मुता विवाह क्या है? | निकाह और मुता विवाह के बीच अंतर

मुता विवाह क्या है? | निकाह और मुता विवाह के बीच अंतर

मुता विवाह

मुता विवाह एक नियत अवधि के लिये विवाह सम्बन्ध है और ऐसे विवाह में पुरुष द्वारा ऐसी स्त्री को जो इस प्रकार का अस्थायी विवाह सम्बन्ध करती है, देय मेहर की धनराशि निश्चित रहती है. मुता (Muta) विवाह की प्रथा अरब में मोहम्मद साहब के पहले तथा मोहम्मद साहब के समय प्रचलित थी. ऐसा प्रतीत होता है कि मोहम्मद साहब ने पहले इस प्रथा का विरोध नहीं किया किन्तु ईथना अशरिया शियाओं को छोड़कर सभी सम्प्रदाय के मुसलमानों के अनुसार बाद में मोहम्मद साहब ने इस प्रकार के विवाह की प्रथा का विरोध किया और उसे वर्जित कर दिया था |

मुता विवाह के लिये आवश्यक शर्तें

  1. दोनों पक्षकारों अर्थात् पति-पत्नी सक्षम होने चाहिये. उनका स्वस्थचित्त तथा वयस्क होना आवश्यक है. किसी अवयस्क का मुता विवाह उसके अभिभावक नहीं कर सकते. शिया पुरुष किसी सम्प्रदाय की मुस्लिम महिला, किताबिया, तथा पारसी महिला से मुता विवाह कर सकता है. किसी हिन्दू महिला से किया गया मुता विवाह शून्य होगा. शिया महिला किसी गैर मुस्लिम से मुता विवाह नहीं कर सकती.
  2. मुता विवाह के लिये यह आवश्यक है कि जिस अवधि के लिये विवाह किया गया है, उसको अवश्य ही स्पष्ट कर दिया जाय अन्यथा यह मान लिया जायेगा कि विवाह स्थायी सम्बन्ध के रूप में किया गया है.
  3. कुछ मेहर विवाह संविदा में अवश्य निश्चित होना चाहिये. यदि सहवास का समय स्पष्ट कर दिया गया हो और मेहर (Dower) निश्चित न हो तो मुता विवाह निष्प्रभावी होगा.
  4. मुता विवाह में पत्नियों की संख्या की सीमा नहीं है.
  5. दोनों पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति आवश्यक है.
  6. निकाह की भाँति ही पति-पत्नी के बीच कोई निषिद्ध सम्बन्ध नहीं होना चाहिये.

सोहरत सिंह बनाम मुसम्मात जाफरी बीबी, (24 1. C. 499 PC) के मुकदमे में प्रिवी काउंसिल ने कहा था कि यदि स्त्री-पुरुष के बीच समागम मुता विवाह के आधार पर प्रारम्भ हुआ हो और इस बात का कोई साक्ष्य न हो कि विवाह की अवधि क्या है तो ऐसी परिस्थिति में जब तक विपरीत साक्ष्य न प्राप्त हो जाय, निष्कर्ष यह होगा कि सहवास की समस्त अवधि तक मुता विवाह चलता रहा |

मुता विवाह के विधिक परिणाम

मुता विवाह के विधिक परिणाम निम्नलिखित हैं-

  1. पक्षकारों के बीच पारस्परिक उत्तराधिकार का अधिकार मुता विवाह में नहीं होता.
  2. मुता विवाह से उत्पन्न सन्तान धर्मज होती है और माता-पिता की सम्पत्ति की उत्तराधिकारी होती है.
  3. विवाह स्वतः अवधि समाप्त होने पर अथवा दोनों पक्षकारों की अनुमति से निर्धारित अवधि के पहले ही विच्छेदित हो जाता है.
  4. मुता विवाह में तलाक मान्य नहीं है. यदि पति चाहे तो पत्नी को शेष अवधि दान कर सकता है. इसे हिवा-ए-मुद्दत कहते हैं.
  5. यदि विवाह के बाद सहवास हो जाता है तो पत्नी पूर्ण मेहर की हकदार होती है. यदि सहवास न हो तो वह आधे मेहर की अधिकारिणी होती है.
  6. पत्नी निर्वाह वृत्ति की अधिकारिणी नहीं होती, किन्तु विशेष परिस्थितियों में वह दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत निर्वाह वृत्ति मांग सकती है.
  7. मुता विवाह के लिये समय की अवधि की न्यूनतम सीमा नहीं है.
  8. मुता विवाह में पत्नियों की संख्या की सीमा नहीं है.
  9. पति-पत्नी को निवास स्थान देने के लिये बाध्य नहीं है.
  10. पत्नी पति की मृत्यु पर चार मास दस दिन इद्दत बिताती है और गर्भवती होने पर जब तक संतानोत्पत्ति न हो जाय, इद्दत में रहती है.
  11. मुता पत्नी का मेहर अभक्ति के कारण जब्त नहीं होता जब तक कि वह अपने पति के आश्रित रहती है और अपने आपको पति की इच्छा पर अर्पित रखती है |

