सिविल अवमान का अर्थ एवं आवश्यक तत्व | सिविल अवमानकर्ता की प्रतिरक्षाएं

सिविल अवमान का अर्थ एवं आवश्यक तत्व | सिविल अवमानकर्ता की प्रतिरक्षाएं

सिविल अवमान

न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 2 के खण्ड (B) के अनुसार सिविल अवमान का अर्थ किसी न्यायालय के निर्णय, डिग्री, निर्देश, आदेश, रिट या आदेशिका को अवज्ञा या किसी न्यायालय में किए गए परिवचन के जानबूझकर की गई अवज्ञा से है.

सिविल अवमान (Civil Contempt) मूलतः उस व्यक्ति, जो किसी न्यायालय के किसी आदेश का लाभ पाने के लिए अधिकृत है, के विरुद्ध एक दोष है. सिविल अवमान एक दोष है जिसके लिए न्यायालय क्षतिग्रस्त व्यक्ति को क्षतिपूर्ति कराती है. यद्यपि वह नाममात्र का न्यायालय अवमान है. यह वास्तव में एक प्राइवेट प्रकृति का दोष है जो जनता के मध्य होता है और जिसकी कार्यवाही में राज्य (State) पक्षकार नहीं होता. इसमें दिया गया दण्ड, वादी के अधिकारों के प्रवर्तन द्वारा सम्पादित होता है.

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सिविल अवमान की कार्यवाही आवश्यक रूप में न्यायालय के किसी आदेश के पालन के लिए प्रारम्भ की जाती है. यह कार्यवाही उस आदेश के निष्पादन के लिए होती है.

सिविल अवमान के लिए निम्नलिखित शर्तों का होना आवश्यक है-

  1. इसमें न्यायालय के किसी निर्णय, आदेश, डिक्री, निर्देश, रिट या न्यायालय की आदेशिका या न्यायालय को दिया गया कोई परिवचन होता है.
  2. इसमें निर्णय आदि और न्यायालय को दिया गया परिवचन होता है.
  3. इसमें निर्णय आदि की अवज्ञा का होना या न्यायालय को दी गई परिवचन का भंग होना आवश्यक है.
  4. इसमें निर्णय आदि का उल्लंघन तथा न्यायालय को दी गई परिवचन का भंग जानबूझकर किया गया होना आवश्यक है.

सिविल-अवमानकर्ता की प्रतिरक्षाएं

सिविल अवमान की प्रतिरक्षा का विचारण निम्नलिखित शीर्षकों में किया गया है-

1. न्यायालय की अवज्ञा अथवा वचनभंग जानबूझकर नहीं किया गया

सिविल अवमान के अन्तर्गत यह दर्शित करना आवश्यक है कि न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री, निर्देश, रिट, आदेश, व्यादेश या न्यायालय की प्रक्रिया या वचन भंग की जानबूझकर अवज्ञा की गई है. परन्तु यदि अवमानकर्ता यह सिद्ध करने में सफल हो जाता है कि न्यायालय के आदेश की अवज्ञा या न्यायालय को दिया गया वचन भंग जानबूझकर नहीं किया गया था, तो अवमान के दायित्व से छुटकारा प्राप्त कर सकता है.

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2. न्यायालय का आदेश बिना अधिकारिता के पारित किया गया था

जहां न्यायालय का आदेश बिना अधिकारिता के पारित किया गया था, वहां अभियुक्त को अवमान कार्यवाही में आदेश की अवज्ञा एक प्रतिरक्षा होती है. बिना अधिकारिता के न्यायालय द्वारा पारित आदेश की अवज्ञा की जा सकती है क्योंकि उसे बिना अधिकारिता के पारित किया गया है.

किरन सिंह बनाम चमन पासवान, (AIR 1954 SC 340) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि अधिकारिता का दोष न्यायालय की डिक्री पारित करने के प्राधिकार पर प्रहार करता है और ऐसा दोष पक्षकारों की सहमति से भी सुधारा नहीं जा सकता.

3. जहां अभिलेख में अवज्ञा किया गया आदेश अस्पष्ट है

सम्बन्धित पक्षकार द्वारा न्यायालय के अस्पष्ट आदेश की अवज्ञा की जा सकती है. अवमान कार्यवाहियों में न्यायालय के आदेश का अस्पष्ट होना अभियुक्त के लिए एक वैध प्रतिरक्षा है.

R. M. रमौल बनाम स्टेट ऑफ हिमांचल प्रदेश [(1991) C.L. जनरल 1415 SC] में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि चूंकि आदेश में मौद्रिक लाभ के लिए कोई विशिष्ट लाभ नहीं दिया गया था, जिसके उल्लंघन की शिकायत की गई थी, इससे तकनीकी दृष्टि से कोई अवमान नहीं हुआ था.

4. जहाँ आदेश के निर्वचन का प्रश्न अन्तर्ग्रत है

जहां न्यायालय के आदेश में एक से अधिक व्याख्याएँ सम्भव हैं और प्रत्यर्थी एक व्याख्या के अनुसार कार्य करता है, वहां अवमान की कार्यवाही में उसे उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता.

S. K. साहा बनाम गोकुल चन्द्र धारा [(1988) C.L. जनरल 21] के वाद में यह धारण किया गया है कि जहां न्यायालय के आदेश या निर्देश का एक से अधिक तर्कपूर्ण तथा उचित निर्वचन सम्भव है, वहां प्रतिवादी के विरुद्ध न्यायालय के आदेश या निर्देश की अवज्ञा के लिए सिविल अवमान की कार्यवाही नहीं की जा सकती।

5. जहां आदेश का अनुपालन दूसरे तथ्यों पर आधारित है

जहां न्यायालय के आदेश का अनुपालन दूसरे तथ्यों पर आधारित है, वहां प्रतिवादी के विरुद्ध सिविल अवमान को कार्यवाही नहीं की जा सकती.

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एटार्नी जनरल बनाम बाल्थाक्सटोव U.D.C. [(1985) 11 T.L.R. 533] के वाद के धारण किया गया है कि सम्बन्धित पक्षकार को आदेश के पालन के लिए उचित साधन की खोज करना है, वहां आदेश के अपालन की स्थिति में प्रतिवादी यह प्रतिरक्षा ले सकता है कि आदेश का पालन सम्भव नहीं था.

6. न्यायालय के आदेश का ज्ञान न होना

न्यायालय के आदेश का ज्ञान न होना उस व्यक्ति के लिए एक वैध प्रतिरक्षा है जिसके विरुद्ध अवमान कार्यवाहियां की जानी हैं. इस प्रकार जहां कोई पक्षकार दण्ड संहिता प्रक्रिया (CrPC) की धारा 144 (2) के अन्तर्गत “वस्तु-स्थिति के आदेश” की प्राप्ति के पूर्व से चाहार दीवारी बनवाने का कार्य कर रहा था और उसे न्यायालय के आदेश का ज्ञान नहीं था, वहां यह धारण किया गया कि उसके द्वारा न्यायालय अवमान नहीं किया गया.

सुकुमार मुखोपाध्याय बनाम T. D. करमचन्दानी [(1995) C.L. जनरल 1610 (कलकत्ता)] के वाद में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह धारण किया है कि यदि कोई व्यक्ति परिनियमित आदेश के उल्लंघन के लिए आरोपित था, वह अपनी प्रतिरक्षा में सफलतापूर्वक अभिवचन कर सकता था कि उसको न्यायालय का आदेश औपचारिक रूप से तामोल नहीं किया गया था |

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