धोखा या छल की परिभाषा एवं आवश्यक तत्व | धोखा के अपकृत्य की कार्रवाही में कौन-कौन से बचाव किये जा सकते हैं?

धोखा या छल की परिभाषा एवं आवश्यक तत्व | धोखा के अपकृत्य की कार्रवाही में कौन-कौन से बचाव किये जा सकते हैं?

धोखा या छल की परिभाषा

तथ्यों की वास्तविकता को जानते हुए गलत तथ्यों को प्रस्तुत करना, ऐसे निर्भय कथन करना, जिनकी सत्यता अथवा असत्यता पर विचार न किया गया हो और इस भावना एवं आशय से मिथ्या या गलत कथन करना कि जिस व्यक्ति के समक्ष कथन किया गया है, वह उस पर विश्वास करे; परिणामस्वरूप उसे क्षति भी हो, धोखा या छल (Fraud or deceit) कहलाता है.

प्रत्येक व्यक्ति का विधिक कर्तव्य है कि वह अन्य व्यक्ति के समक्ष गलत या असत्य तथ्य प्रस्तुत करके उसे क्षति न पहुँचाये. इस कर्त्तव्य की अवहेलना ही धोखा माना जाता है |

धोखा या छल के आवश्यक तत्व

1. छल

यदि छल सिद्ध हो जाय तो प्रतिवादी का मन्तव्य (Motive) सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है.

किरण बाला बनाम B. P. श्रीवास्तव, (AIR 1982 All 242) नामक वाद में किरण बाला का विवाह मानसिक अस्वस्थता छिपाने के आधार पर शून्य माना गया, यहां पर यह तथ्य छिपाकर धोखा किया गया था.

2. तथ्यों का मिथ्या व्यपदेशन

यदि कोई व्यक्ति अनेक कथनों को गलत छाप जानबूझकर डालता है तो यह मिथ्या व्यपदेशन माना जायेगा. मिथ्या व्यपदेशन किसी व्यक्ति के आचरण से भी परिलक्षित हो सकता है. यदि वह ऐसा आचरण करता है कि दूसरा व्यक्ति उससे धोखे में आकर सत्य बातों के विपरीत विश्वास करके उस पर अमल करने लगे तो इस प्रकार सत्य प्रतिनिधित्व पर विश्वास करने वाला व्यक्ति उस व्यक्ति के विरुद्ध क्षतिपूर्ति के लिए वाद चला सकता है.

किसी तथ्य के विषय में जानकारी रखते हुए भी चुप रहना मिथ्या व्यपदेशन नहीं माना जाता है और न ही कार्यवाही का अधिकार उत्पन्न होता है.

वार्ड बनाम हाव्स (1877) इस वाद में प्रतिवादी ने आम बाजार में ऐसे सुअरों को जो उसके ज्ञान में संक्रामक रोग से ग्रस्त थे बिक्री के लिए इस प्रकार प्रदर्शित किया जिसमें उनके सम्बन्ध में किसी दोष के लिए वह उत्तरदायी नहीं होगा. वादी ने इन सुअरों को खरीदकर अन्य सुअरों के साथ रखा, जिससे सभी सुअर संक्रामक रोग से पीड़ित हो गये और कुछ मर भी गये. वादी द्वारा क्षतिपूर्ति हेतु लाये वाद में न्यायालय का मत था कि वह क्षतिपूर्ति नहीं पा सकता; क्योंकि प्रतिवादी ने कोई ऐसा प्रतिनिधित्व नहीं किया था कि उसके सुअर दोषरहित थे.

3. प्रतिवादी को कथन की असत्यता का ज्ञान एवं ज्ञान के प्रति असावधानी

वादों को यह सिद्ध करना चाहिये कि प्रतिवादी को तथ्यों की असत्यता का पूर्ण ज्ञान था अथवा तथ्यों की असत्यता का उसे पूर्ण विश्वास था. यदि कोई व्यक्ति किसी विषय पर बिना जानकारी के कुछ तथ्यों के विषय में प्रतिनिधित्व करता है और ऐसा प्रतिनिधित्व स्वयं लाभ पाने अथवा अन्य को लाभ से वंचित रखने के लिए किया जाता है तो यह धोखा माना जाता है. परन्तु धोखा का अपकृत्य तभी पूर्ण होता है जबकि झूठी सूचना पर अमल किया गया हो.