निकाह और मुता विवाह के बीच अंतर

निकाहमुता विवाह
निकाह स्थायी विवाह सम्बन्ध है जो कि अनिश्चित अवधि के लिये की गयी संविदा के रूप में होता है.मुता विवाह स्त्री पुरुष के बीच अस्थायी विवाह सम्बन्ध है जो एक निश्चित अवधि तक के लिये की गयी संविदा के रूप में होता है.
निकाह द्वारा स्थापित किया हुआ विवाह-सम्बन्ध मृत्यु या तलाक द्वारा ही समाप्त हो सकता है.मुता विवाह सम्बन्धी अपनी निर्धारित अवधि समाप्त हो जाने के बाद स्वतः या पारम्परिक सहमति से पहले हो समाप्त हो जाता है.
निकाह शिया तथा सुन्नी दोनों सम्प्रदायों द्वारा मान्य विवाह सम्बन्ध है.मुता विवाह सम्बन्ध केवल शिया सम्प्रदाय के मुसलमानों द्वारा ही मान्य है.
निकाह के बाद पति पत्नी दोनों को ही दूसरे की सम्पत्ति पर उत्तराधिकार प्राप्त हो जाता है.मुता विवाह द्वारा ऐसे अधिकारों का उदय नहीं होता। पति और पत्नी एक दूसरे की मृत्यु के बाद मृतक की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी नहीं होते हैं.
निकाह के बाद यदि पति चाहे तो अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है और मेहर देकर उस सम्बन्ध से छुटकारा पा सकता है.मुता विवाह के बाद पति अपनी पत्नी को तलाक देकर सम्बन्ध-विच्छेद नहीं कर सकता है, इसमें तो सम्बन्ध का अन्त निश्चित अवधि के बाद ही हो सकता है. किन्तु यदि पति चाहे तो मुता सम्बन्ध को हिबा-ए-मुद्दत (शेष अवधि का दान) देकर समाप्त कर सकता है.
निकाह के बाद चाहे पति-पत्नी ने समागम द्वारा विवाह को पूर्णता प्रदान की हो अथवा नहीं, पत्नी पूरे मेहर को अधिकारिणी होती है.मुता विवाह के बाद यदि पति-पत्नी ने समागम किया हो तो पत्नी पूर्ण मेहर की अधिकारिणी होती है, किन्तु यदि उन्होंने समागम नहीं किया है, तो पत्नी केवल आधे मेहर की अधिकारिणी होती है.
निकाह द्वारा स्थापित विवाह सम्बन्ध के बाद इद्दत की अवधि से पत्नी निर्वाह-वृत्ति प्राप्त करने की अधिकारिणी होती है.मुता (Muta) विवाह सम्बन्ध की समाप्ति के बाद पत्नी को निर्वाह वृत्ति का कोई अधिकार नहीं होता है.
निकाह में यह अनिवार्य नहीं है कि मेहर की धनराशि निश्चित करके प्रत्यक्ष रूप से घोषित कर दी जाय. मेहर अभिव्यक्त हो सकता है या उपलक्षित.मुता विवाह में यह आवश्यक है कि मेहर को निश्चित धनराशि के रूप में अभिव्यक्त कर दिया जाय. इसमें उपलक्षित मेहर का कोई स्थान नहीं है. यदि मेहर की धनराशि प्रत्यक्ष नहीं की जाती है तो मुता विवाह अवैध हो जाता है.
निकाह द्वारा स्थापित विवाह सम्बन्ध के बाद विवाह सम्बधी सभी अधिकार और कर्तव्यों का उदय स्वतः हो जाता है. निकाहनामा में उन कर्तव्यों और अधिकारों के लिखे जाने की आवश्यकता नहीं है.मुता (Muta) विवाह में ऐसा नहीं होता है. केवल सामान्य अधिकारों और कर्तव्यों के अतिरिक्त सभी शर्तों को संविदा में सम्मिलित किया जाना अनिवार्य है.

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