लोकहित वाद क्या है? | लोकहित वाद कौन ला सकता है?

लोकहित वाद क्या है? | लोकहित वाद कौन ला सकता है?

संविधान के अनुच्छेद 32 तथा 226 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में सामान्य नियम के अनुसार, वही व्यक्ति वाद या आवेदन ला सकते हैं जिनके अधिकारों का अतिक्रमण हुआ हो, परन्तु पिछले वर्षों से न्याय की अवधारणा में परिवर्तन हुआ है जिसके अनुसार पीड़ित व्यक्ति के अलावा उसकी ओर से अन्य व्यक्ति उसके अधिकारों की रक्षा के लिए या उसे उपचार प्रदान करने के लिए वाद या आवेदन प्रस्तुत कर सकते हैं. इसी को लोकहित वाद (PIL) कहा जाता है |

लोकहित वाद (Public Interest Litigation) से अभिप्राय ऐसे वाद से है जिसमें जन साधारण का हित निहित होता है. दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है, कि व्यापक जनहित से जुड़ा मामला लोकहित वाद कहा जा सकता है.

लोक हितकारी विधि परिषद के अनुसार, वर्तमान लोक हितकारी विधि समाज के निर्धन, अल्पसंख्यक, कमजोर वर्ग के व्यक्तियों को विधिक प्रतिनिधित्व प्रदान करती है जो प्रयासों के बावजूद विधिक प्रतिनिधित्व से वंचित थे.

लोकहित वाद का अर्थ क्या है? J. पाण्डियान के अनुसार, “लोकहित वाद” शब्द का अर्थ किसी विधिक न्यायालय में प्रारम्भ की गई ऐसी कार्यवाही से है जिसमें सामान्य जनहित का एक विशेष समुदाय का हित निहित हो तथा जिनके द्वारा उनके विधिक अधिकार या दायित्व प्रभावित होते हों.

अखिल भारतीय रेलवे शोषित कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ, (AIR 1981 SC 298) के मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 32 के तहत कोई संस्था या लोक हित से प्रेरित कोई नागरिक किसी ऐसे व्यक्ति संवैधानिक या विधिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट फाइल कर सकता है जो निर्धनता या अन्य किसी कारण से न्यायालय में रिट प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं है.

न्यायमूर्ति श्री कृष्णा अययर ने कहा कि अवलोकन किया था कि वाद कारण और पीड़ित व्यक्ति की संकुचित धारण का स्थान अब ‘वर्ग कार्यवाही’ लोकहित में कार्यवाही ‘प्रतिनिधि वाद’ लाने की विस्तृत धारण ने ले लिया है.

M.P. गुप्ता बनाम भारत संघ, (AIR 1982 SC 149) के मामले में न्यायमूर्ति श्री भगवती ने प्रतिपादित किया कि यदि कोई व्यक्ति या समाज का वर्ग, जिसको विधिक क्षति पहुंचायी गयी है या विधिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है, अपनी निर्धनता अथवा किसी अन्य कारण से अपने संवैधानिक या विधिक अधिकारों के संरक्षण के लिए न्यायालय में जाने में असमर्थ है तो समाज का कोई अन्य व्यक्ति या संघ न्यायालय में उसको पहुंची विधिक क्षति के निवारण के लिए अनुच्छेद 32 के अधीन आवेदन दे सकता है. उत्त परिस्थितियों में कोई भी व्यक्ति ‘पत्र लिखकर’ भी उच्चतम न्यायालय से उपचार की माँग कर सकता है और उसे रिट पिटीशन की तकनीकी बारीकियों का पालन करना आवश्यक नहीं होगा.

न्यायाधिपति श्री भगवती ने घोषणा की कि प्रक्रियात्मक तकनीकियाँ न्यायालय को ऐसे पीड़ित व्यक्तियों को न्याय प्रदान करने के मार्ग में अवरोध नहीं बन सकती हैं. किन्तु इसका अर्थ नहीं कि कोई भी व्यक्ति न्यायालय की इस उदारता का अनुचित लाभ उठाये. प्रत्येक मामले में न्यायालय उपचार तभी देगा जब उसे समाधान हो जायेगा कि उसके समक्ष आने वाले व्यक्ति का पर्याप्त हित है और वह दुर्भावना से अथवा राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित होकर रिट-अधिकारिता का प्रयोग नहीं कर रहा है |

लोक हित वाद कौन ला सकता है?

