Table of Contents
- 1 बार तथा बेंच संबंध
- 2 1. एक दूसरे का सम्मान करें
- 3 2. मृदुभाषी रहें
- 4 3. सौम्य एवं शालीन व्यवहार करें
- 5 4. क्रोध एवं उत्तेजना से बचें
- 6 5. एक दूसरे की निंदा न करें
- 7 6. आलोचना नहीं करें
- 8 7. टीका-टिप्पणी नहीं करें
- 9 8. निजी जीवन में न झांकें
- 10 9. सुख-दुख में एक दूसरे के सहभागी बनें
- 11 10. भेद-भाव न करना
- 12 11. अनावश्यक विद्वत्ता का परिचय न दें
- 13 12. अनुचित गतिविधियों में भाग न लें
बार तथा बेंच संबंध
बार तथा बेंच में संबंध क्या है? न्यायपीठ और अधिवक्ता वर्ग एक ही तन्त्र की दो भुजाएं हैं और जब तक ये दोनों पारस्परिक सामंजस्य में कार्य नहीं करती रहेंगी, तब तक न्यायालयों द्वारा न्याय-प्रशासन उचित रूप से सम्पन्न नहीं हो सकेगा. न्यायाधीश तथा अधिवक्ता न्याय प्रशासन के दो पहिए हैं यदि इन दोनों में कोई असमानता आती है तो न्याय प्रशासन अवरुद्ध होता है. न्याय प्रशासन में सक्रियता के लिये दोनों में आपसी सौहार्द्ध (Cordial) होना चाहिये तभी वास्तविक न्याय सामने आ सकता है. बार बेंच के सम्बन्धों को अच्छा बनाये रखने के लिये निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है-
1. एक दूसरे का सम्मान करें
बार एवं बेंच दोनों के सदस्यों का यह परम कर्त्तव्य है कि वे एक दूसरे के प्रति सम्मान व्यक्त करें. अधिवक्ता न्यायाधीश को सम्मान की दृष्टि से देखें और न्यायाधीश भी अधिवक्ताओं को अपेक्षित सम्मान दें. इसके अलावा यह आवश्यक है कि बार एवं बेंच का कोई भी सदस्य अपने मन में अनावश्यक अहम को स्थान न दे. कोई भी सदस्य कभी भी एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास न करे. दोनों में पारस्परिक सम्मान से ही न्याय की परिकल्पना फलीभूत हो सकती है.
2. मृदुभाषी रहें
बार एवं बेंच दोनों का यह कर्त्तव्य है कि वे सम्पर्क और संव्यवहार में एक दूसरे के प्रति मधुर शालीन एवं संसदीय भाषा का प्रयोग करें. भाषा में कभी कठोरता अथवा कटुता न आने दें. यह भाषा ही है जो किसी व्यक्ति के मन को जीत सकती है. भाषा से ही संबंध बनते हैं और संबंध बिगड़ते हैं.
अतः बार एवं बेंच दोनों के सदस्यों से यह अपेक्षा की जाती हैं कि ये न्यायिक और न्यायेतर कार्यों में सदैव गरिमापूर्ण भाषा का प्रयोग करें.
3. सौम्य एवं शालीन व्यवहार करें
बार एवं बेंच के लिये यह आवश्यक है कि वे एक दूसरे के प्रति शालीनता एवं सौम्यपूर्ण व्यवहार करें. अपने आचरण में किसी प्रकार की अभद्रता अथवा अश्लीलता को स्थान न देवें. शालीनता एवं सौम्यता दोनों ही चरित्र के दो महत्वपूर्ण गुण हैं. सौम्य एवं शालीन व्यवहार से कई बार पत्थर दिल को भी जीता जा सकता है.
न्यायालय में भी कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है जिससे वातावरण में गरमाहट आ जाती है. ऐसे समय यदि सौम्य एवं शालीन व्यवहार का परिचय दिया जाता है. तो वातावरण में मधुरता आ सकती है.
