मानव अधिकारों के विभिन्न सिद्धान्त

मानव अधिकारों के विभिन्न सिद्धान्त

मानव अधिकार

मानव अधिकार के सिद्धान्त? मानवीय अधिकार या मानवाधिकार वास्तव में वे अधिकार हैं जो प्रत्येक मनुष्य को केवल इस आधार पर मिलते हैं कि उसे मनुष्य के रूप में जीवित रहने के लिये उन अधिकारों की आवश्यकता होती है |

मानव अधिकारों के विभिन्न सिद्धान्त

मानवीय अधिकारों के सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया है-

1. प्राकृतिक विधि का सिद्धांत

प्राकृतिक विधि का जन्म ग्रीक में हुआ तथा उसका विकास रोम में हुआ जिसे बाद में ‘जस नेचुरली’ (Jus Naturale) कहा गया है परन्तु विधि मानव आचरण के सिद्धांतों को प्रतिपादित करती है.

नैसर्गिक विधि उस बात की अभिव्यक्ति है जो सही है उसके विरुद्ध जो केवल समीचीन या काचित्व एवं विशिष्ट या स्वाभाविक है उसके विरुद्ध जो सुविधाजनक है, तथा जो सामाजिक अच्छाई या भलाई के लिये है उसके विरुद्ध जो व्यक्तिगत इच्छानुसार है.

अत: प्राकृतिक या नैसर्गिक विधि मनुष्य को प्रकृति की तार्किक एवं युक्तियुक्त आवश्यकताओं पर आधारित थी. रोमन लोगों के अनुसार नैसर्गिक विधि में न्याय के प्रारम्भिक सिद्धांत थे जो उचित तर्क का अधिदेश था. दूसरे शब्दों में, उक्त सिद्धांत प्रकृति के अनुसार थे तथा वे अपरिवर्तनीय तथा शाश्वत थे.

प्राकृतिक अधिकार का सिद्धांत उपर्युक्त प्राकृतिक विधि के सिद्धांत से निकाला गया है. प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत आधुनिक मानवीय अधिकारों से निकट रूप से सम्बद्ध है. इसके मुख्य प्रवर्तक जान लॉक थे. उनके अनुसार, जब मनुष्य प्राकृतिक दशा में था जहां महिलाएं एवं पुरुष स्वतंत्र स्थिति में थे तथा अपने कृत्यों को निर्धारित करने के लिये योग्य थे तथा वे समानता की दशा में थे.

लॉक ने यह भी कल्पना की कि ऐसी प्राकृतिक दशा में कोई भी किसी अन्य की इच्छा या प्राधिकार के अधीन नहीं था. तत्पश्चात् प्राकृतिक दशा के कुछ जोखिमों एवं असुविधाओं से बचने के लिये उन्होंने एक सामाजिक संविदा की द्वारा उन्होंने पारस्परिक रूप से किया कि वह एक समुदाय तथा राजनीतिक निकाय स्थापित करेंगे.

परन्तु उन्होंने कुछ प्राकृतिक अधिकार जैसे जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार तथा सम्पत्ति का अधिकार अपने पास रखा. यह सरकार का कर्त्तव्य था कि वह अपने नागरिकों के प्राकृतिक अधिकारों का सम्मान एवं संरक्षण करे. वह जो इसमें असफल रही या जिसने अपने कर्त्तव्य में उपेक्षा करती अपने पद या कार्यालय की वैधता खो देगी |

2. अस्तित्वाद का सिद्धान्त

अस्तित्ववाद 18वाँ एवं 19वीं शताब्दियों में प्रचलित था. अस्तित्ववादी यह विश्वास करते थे कि यदि विधि उपर्युक्त विधायनी या प्रभुत्वसम्पन्न शासक द्वारा निर्मित की गयी है तो लोग उसे मानने को बाध्य होंगे चाहे वह युक्तियुक्त हो या अयुक्तियुक्त हो. अस्तित्ववादी इस विधि को लॉ पाजिटिवम (Law Positivum) अर्थात् ऐसी विधि कहते थे जो वास्तव में या तथ्य में, विधि है न कि ऐसी विधि जिसे होना चाहिये था. बिन्कर शोएक (Bynker Shock) इस विचार धारा के एक प्रमुख प्रवर्तक थे.

