विधिक अधिकार के विभिन्न प्रकार एवं विशेषतायें

विधिक अधिकार के विभिन्न प्रकार एवं विशेषतायें

विधिक अधिकार के प्रकार

सामण्ड अधिकार का विभाजन निम्न आठ भागों में करते हैं-

1. पूर्ण तथा अपूर्ण अधिकार

पूर्ण अधिकारों को राज्य केवल मान्यता ही नहीं देता वरन् उन्हें लागू भी करता है. अपूर्ण अधिकारों को राज्य केवल मान्यता देता है, पूर्ण अधिकार वह होता है जिसके सहवर्ती पूर्ण कर्तव्य हो. उन्हें लागू नहीं करता, जैसे मियाद-समाप्ति का कर्ज (Time-barred Debt) मान्यता प्राप्त है, उस पर अपूर्ण अधिकार लागू नहीं हो सकता.

2. स्वीकारात्मक एवं नकारात्मक अधिकार

सकारात्मक अधिकार ऐसा अधिकार होता है जिसमें कुछ सकारात्मक कार्य करने के दायित्वाधीन होता है. नकारात्मक अधिकार वह होता है जिसमें कुछ करने से विरत रहना होता है. अधिकार स्वीकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों हो सकते हैं, जैसे हमारा यह स्वीकारात्मक अधिकार है कि हम अपने ऋण लेने वाले से अपना ऋण वसूल कर लें. परन्तु नकारात्मक अधिकार में हमारे पास जो है वही सुरक्षित बना रहता है. जैसे हमारा नकारात्मक अधिकार है कि कोई व्यक्ति हमारे घर में घुसकर चोरी न करे.

3. सार्वभौमिक तथा व्यक्तिगत अधिकार

सार्वभौमिक अधिकार (Right In Rem) संसार के समस्त व्यक्तियों के विरुद्ध प्राप्त होता है. स्वामित्व तथा आधिपत्य के अधिकार इसी प्रकार के होते हैं. संसार का प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, जो अधिकार प्रदान करने वाली विधि से ही शासित होता है, वह किसी भूमि पर प्राप्त हमारे स्वत्व के विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकता. इस प्रकार के अधिकार एक या दो व्यक्तियों के विरुद्ध नहीं वरन् समस्त संसार के प्रति प्राप्त होते हैं. लोकलक्षी अधिकार नकारात्मक होते हैं.

4. व्यक्तिगत अधिकार

ये केवल कुछ निश्चित व्यक्ति या व्यक्तियों के विरुद्ध ही प्राप्त होते हैं. इन अधिकारों के प्रति कर्तव्य करने का भार केवल कुछ व्यक्तियों पर ही पड़ता है. इस प्रकार के अधिकारों में प्रमुख रूप से संविदात्मक अधिकार (Contractual Rights) आते हैं. व्यक्तिलक्षी अधिकार सकारात्मक होते हैं.

5. साम्पत्तिक तथा व्यक्तिगत अधिकार

अधिकार या तो साम्पत्तिक होते हैं या व्यक्तिगत. साम्पत्तिक अधिकार वे होते हैं जो व्यक्ति को सम्पत्ति का निर्माण करते हैं. इससे आदमी की हैसियत बनती है. भूमि, ऋण, ख्याति इत्यादि साम्यतिक अधिकार हो होते हैं परन्तु मनुष्य के व्यक्तिगत अधिकारों का सम्बन्ध उसके व्यक्तित्व, हैसियत या प्रतिष्ठा से होता है. साम्पत्तिक अधिकार मूल्यवान होते हैं. जबकि व्यक्तिगत अधिकार उतने मूल्यवान नहीं होते हैं. साम्पत्तिक अधिकार व्यक्ति पदार्थ के रूप में होते हैं जबकि व्यक्तिलक्षी उसकी भलाई के लिये होते हैं.

