निपटारा करार एवं माध्यस्थम् करार में क्या अन्तर है?

निपटारा करार एवं माध्यस्थम् करार में क्या अन्तर है?

निपटारा करार एवं माध्यस्थम् करार

दो पक्षों के मतभेदों या झगड़ों को जो सिविल चरित्र के हो, को सुलझाने के लिए माध्यस्थम् एवं सुलह प्रक्रिया का विस्तार किया जा रहा है जो कि न्यायालयों के ऊपर लम्बित मामलों की अधिक संख्या को देखते हुए समीचीन प्रतीत होता है और आवश्यक भी है-

जब दो पक्षों में सुलह के द्वारा कोई मतभेद समाप्त किया जाता है तो दोनों पक्षों के बीच में निपटारा करार का निर्माण किया जाता है. निपटारा करार सुलह प्रक्रिया का सुफल कहा जा सकता है. निपटारा करार पर दोनों पक्षों द्वारा हस्ताक्षर कर देने के बाद सुलहकर्ता द्वारा इसे सत्यापित करते हुए हस्ताक्षर करने से यह निपटारा करार ‘डिक्री‘ का स्वरूप ले लेता है जो कि दोनों पक्षों को करार को मानने के लिए आबद्ध करता है और एक अधिकारपुष्ट न्यायालय के निर्णय की तरह (डिक्री की तरह) लागू कराया जा सकता है.

निपटारा करार का अस्तित्व दोनों पक्षों द्वारा प्रेषित दावा (Claim) एवं प्रतिदावा (Counter Claim) का संयत अध्ययन, माप एवं न्यायसंगत रूप देने के बाद दोनों पक्षों को संतुष्ट करने के लिए निर्मित किया जाता है. इसे हम माध्यस्थम् द्वारा प्राप्त पंचाट की तरह कह सकते हैं जिसको विधिक शक्ति वाली डिक्री की तरह प्रयुक्त किया जा सकता है जिसे दोनों पक्ष मान्यता देते हैं और इस निपटारा करार को डिक्री की तरह निपटारा करार की शर्तों के अनुसार उसी पक्ष के विरुद्ध जो दावा के लिए देनदार है, प्रयुक्त किया जा सकता है.

निपटारा करार के निर्माण की प्रक्रिया

जब सुलहकर्ता को यह प्रतीत होता है कि उसके प्रयासों से उभय पक्ष समझौता करने के लिए इच्छुक हो रहे हैं तो सुलहकर्ता एक सम्भावित समझौते के प्रारूप की शर्तों को दर्शाते हुए निर्माण करता है या सृजित करता है और उसे उभय पक्षों के पास उनकी राय जानने के लिए भेजता है. जब यह प्रारूप दोनों पक्षों की राय के साथ सुलहकर्ता के पास वापस आता है तो सुलहकर्ता उभय पक्षों की राय को समावेशित करते हुए पुनः एक दूसरा प्रारूप का सृजन करता है इस प्रकार निपटारा करार सुलहकर्ता द्वारा पहिले सृजन के बाद पुनः सृजित किया जाता है जिसमें उभय पक्षों की राय को स्थान देते हुए समझौता को अन्तिम रूप तक पहुँचाया जाता है.

माध्यस्थम् करार

माध्यस्थम् करार मध्यस्थ कार्यवाही की धुरी की तरह सबसे महत्वपूर्ण प्रपत्र है जिस पर पूरी मध्यस्थ कार्यवाही निर्भर करती है. न्यायालय की सहायता तभी प्राप्त होती है जब पक्षकारों के बीच में एक विधिक माध्यस्थम् करार का अस्तित्व रहता है.

माध्यस्थम् करार का अर्थ यह होता है कि उभय पक्षों के बीच अपने झगड़ों को सुलझाने के लिए माध्यस्थम् विधि को उन लोगों ने दोनों पक्षकारों ने अंगोकार किया है जिसके अन्तर्गत वे अपने सभी झगड़ों का या कुछ नामित झगड़ों का जिनका उदय हो चुका है या भविष्य में उदय हो सकता है जिनका सम्बन्ध परिभाषित संव्यवहार या रिश्तों पर आधारित होता है चाहे वे करार की तरह हो या न हो, निपटारा करने के उद्देश्य से उभय पक्षों ने स्वीकार किया है.

माध्यस्थम् करार सदैव लिखित होना चाहिए जिसका प्रारूप हस्ताक्षर युक्त प्रपत्र हो सकता है या चिट्ठी के आदान-प्रदान के रूप में, या टेलीग्राम के आदान-प्रदान के रूप में (यह प्रारूप अब विलुप्त हो चुका है) या वादों एवं प्रतिवादों के निस्तारण के रूप में या किसी अन्य वार्तालाप या विधि जिसमें दोनों पक्षों का वार्तालाप संनिहित हो, के द्वारा सृजित किया जा सकता है.

उच्चतम न्यायालय के अनुसार एक माध्यस्थम् करार के आवश्यक तत्व निम्न हो सकते हैं-

  1. दोनों पक्षों के बीच में किसी जीवित मामले के सम्बन्ध में वर्तमान में या भविष्य में झगड़ा या मतभेद की उपस्थिति;
  2. दोनों पक्षों के बीच में यह आशय कि वे अपने झगड़ों या मतभेदों का निपटारा न्यायालय के बजाय किसी निजी अधिकरण से कराना चाहते हैं;
  3. दोनों पक्षों को लिखित रूप से आबद्ध होना पड़ेगा कि वे इस अधिकरण के निर्णय को मान्यता देंगे;
  4. दोनों पक्षों को आपस में इस प्रबन्ध को मानने की पूर्ण सहमति होगी.

न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि माध्यस्थम् करार के निर्वाचन में, यह आवश्यक नहीं होगा कि शब्द ‘माध्यस्थम्’ का विशेष रूप से प्रयोग माध्यस्थम् करार के सृजन के लिए आवश्यक होता है |

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