सामान्य नियम यह है कि पीड़ित व्यक्ति ही न्यायालय में वाद ला सकता है, परन्तु यह धारणा अब बदल रही है और कई निर्णयों में यह सुनिश्चित किया गया है. कि समाज का कोई भी व्यक्ति या संघ किसी ऐसे व्यक्ति या वर्ग के विधिक अधिकारों के अतिक्रमण को रोकने के लिए लोकहित वाद के माध्यम से आवेदन कर सकता है जो निर्धनता अथवा अन्य किसी कारण से न्यायालय तक पहुँच पाने में असमर्थ है. मात्र यह आवश्यक है कि उसमें जनसाधारण का पर्याप्त अथवा व्यापक हित निहित हो.

अखिल भारतीय रेलवे शोषित कर्मचारी बनाम संघ यूनियन ऑफ इण्डिया, (AIR 1981 SC 298) के मामले में यह कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति निर्धनता के कारण न्यायालय में जाने का साहस नहीं जुटा पाता है, तो उसकी ओर से कोई भी अन्य व्यक्ति या संगठन न्यायालय में दस्तक दे सकता है.

न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर का कहना है कि “पीड़ित और व्यथित व्यक्ति के ही न्यायालय में जा सकने की संकुचित धारणा अब समाप्त कर दी गई है. उसका स्थान अब वर्ग कार्यवाही, लोक हित वाद, प्रतिनिधि वाद आदि ने ले लिया है. अब कोई भी व्यक्ति जो किसी सार्वजनिक हित से जुड़ा है, ऐसे हितों को सुरक्षा के लिए न्यायालय में जा सकता है”.

S. P. गुप्ता बनाम भारत संघ वाद, (AIR 1982 SC 149) के मामले में भी ऐसे हो विचार व्यक्त किये गये हैं. इस मामले में यह कहा गया है कि “न्यायाधीशों के स्थानान्तरणों को अधिवक्ताओं द्वारा संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत चुनौती दी जा सकती है क्योंकि व्यापालिका की स्वतंत्रता में उनका हित निहित है”.

इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी मामले में व्यापक हित रखने वाले व्यक्तियों द्वारा लोकहित वाद किया जा सकता है. लेकिन निजी हितों को साधने के लिए ऐसा वाद नहीं लाया जा सकता है.

इस सम्बन्ध में बैंगलोर मेडिकल ट्रस्ट बनाम B. S. मुहय्या, (AIR 1991 SC 1902) के मामले में राज्य सरकार द्वारा एक सार्वजनिक उद्यान में प्राइवेट नर्सिंग होग स्थापित करने की अनुमति प्रदान की गई थी. न्यायालय ने कहा ऐसे उद्यान में प्राइवेट नर्सिंग होम की स्थापना को रोकने के लिए वहां के निवासियों द्वारा लोकहित वाद दायर किया जा सकता है, क्योंकि-

  1. सार्वजनिक उद्यान में वहां के निवासियों का व्यापक हित निहित है.
  2. प्राइवेट नर्सिंग होम एक निजी हित से जुड़ा मामला है, तथा
  3. प्राइवेट नर्सिंग होम का सार्वजनिक उद्यान से अधिक महत्व नहीं है.

पत्र एवं समाचार पत्रों की कतरनें समय इतना तेजी से बदला है कि बदलते हुए परिवेश में पत्रों एवं समाचार पत्रों की कतरनों को भी रिट माना माने लगा है क्योंकि रिट की तकनीकों की बारीकियों का अब समय समाप्त हो गया है.

कोई वाद लोकहित वाद तभी माना जायेगा जब वह-

  1. सद्भावनापूर्ण हो.
  2. उसका उद्देश्य अनुचित लाभ अर्जित करना न हो.
  3. वह राजनीति से प्रेरित न हो |

भारत में लोकहित वाद के विकास के कारण

न्यायमूर्ति श्री P. N. भगवती ने कहा है कि “न्यायपालिका को शक्ति के दुरुपयोग या गलत प्रयोग को रोक कर जनमानस को ऐसा उपचार प्रदान करना होगा जिसमें दलित एवं कमजोर वर्ग का शोषण व अन्याय समाज से समूल समाप्त हो जाये चाहे इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सक्रिय न्यायपालिका को प्रक्रियात्मक आविष्कार क्यों न करने पड़े”.

