |

अधिकार के सिद्धान्त

अधिकार को मानव इच्छा का लक्षण माना गया है. इस सिद्धान्त का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को अधिकाधिक विधिक साधनों को प्रदान करना है.

1. इच्छा का सिद्धान्त

हीगल, कान्ट, ह्यूम, पुश्चा आदि विधिशास्त्री विधिक अधिकार के इच्छा सम्बन्धी सिद्धान्त के समर्थक हैं. इच्छा का सिद्धान्त यह प्रतिपादित करता है कि विधि का प्रयोजन व्यक्ति को आत्माभिव्यक्ति या स्वत्वाग्रह के साधनों को अनुदत्त करता है. अतः अधिकार मानव इच्छा से उत्पन्न होता है.

ऑस्टिन और हालैण्ड द्वारा दी गयी अधिकार की परिभाषा यह प्रतिपादित करती है कि इच्छा हो अधिकार का मुख्य तत्व है. पोलक और विनोग्रैडाफ भी इच्छा के रूप में अधिकार की परिभाषा करते हैं.

लाक ने भी इच्छा को अधिकार का स्रोत माना है. लाक अ-अन्यसंक्राम्य अधिकारों में विश्वास करता था. उसने अपना मत दिया था कि व्यक्ति के जीवन के कतिपय क्षेत्रों में राज्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता है.

लॉक के अनुसार, विधियों का प्रयोजन स्वतन्त्रता को समाप्त करना या सीमित करना नहीं है बल्कि परिरक्षण एवं विस्तार करना है.

कुछ विधिशास्त्रियों का यह निश्चित मत है कि अधिकार से अभिप्रेत आत्माभिव्यक्ति या इच्छा से है. इच्छा सिद्धान्त के प्रतिपादक अधिकतम जर्मन में हुये हैं. ऐतिहासिक विचारधारा के जर्मन विधिशास्त्रियों ने इच्छा को ही अधिकार माना है.

अधिकार किसी वस्तु पर शक्ति है जो इसके जरिये उस व्यक्ति की इच्छा के अधीन किया जाता है जो कि उस अधिकार का उपभोग करता है. इच्छा सिद्धान्त के प्रतिपादकों ने स्वतन्त्र इच्छा करने वाले व्यक्ति का प्रतिपादन किया है और बताया है कि बिना इच्छा के अधिकार व्यर्थ हैं. इच्छा के कारण ही अधिकार का उपभोग किया जाता है.

2. हित-सिद्धान्त

अधिकार के हित सिद्धान्त के प्रवर्तक इहरिग हैं. इहरिंग ने अधिकार की परिभाषा इस प्रकार की है कि ‘अधिकार विधि द्वारा संरक्षित एक हित है.’ उनका मत है कि हित ही अधिकार का आधार है. व्यक्ति की इच्छा अधिकार नहीं हो सकती है.

जर्मन उपयोगितावादी दार्शनिक इहरिंग इस सिद्धान्त के समर्थक है. इनके अनुसार इस तरह के हित राज्य द्वारा सृजित नहीं होते हैं बल्कि समुदाय में पहले से निहित होते हैं उसने विधि की परिभाषा प्रयोजन के रूप में किया है. उसका विचार है कि विधि का सदैव एक होता है.

अधिकारों के मामले में विधि का प्रयोजन कतिपय हितों का संरक्षण करना होता है न कि व्यक्तियों की इच्छाओं को संरक्षित करना हितों का सृजन राज्य द्वारा नहीं किया जाता है. हित समाज में विद्यमान होते हैं. राज्य उनमें से उन्हीं हितों की रक्षा करता है. जिसका यह चमन करता है. सामण्ड भी इहरिंग के सिद्धान्त को मानता है किन्तु उसमें प्रवर्तनीयता का तत्व और जोड़ देता है.

सामण्ड के अनुसार ‘प्रवर्तनोक्ता’ विधि का एक आवश्यक तत्व है. हित सिद्धान्त के प्रतिपादक यह तर्क देते हैं कि कुछ व्यक्तियों के अधिकार बिना इच्छा के भी हो सकते हैं. शिशु पागल और निगम को अधिकार प्राप्त होते है.

किन्तु उनमें इच्छा नहीं होती है. ऐसे मामले में अधिकारों के नाम पर उनके हितों की रक्षा की जाती है परन्तु यहां भी इच्छा को पूर्णरूप से निष्कासित नहीं किया जा सकता है.

इच्छा सिद्धान्त और हित सिद्धान्त एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के सहयोगी हैं. इच्छा शून्य में कार्य नहीं करती है अपितु उसका एक लक्ष्य होता है और वह होता है हित.

प्रोफेसर एलेन ने अधिकार की परिभाषा में इच्छा और हित दोनों का संश्लेषण किया है और कहा कि अधिकार न केवल इच्छा ही है और न केवल हित है, क्योंकि मैं समझता हूँ कि इसमें दोनों का समावेश पाया जाता है.

3. अधिकारों के संरक्षण का सिद्धान्त

अधिकारों के विशिष्ट लक्षण विधि द्वारा मान्यता प्रदान करना है. यदि किसी अधिकार की अवमानना होती है तो राज्य का कर्तव्य है कि लागू करें. हर्जाना प्रदान करें. कई तरह से विधिक अधिकारों को लागू किया जा सकता है. जैसे- प्रतिस्थापन, विशिष्ट अनुपालन व्यादेश आदि |

विधिक अधिकार के तत्व

सामण्ड के अनुसार, विधिक अधिकार में निम्नांकित तत्वों का होना आवश्यक होता है-

1. अधिकार का धारणकर्ता

विधिक अधिकार किसी व्यक्ति में निहित होता है.

2. अधिकार से आबद्ध व्यक्ति

विधिक अधिकार का प्रयोग किसी व्यक्ति के विरुद्ध किया जाता है.

3. अधिकार की अन्तर्वस्तु

विधिक अधिकार के द्वारा आबद्ध व्यक्ति हकदार व्यक्ति के पक्ष में कोई कार्य करने या न करने के लिए बाध्य होता है.

4. अधिकार की विषय-वस्तु

अधिकार के धारणकर्ता को जो विधिक अधिकार प्राप्त होता है, वह किसी वस्तु से सम्बन्धित होता है. परन्तु हालैण्ड के अनुसार, सभी विधिक अधिकारों में इस तत्व का होना आवश्यक नहीं है.

5. अधिकार का स्वत्व

प्रत्येक विधिक अधिकार के साथ अधिकार के धारणकर्ता का स्वत्व या हक जुड़ा होता है |

Leave a Comment