अभिवचन के नियम | अभिवचन के मूल नियम एवं सामान्य नियम

अभिवचन के नियम | अभिवचन के मूल नियम एवं सामान्य नियम

अभिवचन के मूल नियम

अभिवचन के सिद्धांत? अभिवचन सम्बन्धी विधि को सूक्ष्म रूप से चार शब्दों में इस प्रकार रखा जा सकता है, “Plead facts not law” (तथ्यों का अभिवचन कीजिए, न कि विधि का). व्यवहार प्रक्रिया संहिता का आदेश 6 अभिवचन के निम्नलिखित मूल नियमों की व्यवस्था करता है.

1.तथ्यों का अभिवचन कीजिए, न कि विधि का

अभिवचन का पहला मूल नियम यह है, कि अभिवचन केवल उन्हीं तथ्यों तक सीमित रहे जिन पर पक्षकार अपने दावे को आश्रित करते हैं. और यह कार्य न्यायाधीश का है कि वह उन से विधि का अनुमान निकाले. अभिवचन में न तो विधि के उपबन्धों का और न ही विधि के परिणामों का, तथ्यों और विधि के मिश्रित परिणामों का अभिकथन किया जाना व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 6 का नियम 2 स्पष्ट रूप से यह कथन करता है, कि प्रत्येक अभिवचन में सूक्ष्म में केवल उन महत्वपूर्ण तथ्यों का एक कथन रहेगा कि जिन पर कि अभिवचन करने वाला पक्षकार अपने दावे या अपनी प्रतिरक्षा के लिये निर्भर करता है.

वादपत्र में उन तथ्यों का सारभूत रूप से कथन किया जाना चाहिये, जिनसे वादी का मामला बनता है और उसकी रचना इस प्रकार को जानी चाहिए कि जिस दूसरी पार्टी यह जान ले कि किस मामले का सामना करना है. यही नियम प्रतिवादी के अभिवचन के सम्बन्ध में भी होगा.

उदाहरण के लिए, किसी प्रोनोट के आधार पर लाये गये बाद में केवल यह कहना पर्याप्त नहीं है कि प्रतिवादी दायित्वाधीन नहीं है. इस बात का भी अभिकथन करेगा कि उसने धन उधार लिया था या प्रोनोट का निष्पादन नहीं किया या यह कि उसने उसको पर्याप्त धन वापस कर दिया है. यह कहना पर्याप्त नहीं है कि वादी प्रतिवादी की भूमि पर से रास्ते के अधिकार का हकदार है. उसे यह दिखाना चाहिये कि वह उस अधिकार का हकदार किस प्रकार है, क्या अनुदान द्वारा, चिरभोगाधिकार द्वारा या आवश्यकता के या अन्यथा किसी सुखाचार द्वारा उसको सुखाचार के विशिष्ट प्रकार का भी अभिकथन करना होगा.

अपवाद

इस मूल नियम के कि अभिवचन में तथ्यों का कथन होना चाहिये न कि विधि का निम्नलिखित अपवाद हैं-

1. न्यायिक सूचना

यह सामान्य नियम उस विधि के सम्बन्ध में लागू नहीं होता है, जिसकी न्यायालय न्यायिक सूचना (Judicial Notice) लेने के लिये बाध्य है. विदेश विधि या व्यापार की विशिष्ट रूढ़ि या प्रथा का अभिवचन उसी प्रकार किया जाना चाहिए, जैसे किसी अन्य तथ्य का, क्योंकि न्यायालय ऐसे नियमों की न्यायिक सूचना नहीं लेगा.

2. विधि की आपत्तियां

विधि की आपत्तियां भी इस नियम द्वारा नहीं रोकी गयी हैं. वैध अभिवचन या प्रतिद्वन्द्वी द्वारा दावे किये गये वैध अधिकार के इन्कार का अभिवचन जैसे प्राङ्न्याय (Res-judicata), मर्यादा, क्षेत्राधिकार, विबन्धन आसानी से किया जा सकता है ऐसे अभिवचन विधि के विषयों के सम्बन्ध में आपत्तियां होते हैं और इनसे विधि के “वादपद” (Issues of Law) पैदा होते हैं.