इसी विचारधारा को प्रबल बनाने के लिए तथा न्याय की महत्ता को बनाये रखने के लिए लोकहित वाद का विकास हुआ है. भारत में इसके विकास के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. संविधान के अनुच्छेद 38 में राज्य को यह निर्देशित किया गया है कि वह समाज के सभी वर्गों में अर्थिक, सामाजिक, तथा राजनैतिक न्याय स्थापित करे.
  2. संविधान के अनुच्छेद 39A में यह भी निहित किया गया है कि समाज के गरीब वर्ग को निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध करायी जाये.
  3. जनहित में लोगों के हितों की रक्षा की जाये.
  4. न्याय की प्रक्रियात्मक जटिलताओं के कारण कोई न्याय से वंचित न रह जाये.
  5. न्याय समाज के उन व्यक्तियों को भी प्राप्त हो सके जो हमें व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं.
  6. प्रशासनिक नियन्त्रण हो सके.
  7. लोकस स्टेण्डाई के नियम को उदार बनाना.
  8. ‘जहां अधिकार वहां उपचार’ युक्ति को विस्तृत रूप में प्रयोग में लाना.
  9. प्रशासनिक कार्यों के विरुद्ध मानवीय अधिकारों को मान्यता देना.
  10. न्याय को व्यावहारिक बनाना |

लोकहित वाद के क्षेत्र या विषय

लोकहित वाद की अवधारण की व्युत्पत्ति के पीछे यह भाव छिपा है कि आज असंख्य निर्धन व्यक्ति अपने अधिकारों के संरक्षण एवं प्रवर्त न के लिए न्यायालयों में दस्तक नहीं दे पाते हैं. अब तक न्याय उनके लिए एक “मृगतृष्णा” बना रहा है. लेकिन जब से लोक हितवाद की अवधारणा चली है, निर्धन व्यक्ति न्याय के निकट आने लगे हैं. हमारे न्यायालयों ने भी जनहित से जुड़े मामलों को रिट मानकर समाज के कमजोर वर्ग को राहत प्रदान करने का साहस जुटाया है. इतना ही नहीं, मात्र ‘पत्रों एवं समाचार पत्रों की कतरनों’ को भी रिट मानकर राहत देने की परिपाटी हमारे उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों में चल पड़ी है.

यहाँ कतिपय ऐसे विषय दिये जा रहे हैं जिन्हें न्यायालयों द्वारा लोकहित का माना गया है, यथा-

1. अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध संरक्षण

सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन, (AIR 1980 SC 1579) के मामले में एक आजीवन कारावास का दण्ड भुगत रहे कैदी के साथ जेल संरक्षक द्वारा क्रूर एवं अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध एक दूसरे कैदी ने पत्र द्वारा न्यायालय को इस अमानवीय घटना की सूचना भेजी.

न्यायालय ने इस पत्र को बन्दी-प्रत्यक्षीकरण रिट मानकर जेल प्राधिकारियों के विरुद्ध निर्देश जारी किया कि उक्त कैदी के साथ अमानवीय व्यवहार न किये जायें और अपराधी व्यक्ति को दण्ड देने की उचित कार्यवाही की जाये. बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट का प्रयोग केवल अवैध कारावास से विमुक्ति के लिए ही नहीं वरन् जेल में कैदियों के विरुद्ध किये गये. सभी प्रकार के अमानवीय व्यवहारों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करने के लिए भी लोकहित वाद दायर किया जा सकता है.

2. बालक कल्याण

इस सम्बन्ध में शीला वारसे बनाम भारत संघ, (AIR 1986 SC 1773) का मामला अत्यन्त महत्वपूर्ण है. इस मामले में शीला वारसे जो कि एक पत्रकार थी, ने इसलिए याचिका प्रस्तुत की कि बालक अधिनियम, 1960 होते हुए भी असंख्य बालक देश की विभिन्न जेलों में बन्द थे.

उच्चतम न्यायालय ने इन सभी बिन्दुओं पर मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए बालकों के प्रति हमदर्दी जताई और कहा कि आज के बालक कल के भारत के निर्माता हैं. इस पौध को इस प्रकार पल्लवित एवं पुष्पित किया जाये कि कल वह एक वटवृक्ष के रूप में हमारे सामने आये. उच्चतम न्यायालय ने बाल कल्याण के लिए कई दिशा निर्देश भी दिये.

M. C. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य, [(1996) 6 SCC 756] के मामले में अपने ऐतिहासिक महत्व के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि 15 वर्ष से कम आयु के बालकों को किसी भी कारखाने, खान या अन्य संकटपूर्ण कार्य में नहीं नियुक्त किया जायेगा. न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों और केन्द्रीय सरकारों को यह निर्देश दिया कि वे अनुच्छेद 24, 39ड. (च), 41, 45, 47 के सांविधानिक निदेशों का पालन करें और बाल श्रम प्रथा को शीघ्रातिशीघ्र समाप्त करें. न्यायालय ने इसके लिए विस्तृत मार्गदर्शक सिद्धान्त विहित किया है.