4. क्रोध एवं उत्तेजना से बचें
बार एवं बेंच के बीच मधुर संबंध बनाये रखने के लिये यह भी अपेक्षित है कि बार एवं बेंच के सदस्य अनावश्यक क्रोध व उत्तेजना से बचें. कई बार ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं कि बार अथवा बेंच के सदस्यों में क्रोध अथवा उत्तेजना आना स्वाभाविक है. लेकिन यह सुस्थापित है कि क्रोध एवं उत्तेजना से सदैव अनुचित एवं अन्यायपूर्ण कार्य करने की आशंका प्रबल हो जाती है. ऐसे क्रोध अथवा उत्तेजना से सदैव अनुचित एवं अन्यायपूर्ण कार्य करने की आशंका प्रबल हो जाती है. ऐसे क्रोध अथवा उत्तेजना का सीधा प्रतिकूल प्रभाव पक्षकारों पर पड़ता है अतः यह आवश्यक है कि न्यायिक अथवा न्यायेतर कार्यों के दौरान कोई भी सदस्य किसी के प्रति क्रोध नहीं करे. ऐसा कहा जाता है कि क्रोध से मानव का विवेक समाप्त हो जाता है और जब विवेक समाप्त हो जाता है. तो किसी से न्यायोचित कार्य की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. अतः क्रोध एवं उत्तेजना से बचना अपरिहार्य है.
बालोघ बनाम क्राउन्स कोर्ट ऐट अलबामा, (1975) के बाद में लार्ड डेनिंग ने प्रेक्षण किया था कि अपमान को तुच्छ समझना चाहिए सिवाय जहां वे अशिष्ट अथवा बदनाम करने वाले न हों. फिर भी सहनशीलता की सीमा होती है.
5. एक दूसरे की निंदा न करें
निंदा से व्यक्ति में कटुता का भाव पैदा होता है. एक दूसरे के प्रति राग और द्वेष जन्म लेता है यह ऐसा अवगुण है जिससे मनुष्य के चरित्र और विवेक का पतन हो जाता है. अतः यह अपेक्षित है कि बार एवं बेंच का कोई भी सदस्य किसी व्यक्ति की निंदा नहीं करे. एक दूसरे के अवगुणों की व्याख्या नहीं करे. अनावश्यक चुगली अथवा चापलूसी नहीं करे. यदि बार एवं बेंच के सदस्य इससे बचे रहते हैं तो उनमें कटुता पैदा होने की संभावना धूमिल हो जाती है.
6. आलोचना नहीं करें
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कई बार अधिवक्ता न्यायाधीशों के कार्यों की भी आलोचना करते हैं. उनके व्यवहार एवं आचरण की आलोचना की जाती है. यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं है. इससे न्यायाधीशों के मन में कटुता का भाव पैदा होता है. अतः अधिवक्ताओं को चाहिये कि वे कभी भी न्यायाधीशों के न्यायिक एवं न्यायेतर कार्यों की आलोचना नहीं करें. साथ ही न्यायाधीशों का भी यह कर्त्तव्य है कि वे अधिवक्ताओं की अनावश्यक आलोचना की प्रवृत्ति नहीं पालें.
न्यायिक कार्यों को समालोचना की जा सकती है, आलोचना नहीं।
7. टीका-टिप्पणी नहीं करें
अधिवक्ताओं का यह दायित्व है कि वे न्यायाधीशों के आदेशों, निर्णयों आदि पर अनावश्यक टीका-टिप्पणी नहीं करें. अक्सर यह देखा जाता है कि किसी पक्षकार के पक्ष में निर्णय अधवा आदेश नहीं होने पर उनके अधिवक्ताओं द्वारा अनावश्यक टीका टिप्पणी की जाती है. ऐसा टीका टिप्पणी से न केवल न्यायाधीशों के मन में अधिवक्ताओं के प्रति घृणा अथवा कटुता का भाव पैदा होता है अपितु वह न्यायालय के अवमान का दोषी भी बन जाता है. यदि पक्षकार के विरुद्ध निर्णय अथवा आदेश होता है तो ऐसे निर्णय व आदेश के विरुद्ध विधिवत अपील, पुनरीक्षण, पुरावलोकन आदि किया जा सकता है. यही सही उपाय है.
8. निजी जीवन में न झांकें
बार एवं बेंच के बीच मधु संबंध बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि बार एवं बेंच के सदस्य एक दूसरे के निजी जीवन में हस्तक्षेप नहीं करें. कई बार यह देखा जाता है कि बार अथवा बेंच के सदस्य एक दूसरे के निजी जीवन में हस्तक्षेप करते हैं. उन पर हमेशा दृष्टि रखते हैं. उनकी आलोचना एवं टीका- टिप्पणी करते हैं. इससे बार एवं बेंच के सदस्यों में सिवाय कटुता से अधिक कुछ नहीं मिलता है. यदि बार एवं बेंच के निजी जीवन से अथवा निजी आचरण से न्यायिक कार्यों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है तो ऐसा निजी जीवन अथवा निजी आचरण अथवा निंदा का कारण नहीं हो सकता.
