माध्यस्थम् करार क्या है? | माध्यस्थम् करार का अर्थ, आवश्यक तत्व एवं विशेषताएं

माध्यस्थम् करार क्या है? | माध्यस्थम् करार का अर्थ, आवश्यक तत्व एवं विशेषताएं

माध्यस्थम् करार का अर्थ

माध्यस्थम् या मध्यस्थता करार मध्यस्थ कार्यवाही की धुरी की तरह सबसे महत्वपूर्ण प्रपत्र है जिस पर पूरी मध्यस्थ कार्यवाही निर्भर करती है. न्यायालय की सहायता तभी प्राप्त होती है जब पक्षकारों के बीच में एक विधिक माध्यस्थम् करार का अस्तित्व रहता है.

माध्यस्थम् करार का अर्थ यह होता है कि उभय पक्षों के बीच अपने झगड़ों को सुलझाने के लिए माध्यस्थम् विधि को उन लोगों ने (दोनों पक्षकारों ने) अंगीकार किया है. जिसके अन्तर्गत वे अपने सभी झगड़ों का या कुछ नामित झगड़ों का जिनका उदय हो चुका है या भविष्य में उदय हो सकता है जिनका सम्बन्ध परिभाषित संव्यवहार या रिश्तों पर आधारित होता है चाहे वे करार की तरह हों या न हों, निपटारा करने के उद्देश्य से उभय पक्षों ने स्वीकार किया है.

माध्यस्थम् करार सदैव लिखित होना चाहिए जिसका प्रारूप हस्ताक्षर युक्त प्रपत्र हो सकता है या चिट्ठी के आदान-प्रदान के रूप में, या टेलीग्राम के आदान-प्रदान के रूप में (यह प्रारूप अब विलुप्त हो चुका है) या वादों एवं प्रतिवादों के निस्तारण के रूप में या किसी अन्य वार्तालाप या विधि जिसमें दोनों पक्षों का वार्तालाप संनिहित हो, के द्वारा सृजित किया जा सकता है |

माध्यस्थम् करार क्या है?

माध्यस्थम्/मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 7 माध्यस्थम् करार को परिभाषित नहीं करती है. धारा 7 की उपधार (1) उल्लेखित करती है कि माध्यस्थम् करार एक ऐसा करार है जो विवाद के मामलों में यह प्रावधान करती है कि ऐसे विवाद को मध्यस्थ को सौंपा जाना चाहिये. अर्थात पक्षकारों के मध्य किसी विवाद को किसी माध्यस्थम् को सौंपने का करार माध्यस्थम् करार वर्तमान के विवाद या भविष्य के विवादों के सन्दर्भ में हो सकता है.

धारा 7 उपबन्धित करती है कि इस भाग में माध्यस्थम् करार से अभिप्रेत है एक ऐसा करार जो पक्षकारों द्वारा उन सभी अथवा कुछ विवादों को, जो उनमें एक परिभाषित विधिक संबंध से उद्भूत हुये हैं या उद्भूत हो सकते हैं चाहे वे संविदात्मक हों या न हों, माध्यस्थम् को प्रेषित किये जाने हेतु किया गया हो.

परिभाषा में यह स्पष्ट है कि जो विवाद माध्यस्थम् करार के तहत मध्यस्थ को सौंपा गया है यह पक्षकारों के मध्य किसी विधि सम्बन्ध के कारण उत्पन्न हुये होने चाहिये |

माध्यस्थम् करार के आवश्यक तत्व

K. K. मोदी बनाम K. N. मोदी (AIR 1998 SC 1297) के मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि किसी करार को माध्यस्थम् करार होने के लिये निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं-

  1. माध्यस्थम् करार यह प्रकट करता हो कि अधिकरण का निर्णय पक्षकारों पर बाध्यकारी होगा.
  2. अधिकरण का क्षेत्राधिकार पक्षकारों की सम्मति से न्यायालय के आदेश से या संविधि से प्रदान किया गया हो.
  3. करार में यह प्रकट होता हो कि पक्षकारों के मुख्य अधिकार सक्षम अधिकरण द्वारा निर्धारित किये जायेंगे.
  4. अधिकरण पक्षकारों के अधिकार निष्पक्ष एवं न्यायिक तरीके निर्धारित करेगा.
  5. निर्णय हेतु विवाद को सन्दर्भित किया जाना पक्षकारों द्वारा आशयित हो.
  6. करार से यह प्रकट होता हो कि पहले से सन्दर्भित विवाद का निपटारा अधिकरण द्वारा किया जायेगा.
  7. पक्षकारों का आशय स्पष्ट होना चाहिए कि वे माध्यस्थम द्वारा अपने झगड़ों को निपटाने के लिए इच्छुक है चाहे वह वर्तमान का हो अथवा भविष्य का हो. यह आशय आवश्यक नहीं है कि कहीं एक जगह सुरुचिपूर्ण ढंग से व्यवस्थित हो. आशय विभिन्न प्रलेखों तथा अन्य प्रकार से एकत्रित किया जा सकता है परन्तु इसका स्पष्ट होना अति आवश्यक है.