न्यायालय ने यह निर्देश दिया कि बालकों को खतरनाक कार्यों से मुक्त करा देना होगा और उसके स्थान पर उसके परिवार के किसी वयस्क को काम में लगाना होगा. नियोजक को प्रत्येक बालके के लिए 20,000 रूपये की रकम “बालक श्रम पुनर्वास व कल्याण खाते” में जमा करना होगा.

यदि सरकार किसी बालक के संरक्षक को काम नहीं दे सकती है, तो वह उक्त खाते में 5000 रूपये जमा करेगी. संरक्षक का कार्य होगा कि वह काम न मिलने पर भी इस रकम से प्राप्त ब्याज से बालक को 14 वर्ष तक शिक्षा दिलाये. संकट रहित कामों में कार्यरत बालकों के कार्य की अवधि 4 या 6 घण्टे से अधिक नहीं होगी, और उसे 2 घण्टे पढ़ने के लिए दिए जायेंगे जिसका व्यय नियोजक वहन करेगा.

3. श्रमिकों को संरक्षण

इस सम्बन्ध में बन्धुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ, (AIR 1982 SC 803) का मामला महत्वपूर्ण है. इस मामले में पत्थर खानों में श्रमिकों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार की ओर उच्चतम न्यायालय का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक सामाजिक संस्था द्वारा न्यायालय को पत्र लिखा गया. उच्चतम न्यायालय ने इस पत्र को ही रिट मानते हुए इस मामले की जाँच हेतु एक आयोग गठित किया. आयोग द्वारा सम्पूर्ण मामले की जांच की गई तथा श्रमिकों के साथ अमानवीय व्यवहार की शिकायत को सही पाया गया.

उच्चतम न्यायालय ने इस सब बातों को गंभीरता से लिया तथा समुचित आदेश पारित किया. आदेश में कहा गया कि-

  1. बंधुआ श्रमिकों को अविलम्ब मुक्त किया जाये,
  2. श्रम कल्याण विषयक विधियों एवं नीतियों को लागू किया जाये, तथा
  3. ऐसी शिकायतें प्राप्त होने पर सरकार द्वारा उन पर कार्यवाही की जाये.

4. पर्यावरण का संरक्षण

M.C. मेहता बनाम भारत संघ, [(1988) 2 UNP 229] के दूसरे मामले में न्यायालय ने कानपुर के निकट जाजमऊ में स्थित चर्मशोधन शालाओं को तत्काल बन्द करने का आदेश दिया क्योंकि इनसे निकलने वाले मलवे से गंगा का पानी प्रदूषित हो रहा था. याची जो एक समाजसेवी है ने उक्त याचिका न्यायालय में लोकहित वाद के रूप में फाइल की थी. उसने शिकायत की कि चर्म-शोधन शालाओं से निकलने वाला अवशिष्ट गंगा के जल को प्रदूषित करता है जो पर्यावरण तथा जनजीवन के लिए हानिकारक है.

कारखानों ने अवशिष्ट जल की प्राथमिक अभिक्रिया के लिए किसी प्रकार के संयंत्र नहीं लगाए हैं. प्रत्यर्थियों की ओर से तर्क दिया कि संयंत्र लगाने का खर्चा बहुत अधिक है और कारखानों के बन्द होने से बेरोजगारी और राजस्व की हानि होगी. किन्तु न्यायालय ने निर्णय दिया कि इन कारखानों के परिणामस्वरूप बेरोजगारी और राजस्व की हानि की अपेक्षा लोगों के जीवन, स्वास्थ्य और परिवेश संरक्षण का लोगों के लिए कहीं अधिक महत्व है.

A. P. पॉल्यूशन कन्ट्रोल बोर्ड बनाम प्रोफेसर M. V. नायडू [(2001) 2 SCC- 62] के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि पर्यावरण का संरक्षण किया जाना आवश्यक है. जहां यदि सरकार द्वारा किसी पोल्यूटेड कम्पनी को सरंक्षण दिया जाता है, वहां वह संरक्षण अनुच्छेद 21 के विरुद्ध है तथा लोक हित बाद लाया जा सकता है.

5. चिकित्सा सहायता

परमानन्द कटारा बनाम भारत संघ, (AIR 1989 SC 2039) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जिस प्रकार निर्धन व्यक्ति निःशुल्क विधिक सहायता पाने के हकदार होते हैं, उसी प्रकार वे निःशुल्क चिकित्सा सहायता पाने के हकदार होते हैं. कोई भी सरकारी विकित्सालय अथवा उसमें कार्यरत चिकित्सा अधिकारी यह बहाना नहीं बना सकते कि उनके पास वित्तीय संसाधनों का अभाव है. प्रत्येक चिकित्सा अधिकारी का यह कर्त्तव्य है कि जब भी उसके सामने कोई दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति लाया जाये तो वह विधिक औपचारिकताओं को पूरा करने की प्रतीक्षा किये बिना, उसे अविलम्ब चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराये.