9. सुख-दुख में एक दूसरे के सहभागी बनें
कई बार, बार एवं बेंच के सदस्यों के बीच सुख-दुख में एक दूसरे की भागीदारी से भी संबंध प्रगाढ़ होते हैं. यदि वार अथवा बेंच के किसी सदस्य पर कोई भी विपदा अथवा विपत्ति आ पड़ती है. तो ऐसी विपदा अथवा विपत्ति में अन्य सदस्यों को अपेक्षित सहयोग करना चाहिये. यह एक मानवीय गुण है. इससे न्यायिक कार्यों पर किसी प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है.
उदाहरण; यदि बार एवं बेंच के सदस्यों के परिवार में किसी व्यक्ति की मृत्यु होजाती है अथवा कोई दुर्घटना हो जाती है तो ऐसी स्थिति में अन्य सदस्यों का यह कर्त्तव्य है. कि वे ऐसे व्यक्ति को सांत्वना दें और यथा संभव सहयोग करें.
10. भेद-भाव न करना
मधुर संबंधों के लिये यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीश अधिवक्ता के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रखे अर्थात किसी अधिवक्ता-विशेष के प्रति विशेष अनुराग अथवा स्नेह प्रकट नहीं करें तो अन्य अधिवक्ताओं से अलगाव भी नहीं रखें. ऐसा आचरण नहीं किये जाने पर अधिवक्ताओं में न्यायाधीश के प्रति सम्मान में कमी आती है और वे न्यायाधीशों को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं. स्वतंत्र नियम व निष्पक्ष आचरण की भी यही अपेक्षा है कि किसी व्यक्ति विशेष के प्रति विशेष अनुराग अथवा अलगाव नहीं रखा जावे। सबको समान दृष्टि से देखा जावे. अपने आदेशों अथवा निर्णयों में किसी प्रकार का पक्षपात न होने दें.
11. अनावश्यक विद्वत्ता का परिचय न दें
कई बार बार अथवा बेंच के किसी सदस्य द्वारा अपनी विद्वत्ता का अनावश्यक परिचय दिया जाता है. वह अपने आपको इस प्रकार प्रकट करता है कि वह अन्य व्यक्तियों से अधिक ज्ञान रखता है. यह प्रवृत्ति कई बार संबंधों में कटुता पैदा कर देती है. इससे ईर्ष्या भी उत्पन्न होती है. एक दूसरे के प्रति घृणा पनपने लगती है. अतः अपने आपकी विद्वता को प्रकट करने की प्रवृत्ति से सदैव दूर रहना चाहिये.
12. अनुचित गतिविधियों में भाग न लें
अधिवक्ताओं का यह कर्तव्य है कि सदैव अपने मामलों और पक्षकारों के प्रति निष्ठावान रहते हुए अनुचित गतिविधियों से बचें. कई बार कारण अकारण ही अधिवक्ता छोटी-छोटी बातों को लेकर हड़ताल, नारेबाजी अथवा काम बंद करने का सहारा ले लेते हैं. इन प्रवृत्तियों से न केवल पक्षकारों को नुकसान होता है अपितु बार एवं बेंच के संबंधों में भी कटुता आने लगती है.
उपरोक्त सभी बातों का उल्लेख एवं सार हमें इन रि विनवचन्द्र मिश्रा (AIR 1995 SC 2348) के मामले में मिला है. इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि न्यायालय अधिवक्ता का समादर करता है तथा उनकी बातों को ध्यान से सुनता है. अधिवक्ता का भी यह कर्त्तव्य है कि वह न्यायालय का समादर करे. न्यायालय द्वारा पूछें जाने वाले प्रश्नों का शांति से उत्तर दे. न्यायालय की गरिमा को बनाये रखे. यदि कोई अधिवक्ता न्यायालय की गरिमा को ही ठेस पहुंचाने लगे तो इसे अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण कहा जायेगा और यदि कोई वरिष्ठ अधिवक्ता ही न्यायालय में अपना संतुलन खो बैठे तो उसके इस दुष्परिणाम का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.
इसके साथ ही साथ, किसी भी न्यायाधीश का अधिवक्ताओं के प्रति सबसे अन्तिम महत्वपूर्ण कर्तव्य यह है कि वह बहस के दौरान तथा गवाहों के परीक्षण के समय अधिवक्ता से नोंक झोंक मत करे. न्यायाधीश को चाहिए कि जब तक अधिवक्ता सुसंगत रूप से तथा उद्देश्य के साथ मामले में बहस कर रहा है उसके कार्य में हस्तक्षेप मत करे. यदि न्यायाधीश सुनवाई के दौरान सहयोग नहीं करेगा, तो इससे न्याय की हानि होगी |