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भारतीय संविधान में विधिक सहायता
संविधान की प्रस्तावना में निहित है कि संविधान सभी को सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक न्याय प्रदान करायेगा. संविधान सभी को समान अवसर की बात भी करता है. भारतीय संविधान में इन्हीं उद्देश्यों को पाने के लिए भाग 3 में मूल अधिकारों को तथा भाग 4 में राज्य के नीति निदेशक तत्वों को उल्लेखित किया गया है. जो सामाजिक न्याय, सुरक्षा तथा अधिकारों को प्रदान करते हैं.
सन् 1976 में 42 वें संशोधन द्वारा संविधान में अनुच्छेद 39A जोड़ा गया जो निःशुल्क विधिक सहायता का प्रावधान करता है. अनुच्छेद 39A उल्लिखित करता है कि- “राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधि तंत्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह, विशिष्टता, यह सुनिश्चित करने के लिए कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाये, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य रीति से निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा।”
इस प्रकार, इस व्यवस्था एक मुख्य उद्देश्य समाज के प्रत्येक नागरिक को न्याय के समान अवसर उपलब्ध कराना रहा है. इसका मुख्य ध्येय यही है कि समाज का कोई भी व्यक्ति केवल-
- अर्थाभाव, अथवा
- अन्य किसी निर्योग्यता के कारण, न्यास से वंचित न रहे. धीरे-धीरे यह व्यवस्था प्रबल होती गई और न्यायालयों ने भी अपने निर्णयों में इस व्यवस्था को सदैव आगे बढ़ाने का प्रयास किया.
न्यायिक निर्णय
S. H. हॉकॉट बनाम महाराष्ट्र राज्य [(1978) 3 SCC 344] के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि निर्धन व्यक्ति को निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराना राज्य का कर्तव्य है, अनुकम्पा नहीं.
सुखदास बनाम अरुणाचल प्रदेश, (AIR 1986 SC 1991) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि “विधिक सहायता स्कीम को क्रियान्वित करने के लिये राज्य को स्वैच्छिक संगठनों या संस्थाओं को आगे आने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. इन्हें राज्य के नियंत्रण से मुक्त भी रखा जाना चाहिये।”
महाराष्ट्र राज्य बनाम मनुभाई प्रागजी वासी [(1995) 5 SCC 730] के मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि निःशुल्क सहायता प्रदान करने के लिए प्रशिक्षित अधिवक्ताओं की आवश्यकता होती है और यह तभी सम्भव है जब विधि शिक्षा के लिए अच्छे कालेज हों, जिसमें अच्छे अध्यापक, पुस्तकालय आदि भी हों.
चूँकि सरकार के लिए यह सम्भव नहीं है, अतः उसे निजी लॉ कालेजों को खोलने की अनुमति देना, उन्हें मान्यता देना तथा अनुदान देना चाहिए, जैसा सरकार द्वारा महाविद्यालयों को दी जाती है. इसके कारण ऐसे विद्यालय प्रभावी रूप से कार्य करेंगे जिनके माध्यम से राज्य और अन्य प्राधिकरण निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करने में सक्षम होंगे और इस प्रकार किसी निर्योग्यता के कारण न्याय पाने में असमर्थ नागरिक को न्याय सुनिश्चित करने में सफल होंगे.
अनुच्छेद 39A राज्य को निर्देश देता है कि वह सभी को “समान न्याय” और “निःशुल्क विधिक सहायता” प्रदान करने की व्यवस्था करावें. इसका अर्थ है विधि के अनुसार न्याय प्रदान कराना. इसके लिए समुचित विधि प्रणाली का होना आवश्यक है. यह तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि पर्याप्त और अच्छे विधिक विद्यालयों की स्थापना नहीं की जाती है.
चूँकि राज्य मुम्बई जैसे शहर के लिए बढ़ती हुई माँग को पूरा नहीं कर सकती है, इसे प्राइवेट कालेजों के खोलने की अनुमति देना चाहिये और इसके लिये उन्हें समुचित अनुदान देना चाहिए जिससे वे प्रभावी रूप से कार्य कर सकें. उन्हें अपने खर्चों के लिए मनमाना शुल्क बढ़ाने की छूट नहीं होना चाहिए. इसके अभाव में विधि की शिक्षा का स्तर और विधिक सहायता की योजना उपहासास्पद (Farce) हो जायेगी.
मुम्बई राज्य ने धनाभाव के कारण प्राइवेट मान्यता प्राप्त लॉ कालेजों को अनुदान से इन्कार कर दिया था जब कि कला, विज्ञान और वाणिज्य संकार्यों को ऐसा अनुदान प्रदान किया था. उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार को ऐसे लॉ कालेजों को अनुदान देने का निर्देश दिया.