6. नारी शोषण के विरुद्ध संरक्षण

दिल्ली डोमेस्टिक वर्किंग विमेन्स फोरम बनाम भारत संघ [(1995) 1 SCC 14] के मामले में उच्चतम न्यायालय ने महिलाओं के साथ बढ़ते हुए यौन अपराधों के प्रति गम्भीर चिन्ता व्यक्त करते हुए विस्तृत दिशा निर्देश दिये.

विशाखा बनाम राजस्थान, (AIR SC 3011) के मामले में उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने श्रमजीवी महिलाओं के प्रति काम के स्थान में होने वाले यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए, जब तक कि इस प्रयोजन के लिए विधान नहीं बन जाता है, विस्तृत मार्गदर्शक सिद्धान्त विहित किया है. न्यायालय ने यह कहा कि देश की वर्तमान सिविल विधियाँ या आपराधिक विधियाँ काम के स्थान पर महिलाओं के यौन शोषण से बचाने के लिए पर्याप्त संरक्षण प्रदान नहीं करती हैं.

7. पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु के लिए प्रतिकर

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ, (AIR 1997 SC 1203) के मामले में पिटीशनर ने अनुच्छेद 32 के अधीन लोकहित वाद फाइल करके न्यायालय से प्रार्थना की कि इम्फाल पुलिस द्वारा नकली मुठभेड़ जिसमें दो व्यक्ति मारे गये थे, जाँच का आदेश दे, दोषी पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध समुचित कार्रवाई का निर्देश दे तथा मृतक के परिवारजनों को प्रतिकर प्रदान करे.

न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पुलिस मुठभेड़ में दो व्यक्तियों को जान से मार डालना अनुच्छेद 21 में प्रदत्त प्राण के अधिकार का सरासर उल्लंघन है और इस मामले में संप्रभु की विमुक्ति का प्रतिवाद लागू नहीं होता है और सरकार इसके लिए दायी है. न्यायालय ने प्रत्येक मृतक के लिए एक-एक लाख रूपये नुकसानी प्रदान किया.

मूलभूत अधिकारों का उपबंधन व्यक्ति के किसी भी मूल अधिकारों के उलंघन के लिए लोक हित वाद लाया जा सकता है.

8. सार्वजनिक जीवन के भ्रष्टाचार

लोकहित वाद हमारे देश के सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार का भण्डाफोड़ करने और इसके लिए दोषी व्यक्तियों को दण्डित करने में सबसे सशक्त साबित हुआ है. इसी के कारण, हवाला काण्ड, बिहार का चारा घोटाला काण्ड, यूरिया काण्ड, सेन्ट क्रिट्स काण्ड, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सांसदों द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव से धन प्राप्त कर संसद में उनके बहुमत को सिद्ध करने का काण्ड, उत्तर प्रदेश में आयुर्वेदिक घोटाला, दिल्ली में सरकारी भवनों के आवंटन का घोटाला, पेट्रोल पम्पों के आवंटन का घोटाला आदि काण्डों को न्यायालय के समक्ष उठाया गया, और उनकी जाँच हो रही है.

उपोरक्त के अलावा निम्नलिखित ऐसे अनेक विषय हैं जिन पर लोक हित बाद लाया जा सकता है-

  1. न्यायाधीशों का स्थानान्तरण.
  2. बंदियों के साथ अमानवीय व्यवहार.
  3. विचारण में अत्यधिक विलम्ब.
  4. क्षमादान की शक्ति का समुचित प्रयोग नहीं किया जाना.
  5. राजनैतिक उद्देश्य से प्रेरित गिरफ्तारी.
  6. श्रमिकों के साथ अमानवीय व्यवहार.
  7. गंगा के पानी को प्रदूषित करना.
  8. नेत्रहीन बालिकाओं का यौन शोषण.
  9. चिकित्सालय के कर्मचारियों से रोगी की मृत्यु आदि.

V. पुरुषोत्तम राय बनाम भारत संघ [(2002) 1 SRJ 261] के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि लोकहित वाद न्यायतन्त्र के विपरीत नहीं है, इसके द्वारा न्यायालय के सम्मुख यह सूचना आती है कि किस प्रकार प्राधिकारी मनमाने ढंग से लोक हित के विरुद्ध करते हैं |

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