6. निज-साम्पत्तिक अधिकार तथा पर-साम्पत्तिक अधिकार

अपनी निजी सम्पत्ति पर अधिकार को स्व-साम्पत्तिक एवं दूसरे की सम्पत्ति में अधिकार को पर-साम्पत्तिक अधिकार कहते हैं. निज की साम्पत्तिक अधिकार की व्याख्या अवशिष्ट अधिकार के रूप में की जाती है. पर-साम्पत्तिक अधिकार की व्याख्या विलंगम के रूप में की जाती है.

7. विधिक एवं साम्यिक अधिकार

कॉमन लाॅ के अन्तर्गत प्राप्त अधिकार विधिक एवं साम्य के सिद्धान्तों के तहत प्राप्त अधिकार साम्यिक कहलाते हैं. विधिक अधिकार को अन्याय के आधार पर भी लागू किया जाता है, जबकि साम्यिक अधिकार को नहीं लागू किया जा सकता है.

8. निहित और समाश्रित अधिकार

यदि स्वत्व या हक पूर्ण है तो अधिकार निहित कहलाता है जब पूर्व हक किसी घटना के घटने या न घटने पर निर्भर करता है तो अधिकार समाश्रित कहलाता है. निहित अधिकार तब उत्पन्न होता है जब व्यक्ति को अधिकार देने वाले सभी तथ्य घटित हो जाते हैं जबकि समाश्रित अधिकार तब उत्पन्न होते हैं जब सभी तथ्य उत्पन्न न होकर कुछ ही तथ्य उत्पन्न होते हैं.

9. लोक एवं प्राइवेट अधिकार

अधिकार लोक एवं व्यक्तियों में निहित अधिकार प्राइवेट अधिकार कहलाते हैं. लोक विधि राज्य द्वारा राज्य एवं नागरिकों के सम्बन्ध को लागू करता है. प्राइवेट विधि प्राइवेट अधिकारों को संरक्षित एवं लागू करता है |

विधिक अधिकार की विशेषतायें

प्रत्येक अधिकार में निम्नलिखित तत्व या प्रमुख विशेषतायें पायी जाती है-

  1. प्रत्येक अधिकार का एक भोक्ता होना चाहिये. भोक्ता से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जिसमें अधिकार निहित होता है अर्थात अधिकार एक व्यक्ति में निहित होता है जिसे हम अधिकार का स्वामी, अधिकार का भोक्ता, अधिकार का हकदार व्यक्ति या अधिकार का धारणकर्त्ता कह सकते हैं.
  2. प्रत्येक अधिकार में एक आबद्ध व्यक्ति होता है अर्थात एक व्यक्ति होता है जिसके ऊपर एक सहवर्ती कर्तव्य होता है. दूसरे शब्दों में, विधिक अधिकार का प्रयोग किसी व्यक्ति के विरुद्ध किया जाता है. ऐसे व्यक्ति पर तत्सम्बन्धी कर्त्तव्य करने का भार होता है. ऐसे व्यक्ति को कर्तव्य का कर्त्ता या अधिकार से आबद्ध व्यक्ति कहा जाता है.
  3. यह कर्तव्य कर्त्ता या अधिकार से आबद्ध व्यक्ति को अधिकार के हकदार या अधिकार के भोक्ता के पक्ष में कुछ कार्य करने या कार्य से विरत रहने के लिये बाध्य करता है. इस प्रकार के कार्य या कार्य से विरत रहने को अधिकार की अन्तर्वस्तु कहते हैं.
  4. विधिक अधिकार का चौथा आवश्यक तत्व है वस्तु या चीज जिस पर अधिकार का प्रयोग किया जाता है अर्थात अधिकार की वस्तु इसे हम अधिकार की विषय-वस्तु भी कहते हैं. अधिकार की विषयवस्तु निश्चित, अनिश्चित तथा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों हो सकती हैं. किसी के अधिकार की विषय-वस्तु ख्याति हो सकती है जिसका कोई निश्चित या निर्धारित स्वरूप नहीं. परन्तु सामण्ड के अनुसार कुछ अधिकार ऐसे होते हैं जिनका कोई पदार्थ या वस्तु नहीं होता.
  5. प्रत्येक अधिकार में एक स्वत्व होता है अर्थात कुछ तथ्य एवं घटनायें होती हैं जिनके कारण अधिकार स्वामी में निहित होता है |

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