3. विधि का अनुमान

स्पष्टता एवं सुविधा के विचार से कभी-कभी विधि के अनुमान को भी अनुमति दे दी जाती है और उसका भी अभिवचन किया जाता है |

2. केवल सारवान तथ्यों का ही अभिवचन होना चाहिए

दूसरा मूल नियम यह है कि प्रत्येक अभिवचन में केवल सारवान तथ्यों का ही अभिवचन किया जाये. इस नियम के लिये तीन बातें अपेक्षित हैं-

  1. अभिवचन में सब तथ्यों का अभिकथन किया जाना चाहिए.
  2. इसमें केवल सारवान तथ्यों का ही अभिकथन किया जाना चाहिए, न कि किसी और बात का.
  3. वर्तमान अवस्था में सारवान न होने वाले तथ्यों का ही अभिकथन नहीं किया जाना चाहिए.

हरद्वारी लाल बनाम केवल सिंह, (AIR 1972 SC 515) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “सारवान तथ्य वे तथ्य हैं जो यदि सिद्ध कर दिये जायें, तो वादी को माँगा गया अनुतोष प्रदान कर देंगे”.

श्रीमती सुकान्ति पटनायक बनाम शैलेन्द्र नारायण सिंह, (AIR 2012 NOC 160 उड़ीसा) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि अभिवचनों में केवल सारभूत तथ्यों का किया जाना चाहिये, सारभूत विशिष्टियों का नहीं.

अपवाद

केवल सारवान तथ्यों का ही कथन किया जाना चाहिए, के निम्नलिखित चार अपवाद हैं-

1. पूर्ववर्ती

जब कभी कोई पूर्ववर्ती शर्त वाद हेतु की मूल रूट में जाती हो तो यह हमेशा उचित और मुनासिब ही होता है कि उसका अभिकथन कर दिया जाय. व्यवहार प्रक्रिया संहिता का आदेश 6 के नियम 6 में इसी सिद्धान्त का उल्लेख है.

2. विधिजन्य पूर्वधारणा के विषय

व्यवहार प्रक्रिया संहिता का आदेश 6 का नियम 13 के अनुसार, ऐसी पूर्वधारणायें वे होती हैं जिनकी पूर्वधारणा किये जाने की आवश्यकता नहीं होती, जिनकी पूर्वधारणा न्यायालय कर सकता है.

उदाहरण के लिये, किसी वचन पत्र के आधार पर लाये गये किसी वाद में वादी को प्रतिफल कर अधिकधन करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 118 के अधीन प्रतिफल की पूर्वधारणा वादी के पक्ष में की जाती है.

ऐसे विषय जिनकी सिद्धि का भार दूसरे पक्षकार पर रहता है इसी प्रकार, किसी बन्धनामा को अमान्य करने वाले किसी तथ्य को सिद्ध करने का भार प्रतिवादी पर रहता है. इसलिए वादी को यह अभिकथन करने की जरूरत नहीं होती है कि प्रतिवादी ने बन्धनामे का निष्पादन बिना कपट और दबाव के किया. लेकिन किसी पर्दानशीन स्त्री द्वारा बन्धनामा निष्पादित किये जाने की अवस्था में, इस तथ्य को सिद्ध करने का भार कि बन्धनामा उसको पढ़कर सुना व समझा दिया गया था. और उसने उसका निष्पादन स्वतन्त्र परामर्श के बाद अपनी स्वतन्त्र इच्छा से किया, बादी पर रहता है और इसलिये उसको उनका अभिवचन करना ही होगा.

3. अनुप्रेरण के विषय

पक्षकारों के नाम, उसके द्वारा जाने वाले व्यवसाय, उनके बीच होने वाले सम्बन्ध और विवाद पैदा होने की अन्य सम्बद्ध परिस्थितियों का कथन करना वांछनीय होता है. इन तथ्यों को ‘अनुप्रेरण के विषय कहते हैं. यह महत्वपूर्ण तथ्य तो नहीं होते, लेकिन इनके लिये इसलिये इजाजत दी गई है. कि ये वाद में आने वाली बातों की व्याख्या करते हैं |

3. तथ्य का न कि साक्ष्य का उल्लेख किया जाना चाहिए

तथ्य दो प्रकार के होते हैं:

  1. सिद्ध किये जाने वाले तथ्य,
  2. तथ्यों का साक्ष्य जिनके द्वारा उन्हें सिद्ध किया जाना है.