1. विवादों सम्बन्धी निश्चितता

माध्यस्थम् करार में यह स्पष्ट रूप से उल्लेखित होना चाहिये कि कौन से तथा किस प्रकार के विवाद या विवादों का निपटारा माध्यस्थम् अधिकरण को सौंपा जायेगा.

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम टिपर चंद (AIR 1980 SC 1522) के मामले में पक्षकारों ने करार में यह उपखण्ड रखा कि जहाँ संविदा में अन्यथा विनिर्दिष्ट न हो, डिजायनरों, विनिर्देशों के सम्बन्ध में अधीक्षक मन्त्री का निर्णय सभी पक्षों पर बन्धनकारी होगा.

उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त उपखण्ड माध्यस्थम् करार नहीं कहा ज सकता है क्योंकि उक्त संविदा खण्ड के तहत अधीक्षक यन्त्री को निर्माण कार्य के निष्पादन तथा पर्यवेक्षण सम्बन्धी मामलों में स्वयं निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की थी. किसी विवाद के निर्णय के बारे में विनिश्चय देने का उल्लेख नहीं किया गया था.

2. पक्षकारों के विषय में विनिश्चितता

माध्यस्थम् करार का दूसरा आवश्यक तत्व यह है कि माध्यस्थम् करार में उन पक्षकारों के सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेखित होना चाहिये जिन पर पंचाट बाध्यकारी या बन्धनकारी होगा.

माध्यस्थम् को निर्देशित किये जाने के लिये पक्षकारों की पूर्व सहमति होना नितांत आवश्यक है. तथापि जहाँ पक्षकारों ने अपने भावी मतभेद या विवाद माध्यस्थों द्वारा निपटाये जाने पर सहमति व्यक्त की है, वहाँ विवाद या मतभेद की स्थिति वास्तव में उत्पन्न हो जाने पर उनमें से कोई भी पक्षकार दूसरे से दोबारा सहमति लिये बिना या मतभेद को माध्यस्थम् को सौंप सकता है. संविदा या करार में माध्यस्थम् वाक्य की भाषा रचना इस प्रकार होनी चाहिये जिससे कि यह स्पष्ट हो कि दोनों ही पक्षकारों को विवादको माध्यस्थम् अधिकरण को निर्देशित करने का द्विपक्षीय अधिकार प्राप्त है.

3. माध्यस्थम् अधिकरण के गठन के बारे में निश्चितता

किसी माध्यस्थम् करार के लिये यह भी आवश्यक है कि उसमें माध्यस्थम् पंच (Arbitration Forum) के गठन के बारे में निश्चितता हो.

माध्यस्थम् करार में मध्यस्थों के बारे में कोई अनिश्चितता या संदिग्धता होने की दशा में ऐसा माध्यस्थम् करार शून्य एवं निष्प्रभावी होगा. उदाहरणार्थ, यदि किसी माध्यस्थम् करार में यह प्रावधान किया गया है कि विवाद की दशा में मध्यस्थता हेतु ‘क’ अथवा ‘ब’ को नियुक्त किया जायेगा, तो ऐसा करार मध्यस्थों की अनिश्चितता के कारण शून्य माना जायेगा |

माध्यस्थम् करार की विशेषताएं

माध्यस्थम्/मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 7 की उपधारा (2) से (5) तक में मध्यस्थ करार की विशेषताओं का उल्लेख किया गया है. ये निम्नलिखित हैं-

  • (1). ऐसा करार संविदा में माध्यस्थ खण्ड के प्रारूप में होना चाहिये.
  • (2). माध्यस्थम् करार लिखित होना चाहिये. साथ ही इसे सुनिश्चित होना चाहिये.

करार लिखित तब माना जायेगा जब-

  1. पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित किया गया हो,
  2. यदि माध्यस्थम् करार पत्र, टेलेक्स, टेलीग्राम, संसूचना के या अन्य किसी माध्यम से किया गया है जो अभिलेख के अभाव के रूप में मान्य किया जा सके तब इस करार को लिखित कथन माना जायेगा.
  3. यदि दावा तथा शर्त प्रतिदावा के आदान-प्रदान के कथन में एक पक्षकार के करार के अस्तित्व पर आरोप लगाया है तथा दूसरे ने इन्कार किया है तब वह लिखित करार माना जायेगा.

उपरोक्त (2) एवं (3) के लिये यह आवश्यक नहीं है कि करार पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित हो.

  • (3). यदि संविदा करार में माध्यस्थम् खण्ड का सन्दर्भ दिया गया हैं यह खण्ड माध्यस्थम करार माना जायेगा |

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