अस्तित्ववादियों के अनुसार, मानवीय अधिकारों का स्त्रोत ऐसी विधिक प्रणाली है जिसमें अनुशास्ति होती है. उन्होंने ‘है’ (is) और ‘होना चाहिये’ (ought) के अंतर पर बहुत बल दिया तथा प्राकृतिक विधि के प्रवर्तकों की आलोचना की जिन्होंने इस अंतर को भुला दिया था.

अस्तित्ववादी मत के एक आधुनिक प्रवर्तक प्रोफेसर H.L.A. हार्ट हैं. उनके अनुसार, विधि की अवैधता तथा विधि की नैतिकता में अन्तर होता है. यह प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त तथा अस्तित्ववादी सिद्धान्त में मूल अन्तर है. अस्तित्ववादियों के अनुसार, विधि के वैध होने के लिए यह आवश्यक है कि उसे एक उपर्युक्त विधायिनी प्राधिकार या शक्ति द्वारा अधिनियमित किया जाय. ऐसी विधि वैध रहेगी चाहे वह अनैतिक ही क्यों न हो |

3. मार्क्सवादी सिद्धान्त

इसके अनुसार व्यक्तियों के अधिकार पूरे समुदाय के अधिकारों से पृथक नहीं होते हैं. उनके अनुसार केवल समुदाय या समाज के उत्थान से ही व्यक्तियों को उच्च स्वतंत्रतायें प्राप्त हो सकती हैं. इस सिद्धांत के दृष्टिकोण के अनुसार, व्यक्तियों की मूल आवश्यकताओं की संतुष्टि भी सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति के अधीन है.

उनके अनुसार व्यक्तियों के अधिकारों की धारणा एक पूँजीवादी भ्रम है. विधि, नैतिकता, प्रजातंत्र, स्वतंत्रता आदि की धारणाएं ऐतिहासिक कोटियों में आती हैं तथा जिनको अन्तर्वस्तु या विषयवस्तु समाज या समुदाय के जीवन की दशाओं से निर्धारित होती हैं. धारणाओं एवं विचारों में परिवर्तन समाज में रहने वाले लोगों के जीवन में होने वाले परिवर्तनों के साथ होते हैं |

4. न्याय पर आधारित सिद्धांत

उनके मतानुसार मानवीय अधिकारों को समझने के लिये न्याय की भूमिका निर्णायक है. वास्तव में मानवीय अधिकार न्याय का लक्ष्य है. न्याय के सिद्धांतों द्वारा समाज की मूल संस्थाओं में अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को समनुदेशित किया जाता है तथा इसके द्वारा सामाजिक सहयोग के लाभ एवं भार उपर्युक्त रूप से विभाजित किये जा सकते हैं. न्याय के सिद्धांतों के पीछे न्याय की सामान्य धारणा औचित्य की है.

न्याय पर आधारित सिद्धांत औचित्य की धारणा से ओतप्रोत हैं. न्याय एवं औचित्य की धारणायें सामाजिक प्राथमिक लक्ष्यों जैसे स्वतंत्रता एवं अवसर, आय तथा धन तथा आत्म सम्मान के आधार जो समान रूप से विभाजित किये जायें जब तक कि सबसे कम अनुगृहीत के लाभ के लिये कोई अपवाद न किया जाय, को निर्धारित करने में सहायक होते हैं |

5. गरिमा पर आधारित सिद्धान्त

इस सिद्धांत के समर्थक आत्मनिर्भर रहने वाले मूल्यों को गरिमा के आधार पर संरक्षण के अधिकार की मांग करते हैं. इसी सिद्धांत का एक भाग समानता के सम्मान पर आधारित है.

उपर्युक्त सिद्धांतों की विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी अकेला सिद्धान्त मानवीय अधिकारों की वर्तमान स्थिति को संतोषजनक रूप से स्पष्ट करने में असमर्थ है. परन्तु प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त जो प्राकृतिक विधि पर आधारित है, मानवीय अधिकारों की वर्तमान स्थिति तथा विकास के बहुत निकट है.

प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत, न्याय पर आधारित सिद्धान्त, मानव गरिमा पर आधारित सिद्धान्त तथा समानता पर आधारित सिद्धान्त सब मिलकर मानवीय अधिकारों की वर्तमान स्थिति, विकास, संरक्षण आदि को बहुत हद तक स्पष्ट करते हैं |

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