वर्तमान में निःशुल्क विधिक सहायता को भी प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के अन्तर्गत मान लिया गया है. कई विनिर्णयों में यह कहा गया है कि प्राण और दैहिक स्वतंत्रता ऐसे व्यक्तियों को भी प्राप्त है-
- जिनके पास न्यायालय तक पहुँचने के साधन नहीं हैं और जो निर्णय की एक प्रति तक पाने में असमर्थ हैं.
- जो त्वरित विचारण एवं निःशुल्क विधिक सहायता के अभाव में वर्षों से जेलों में कैद हैं.
- जो जेलों में निरुद्ध होने के कारण विधि व्यवसायियों से सम्पर्क नहीं कर पाते हैं.
हुस्न आरा खातून बनाम बिहार राज्य, (AIR 1979 SC 1360) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि शीघ्रतर परीक्षण तथा निःशुल्क विधिक सहायता के अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत एक मूल अधिकार है, क्योंकि निःशुल्क विधिक सेवा युक्तियुक्त प्रक्रिया का ही भाग है.
सुखचन्द्र बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान [(2000) SCC 78] के मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि त्वरित विचारण अभियुक्त का एक महत्वपूर्ण अधिकार है.
कलाबेन कलाभाई देसाई बनाम अला भाई करमशी भाई देसाई, (AIR 2000 Gujarat 232) के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वैवाहिक मामलों में महिलाओं एवं बालकों को निःशुल्क विधिक सहायता पाने का अधिकार है. उन्हें इस अधिकार से अवगत कराना बार एवं बेंच (Bar and Bench) दोनों का दायित्व है |
CPC में विधिक सहायता
सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC), 1908 आदेश 33 के नियम 18 में यह व्यवस्था की गई है. कि- “केन्द्रीय अथवा राज्य सरकार उन व्यक्तियों के लिए, जिन्हें निर्धन व्यक्ति के रूप में वाद लाने की अनुमति दे दी गई हो, निःशुल्क विधिक सेवायें उपलब्ध कराने के सम्बन्ध में प्रावधान कर सकती है।”
सिविल (व्यवहार) प्रक्रिया संहिता, के प्रावधानों के अनुसार अकिंचित व्यक्ति (Indigent Person) वह व्यक्ति है-
जबकि उसके पास इतना पर्याप्त साधन नहीं है कि वह ऐसे वाद में वाद पत्र के लिये निर्धारित फीस ले सके, या
जहां वाद के लिए फीस निर्धारित नहीं है वहां उसके पास डिक्री के निष्पादन से छूट प्राप्त सम्पत्ति के अलावा एक हजार रुपये के मूल्य की सम्पत्ति न हो. निर्धन व्यक्तियों द्वारा सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन उपबन्धित प्रावधानों में ही आवेदन किया जाना चाहिए.
निर्धन व्यक्ति द्वारा वाद लाये जाने पर यदि न्यायालय यह पाता है कि-
- ऐसा व्यक्ति निर्धन नहीं है,
- ऐसे व्यक्ति द्वारा वाद लाने से पूर्व दो माह की अवधि में अपनी सम्पत्ति का कपटपूर्वक अन्तरण कर दिया है, अथवा
आवेदन विहित प्ररूप में प्रस्तुत नहीं किया गया है, तो उसका आवेदन पत्र निरस्त कर दिया जायेगा.
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 44 में निर्धन व्यक्तियों के लिए बिना न्यायालय शुल्क के अपील किये जाने के बारे में प्रावधान किया गया है. इसके लिये आवश्यक है कि व्यक्ति अकिंचन हो.
सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 2 नियम 10A में उल्लिखित किया गया है। कि- “यदि किसी मामले में किसी पक्षकार के हितों की पैरवी करने के लिए कोई समुचित अधिवक्ता नहीं है तो न्यायालय ऐसे पक्षकार के हितों की पैरवी करने के लिए किसी अधिवक्ता को नियुक्त कर सकता है।”
आदेश 2 में नियम 10A सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 52 द्वारा जोड़ा गया है.
निर्धन पक्षकारों के लिए यह एक महत्वपूर्ण व्यवस्था है. यह न्यायालय के विवेक पर छोड़ा गया है कि वह किस पक्षकार के हितों के संरक्षण के लिए किसी अधिवक्ता की नियुक्ति करे.
उपरोक्त प्रावधान के लिए व्यक्ति शब्द में नैसर्गिक व्यक्ति के साथ-साथ न्यायिक व्यक्ति को भी शामिल किया गया है.
शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति बनाम S. N. दास, (AIR 2000 SC 1421) के मामले में ‘गुरू ग्रंथ साहिब’ को भी न्यायिक व्यक्ति माना गया है क्योंकि वे जनसाधारण की आस्थाओं के प्रतीक एवं पूज्यनीय हैं.
