सबूत का भार क्या होता है?

सबूत के भार से आप क्या समझते हैं?

सबूत का भार क्या है?

सबूत के भार का अर्थ है ‘तथ्य के सिद्ध करने का दायित्व’। प्रत्येक पक्षकार को ऐसे तथ्य को स्थापित करना होता है जो उसके पक्ष में हो तथा दूसरे पक्षकार के विपक्ष में. इसके लिए विषय के सार को देखा जाता है. किसी विवादग्रस्त बिन्दु पर साक्ष्य प्रस्तुत किये जाने से पूर्व यह तय करना होता है कि कोई तथ्य विशेष किस पक्षकार द्वारा साबित किया जाना है. जिस पक्षकार द्वारा उसे साबित किया जाना है उसके बारे में यह कहा जाता है कि सबूत का भार उस पक्षकार पर है. विवाद्यक तथ्य को साबित करने हेतु साक्ष्य को प्रस्तुत करने के दायित्व को सबूत का भार कहते हैं.

भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार, धारा 101 तथा 102 सबूत के भार से सम्बन्धित हैं. धारा 101 निर्धारित करती है कि जो पक्षकार यह इच्छा करता है कि न्यायालय किसी विधिक अधिकार या दायित्व के बारे में उसके द्वारा दिये गये तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष दे तो यह उसका दायित्व होता है कि वह उन तथ्यों को सिद्ध करे.

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साक्ष्य अधिनियम की धारा 102 निर्धारित करती है कि किसी वाद या कार्यवाही में सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो असफल हो जायेगा यदि दोनों ओर से किसी ने भी साक्ष्य न दिया होता। विधि में सबूत का भार दो अर्थों में प्रयोग में लाया गया है. प्रथम बाद को स्थापित करने का भार, द्वितीय कार्यवाही के किसी भी प्रश्न पर सबूत प्रस्तुत करने का भार |

कब सबूत का भार दूसरे पक्षकार पर चला जाता है?

निम्नलिखित तीन परिस्थितियों में सबूत का भार दूसरे पक्षकार पर चला जाता है.

  1. उपधारणा में
  2. विशिष्ट ज्ञान में
  3. स्वीकृति में

1. उपधारणा में

यदि किसी तथ्य के बारे में किसी एक पक्षकार के पक्ष में उपधारणा की जाती है तो सबूत का भार दूसरे पक्षकार पर चला जाता है.

2. विशिष्ट ज्ञान में

यदि कोई तथ्य किसी व्यक्ति के विशिष्ट ज्ञान में है तो उसे साबित करने का भार उसी व्यक्ति पर चला जाता है, जिसके ज्ञान में वह तथ्य हैं.

3. स्वीकृति में

यदि किसी तथ्य पर वाद के पक्षकार ने स्वीकृति (Admission) की है और दूसरा पक्षकार उसे साबित कर देता है तो यह साबित करने का भार कि उसने स्वीकृति नहीं की थी, स्वीकृति करने वाले पर चला जाता है |

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दीवानी मामलों में सिद्धिभार

दीवानी के मामलों में सिद्धिभार किसी को सिद्ध करने के अर्थ में सम्भावना बाहुल्य द्वारा निर्वहन किया जाता है. न्यायालय को सम्भावना के संतुलन को तय करना होता है.

इस विषय में सामान्यतया तीन नियम हैं-

  1. यदि विवाद्यक अनेक हों, और उनमें से एक को भी साबित करने का भार वादी पर हो तो वादी ही पहले साक्ष्य देगा.
  2. चाहे ऐसा कोई विवाद्यक न हो, जिसका भार वादी पर हो फिर भी यदि वह उस बाद में नुकसानी का दावा करता है तो सबूत का आरम्भ वादी ही करेगा.
  3. यदि सारे विवाद्यकों का भार प्रतिवादी पर है तो सबूत प्रतिवादी द्वारा शुरू होगा |

आपराधिक मामलों में सिद्धिभार

आपराधिक मामलों में अभियोजन को अभियुक्त के अपराध को युक्ति-युक्त संदेहातीत सिद्ध करना पड़ता है. यहाँ सम्भावना बाहुल्य का सिद्धान्त लागू नहीं होता है.

धारा 105 में कहा गया है कि यदि अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता के साधारण अपवादों का लाभ लेना चाहता है तो ऐसे साबित करने का भार कि उसका मामला साधारण अपवाद में आता है, अभियुक्त पर ही होगा.

धारा 106 के अनुसार जबकि कोई तथ्य विशेषतः किसी व्यक्ति के ज्ञान में है तब उस तथ्य को साबित करने का भार उस पर ही होगा |

सिविल तथा आपराधिक मामलों में सबूत के भार

  1. सिविल मामलों में सबूत का भार सम्भावना की प्रबलता पर रहा है. जबकि आपराधिक मामलों में सबूत का भार समुचित रूप से युक्तियुक्त सन्देह से परे आरोप को साबित करना अनिवार्य है.
  2. सिविल मामलों में सबूत का भार दोनों पक्षकारों पर होता है और जो पक्षकार किसी तथ्य के अस्तित्व को प्राख्यात करता है उसे उस तथ्य को साबित करना चाहिये, जबकि आपराधिक मामलों में अभियुक्त को दोषी साबित करने का भार सदैव अभियोजन पर रहता है और यह कभी बदलता नहीं है.
  3. सिविल मामलों में वादी द्वारा अपने अभिकथनों को साबित करने के लिये दिये गये साक्ष्य के विरुद्ध प्रतिवादी द्वारा उक्त कथन का खण्डन स्वयं अपने कथन के पक्ष में साक्ष्य देना अनिवार्य होता है, जबकि आपराधिक मामलों में बचाव में कही गयी बातों को साबित करने के लिये अभियुक्त बाध्य नहीं है |

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