लोक अदालत क्या है? | लोक अदालत की प्रक्रिया एवं शक्तियां

लोक अदालत क्या है? | लोक अदालत की प्रक्रिया एवं शक्तियां

लोक अदालत

लोक अदालत क्या है? न्यायालयीन लम्बी प्रक्रिया के कारण देश के विभिन्न न्यायालयों में लम्बे समय से मामले विचाराधीन हैं. ये मामले न्याय प्रशासन के लिए चिन्ता का विषय बने हैं. न्यायालय की लम्बी प्रक्रिया के कारण लोगों का विश्वास न्यायालय पर से कम हुआ है. इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए लोक अदालतों का प्रचलन बढ़ा है. लोक अदालत न्यायालय की वह प्रक्रिया है जो समझौते के आधार पर विकसित की गई है. विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 की धारा 19 से 22 तक में लोक अदालत (Lok Adalat) सम्बन्धी प्रावधानों को उल्लेखित किया गया है.

1. लोक अदालत का संगठन

लीगल सरविसेज एथारिटी एक्ट, 1987 (विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987) की धारा 19 में यह उपबंध किया गया है कि उच्चतम न्यायालय विधिक सेवा समिति, राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण, उच्च न्यायालय विधिक सेवा समिति, जिला विधिक सेवा प्राधिकरण अथवा तालुका विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा ऐसे स्थान और अन्तराल पर लोक अदालतों का आयोजन किया जा सकता है. जहाँ वह ऐसा करना उचित समझे ऐसी लोक अदालतों में सेवारत अथवा सेवा निवृत्त न्यायिक अधिकारी तथा उतनी संख्या में ऐसे अन्य व्यक्तित्व होंगे जो समय-समय पर सम्बन्धित समिति अथवा प्राधिकरण द्वारा विनिर्दिष्ट किये जायें. उनकी अर्हतायें और शर्तें भी समिति अथवा प्राधिकरण द्वारा सुनिश्चित की जायेंगी.

2. लोक अदालत का क्षेत्राधिकार

लोक अदालतों को उन सभी मामलों को राजानामों अथवा समझौतों द्वारा निपटाने का अधिकार होता है जो किसी न्यायालय में विचाराधीन हैं अथवा जो विवाद अभी तक न्यायालय में नहीं पहुँचे हैं.

एक प्रकार से यह विचारण पूर्व समझौते की प्रक्रिया है. लोक अदालतों द्वारा ऐसे आपराधिक मामलों का निपटारा नहीं किया जा सकता है जो किसी विधि के अधीन राजीनामा योग्य नहीं हैं |

लोक अदालत की प्रक्रिया

लोक अदालत का गठन बहुत से मामलों को इकठ्ठा होने पर सुविधानुसार किसी तिथि को खूब प्रचार प्रसार करने के बाद किया जाता है यह दो प्रकार की हो सकती है.

  1. एड हाक जिनमें सभी प्रकार के मामले निस्तारित हो सकते हैं, इन एड हाक का गठन जरूरत अनुसार होते हैं इनका गठन समय-समय पर किया जाता है.
  2. स्थायी लोक अदालत जिनमें ऐसे मामले निस्तारित किए जाते है जो सदैव समाज में उपस्थित रहते हैं और इसीलिए इसका नाम परमानेन्ट लोक अदालत रखा गया है. सरकारी कर्मचारी या निकायों के कर्मचारियों सम्बन्धित विवादों के लिए स्थायी लोक अदालत का गठन किया जा सकता है.

1. लोक अदालत द्वारा मामलों का संज्ञान

विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 की धारा 20 में यह उपबंधित किया गया है कि जहाँ कोई पक्षकार यदि यह चाहे कि उसके मामले का निस्तारण लोक अदालत के माध्यम से हो, ऐसा पक्षकार उस न्यायालय में इस आशय का आवेदन कर सकेगा कि उसका मामला लोक अदालत में भेजा जाये.

जब न्यायालय को यह समाधान हो जाता है कि वह मामले लोक अदालत में निपटाये जाने योग्य हैं तो वह उसे लोक अदालत को भेजने का निर्देश दे सकेगा. लेकिन यहाँ मामले को लोक अदालत में भेजने का निदेश देने से पूर्व विपक्ष को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जाना आवश्यक होगा.

यह सारी प्रक्रिया पूर्ण हो जाने पर जब मामला लोक अदालत में आता है तब लोक अदालत में उस मामले की सुनवाई प्रारम्भ की जायेगी. दोनों पक्षकारों को सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर प्रदान किया जायेगा तथा उनमें समझौता अथवा राजीनामा कराने का प्रयास किया जायेगा.

अधिनियम की धारा 20 की उपधारा (4) के अन्तर्गत यह अपेक्षा की गई है कि मामले का निस्तारण करते समय लोक अदालत के सदस्य “न्याय, समता एवं शुद्ध अन्तःकरण” से कार्य करेंगे तथा “नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों” का पालन करेंगे.

2. लोक अदालत का पंचाट

यदि मामलों में पक्षकारों के बीच राजीनामा हो जाता है तो अधिनियम की धारा 21 के अन्तर्गत लोक अदालत का आदेश सिविल न्यायालय की डिक्री अथवा अन्य सक्षम न्यायालय के आदेश का प्रभाव रखेगा और सभी पक्षकार उस आदेश अथवा डिक्री से आबद्ध होंगे.

पंजाब नेशनल बैंक बनाम लक्ष्मीचंद राय (AIR 2000 MP 301) के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के प्रावधानों के अन्तर्गत लोक अदालत द्वारा पारित निर्णय व डिक्री धारा 21 (2) के अन्तर्गत होगी और उसके विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकेगी.

सलीम अहमद बनाम स्टेट (AIR 2019 SC 3918) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि लोक अदालत में राजीनामे के आधार पर मामले का निपटारा हो जाने के पश्चात प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराया जाना अनुचित अवैध एवं अग्रहणीय है |

लोक अदालत की शक्तियां

विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 धारा 20 एवं 21 के प्रयोजनार्थ लोक अदालतों को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अन्तर्गत एक “सिविल न्यायालय” माना गया है और इन्हें निम्नलिखित के सम्बन्ध में सिविल न्यायालय की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं-

  1. साक्षियों को समन करना एवं उनका शपथ पर परीक्षण करना.
  2. दस्तावेजों का प्रकटीकरण एवं प्रस्तुतीकरण.
  3. शपथपत्रों पर साक्ष्य का ग्रहण.
  4. लोक अभिलेख मंगवाया जाना आदि.

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि लोक अदालतों की कार्यवाहियों को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 193, धारा 219 एवं 228 के अन्तर्गत “न्यायिक कार्यवाहियां”माना गया है और लोक अदालतों को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 195 एवं अध्याय 26 के अन्तर्गत “सिविल न्यायालय” का दर्जा दिया गया है |

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