फातिमुन्निसा बेगम बनाम डॉक्टर हेमावती, (AIR 2000 A. P. 5) के मामले में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा एक ऐसी महिला को निर्धन व्यक्ति के रूप में बाद लाने का पात्र माना गया जो निर्धन थी, जिसकी शल्य चिकित्सा हुई थी और जिसके पास आय का को साधन नहीं था. परिवार में दो बच्चे थे तथा पति की कोई विशेष आय नहीं थी. चिकित्सक की लापरवाही से शल्य चिकित्सा बिगड़ गई. वह चिकित्सक के विरुद्ध क्षतिपूर्ति का वाद लाना चाहती थी.
निर्धन व्यक्तियों द्वारा अपीलें
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 44 में निर्धन व्यक्तियों के लिए बिना न्यायालय शुल्क के अपील किये जाने के बारे में प्रावधान किया गया है. यह व्यवस्था करीब-करीब वैसी ही है जैसी बाद संस्थित किये जाने के सम्बन्ध में है. इस प्रकार सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 2 नियम 10A, आदेश 33, आदेश 33 नियम 18 तथा आदेश 44 के उपबन्ध निर्धन व्यक्तियों को न्याय सुलभ कराने की दिशा में किये गये सार्थक प्रयास है |
CrPC में विधिक सहायता
दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 303 एवं 304 में इस सम्बन्ध में प्रावधानों को उपबन्धित किया गया है. धारा 303 के अनुसार, जो व्यक्ति दण्ड न्यायालय के समक्ष अपराध के लिए अभियुक्त है या जिसके विरुद्ध इस संहिता के अधीन कार्यवाही संस्थित की गई है, उसका यह अधिकार होगा कि उसकी पसन्द के प्लीडर द्वारा उसकी प्रतिरक्षा की जाये.
धारा 304 के अनुसार-
सेशन न्यायालय के समक्ष किसी विचारण में, अभियुक्त का प्रतिनिधित्व किसी प्लीडर द्वारा नहीं किया जाता है और जहां न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि अभियुक्त के पास किसी प्लीडर को नियुक्त करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं है, वहाँ न्यायालय उसको प्रतिरक्षा के लिए राज्य के व्यय पर प्लीडर उपलब्ध करेगा.
राज्य सरकार के पूर्व अनुमोदन से उच्च न्यायालय-
- उपधारा (1) के अधीन प्रतिरक्षा के लिए प्लीडरों के चयन के ढंग का,
- ऐसे प्लीडरों को न्यायालयों द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं का,
- ऐसे प्लीडरों को सरकार द्वारा संदेय फीसों का और साधारणत: उपधारा (1) के प्रयोजनको कार्यान्वित करने के लिए।
राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा यह निर्देश दे सकती है कि उस तारीख से, जो अधिसूचना में विनिर्दिष्ट की जाये, उपधारा (1) और (2) के उपबन्ध राज्य के अन्य न्यायालयों के समक्ष किसी वर्ग के विचारणों के सम्बन्ध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे सेशन न्यायालय के समक्ष विचारणों के सम्बन्ध में लागू होते हैं.
दण्ड प्रक्रिया संहिता में निर्धन व्यक्तियों के लिये न्यायमित्र सलाह देने वाले को न्यायालय द्वारा नियुक्त किया जा सकता है, ऐसे व्यक्ति को सलाह शुल्क नियमानुसार दी जाती है.
इस प्रकार धारा 303 ऐसे व्यक्ति को जो किसी अपराध के लिए अभियुक्त हो या जिसके विरुद्ध इस संहिता के अधीन कोई कार्यवाही संस्थित की गई हो, अपनी पसन्द के अधिवक्ता द्वारा अपनी “प्रतिरक्षा करने का अधिकार” प्रदान करती है.
रणछोड़ बनाम गुजरात राज्य [(1947) 3 SCC 518] के मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि निःशुल्क विधिक सहायता को राज्य के समस्त न्यायालयों के समक्ष चलने वाली कार्यवाहियों में भी विस्तृत रूप दिया जाना चाहिये.
कलाबेन कलाभाई बनाम अलाभाई करमशी भाई देसाई, (AIR 2000 Gujarat 232) के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि वैवाहिक मामलों में पत्नी एवं बच्चों को निःशुल्क विधिक सहयता प्राप्त करने का अधिकार है. यह बार एवं बेंच का दायित्व है कि वह ऐसी महिलाओं एवं बच्चों को अपने इस अधिकार से अवगत कराये. राज्य सरकार इस सम्बन्ध में उच्च न्यायालय से परामर्श कर निम्नांकित विषयों पर नियम बना सकती है-
- प्लीडर के चयन की रीति,
- प्लीडर को न्यायालय द्वारा दी जाने वाली सुविधायें,
- प्लीडर की फीस, आदि.
इस प्रकार धारा 303 एवं 304 निर्धन अभियुक्तों के लिए राज्य के व्यय पर अधिवक्ता की नियुक्ति के बारे में महत्वपूर्ण प्रावधान करती हैं |