डेरी बनाम पीक (1889) इस वाद के तथ्यों के अनुसार ट्रामवे कम्पनी बनाने वाले अधिनियम में यह व्यवस्था थी कि गाड़ी जानवरों से चलाई जा सकेगी तथा बोर्ड ऑफ ट्रेड की अनुमति से भाप द्वारा चलाई जा सकेगी. डाइरेक्टर्स ने विवरणपत्र में यह प्रकाशित किया कि कम्पनी की गाड़ी चलाने के लिए घोड़ों के स्थान पर भाप शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार है.

वादी ने इस आधार पर कुछ शेयर खरीदे. बोर्ड ऑफ ट्रेड ने ट्राम गाड़ी को भाप शक्ति से चलाने की अनुमति नहीं दी और कम्पनी बन्द हो गई. वादी के द्वारा कम्पनी के विरुद्ध चलाये गये वाद में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि डाइरेक्टर्स मिथ्या व्यपदेशन के लिए उत्तरदायी नहीं थे; क्योंकि उन्होंने कथन को सही समझा था. “धोखा” तभी सिद्ध किया जा सकता है जबकि असत्य प्रतिनिधित्व जानबूझकर अथवा सत्यता में बिना विश्वास किये हुए किया गया हो. यदि कोई व्यक्ति असत्य कथन करे और उसे विश्वास हो कि कथन सत्य है तो वह धोखे के लिए उत्तरदायी नहीं होगा.

डेरी बनाम पीक का यह नियम निम्नलिखित दशा में लागू नहीं होता है-

  1. जहां विबन्धन (Estoppel) का नियम स्थापित हो गया हो,
  2. जहां शर्त की विधि लागू होती है,
  3. जहां कथन करने से संविदात्मक कर्त्तव्य का ध्यान रखना हो,
  4. जब पक्षों के मध्य परस्पर विश्वास करने के सम्बन्ध हो अथवा विशेष परिस्थितियां उत्पन्न हुई हो.
  5. जहां पर सही सूचना देने का दायित्व हो.
  6. जहां किसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में खतरनाक किस्म का कथन किया गया हो.

4. प्रतिवादी ने कथन इस उद्देश्य से किया कि वादी उस पर अमल करे

घोखा के लिए मिथ्या व्यपदेशन इस उद्देश्य से किया जाना चाहिये कि उस पर अमल किया जाय. यह कथन ऐसी सामान्य जनता से किया जाय जिसमें यह उद्देश्य कि इस प्रतिनिधित्व पर अमल किया जाय तथा वादी उसे सार्वजनिक कार्य मानकर करे तथा क्षति उठाये तो भी वह पर्याप्त समझा जायेगा.

लांगरीज बनाम लेबी (1837) के वाद में प्रतिवादी ने वादी के पिता को एक बन्दूक बेची जो एक प्रसिद्ध निर्माता द्वारा बनाई गयी थी और चलाने में सुरक्षित थी. वादी ने जब उसे चलाया तो वह फट गई और वादी के हाथ में चोट लग गई. न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी वादी के प्रति धोखा के लिए उत्तरदायी था.

5. यह कि वादी ने कथन पर विश्वास करके परिणामस्वरूप क्षति उठाई है

यह कहावत है कि जो धोखा क्षति नहीं पहुँचाता वह धोखा नहीं है. धोखा की कार्यवाही का सार छल के साथ-साथ क्षति भी है. यदि धोखा का परिणाम घटित न हुआ हो अथवा क्षति धोखा का परिणाम न हो, वहां कार्यवाही का कारण नहीं उत्पन्न होता है |

उपचार

धोखे में गलत कथन प्रायः इसलिए किये जाते हैं कि वादी प्रतिवादी के साथ संविदा में शामिल हो जहां जानबूझकर मिथ्या व्यपदेशन किया जाता है वहां वादी को अपकृत्य एवं संविदा सम्बन्धी दोनों उपचार उपलब्ध रहते हैं. वह संविदा में धोखे की कार्यवाही और अपकृत्य में क्षतिपूर्ति की कार्यवाही कर सकता है |

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