ऐसे महत्वपूर्ण तथ्यों को, जिनका कि वादी आधार लेता है, उसे ‘Facta Probanda’ कहां जाता है और अभिवचन पत्र में उनका कथन किया जाना चाहिए. इसके विपरीत ऐसे साक्ष्य या तथ्य को जिनके द्वारा उन्हें सिद्ध किया जाना चाहिए. ‘Facta Probantia’ कहा जाता है. और उसका अभिवचन नहीं किया जाना चाहिए. वह तो केवल वादपद ग्रस्त सुसंगत तथ्या होते हैं और वादपदग्रस्त सुसंगत तथ्यों को स्थापित करने के लिये उन्हें परीक्षण में सिद्ध किया जायगा.

व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 6 का नियम 2 स्पष्ट रूप से यह निर्धारित करता है कि अभिवचन करने वाली पार्टी जिन सारभूत तथ्यों का यथास्थिति दावे या अपनी प्रतिरक्षा के लिये सहारा लेती है, अभिवचन में उन तथ्यों का और केवल उन तथ्यों का न कि उस साक्ष्य का, जिसके द्वारा कि वे सिद्ध किये जाते हैं, कथन अन्तर्विष्ट होगा.

इस प्रकार जब वादी को यह अभिवचन करना हो कि उसकी कुछ खिड़कियां पुरानी हैं तो प्रतिवादी को यह अभिकथन नहीं करना चाहिये कि पहले के किसी बाद में कादी ने यह स्वीकार किया है कि यह खिड़कियां पुरानी नहीं थीं क्योंकि वह तथ्य वादी के मामले को असिद्ध करने मात्र का साक्ष्य है.

पेड्रो डो रोजेरियो फर्नान्डिस बनाम विलफ्रेडो जेवियर जोस मोन्टेरियो, (AIR 2015 NOC 472 बम्बई) के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि अभिवचनों में केवल तथ्यों का उल्लेख किया जाना चाहिये, साक्ष्य का नहीं.

इस नियम की व्यावहारिक उपयोगिता व्यवहार प्रक्रिया संहिता में तीन ऐसे नियम बनाये गये हैं जो कि इस सामान्य नियम के व्यावहारिक रूप हैं.

1. मन की स्थिति

जहां द्वेष, कपटपूर्ण आशय, ज्ञान या किसी व्यक्ति के मन की अन्य स्थितियों का अभिकथन करना महत्वपूर्ण हो, वहां उसका अभिकथन एक तथ्य के रूप में, बिना उन परिस्थितियों को प्रस्तुत किये जिनसे उसका अनुमान किया जाता है, पर्याप्त होगा.

2. सूचना

जहां किसी व्यक्ति को किसी तथ्य, विषय या चीज को दी गई किसी सूचना का अभिकथन करना महत्त्वपूर्ण हो, वहां तब तक ऐसी सूचना का अभिकथन एक तथ्य के रूप में पर्याप्त होगा जब तक कि ऐसी सूचना का स्वरूप या उसकी ठीक-ठीक शब्दावली या उन परिस्थितियों का, जिनसे ऐसी सूचना का अनुमान किया जाना है, महत्वपूर्ण न हो.

2. विवक्षित संविदा या सम्बन्ध

जब किसी व्यक्ति के बीच किसी संविदा या सम्बन्ध को कई पत्रों से, या बातचीत से या अन्यथा कई परिस्थितियों से विवक्षित किया जाता है तो ऐसी संविदा या ऐसे सम्बन्ध का एक तथ्य के रूप में अभिकथन कर देना और बिना विस्तृत रूप से उनको प्रस्तुत किये ही ऐसे पत्रों, ऐसी बातचीत या परिस्थितियों का हवाला दे देना ही पर्याप्त होगा.

4. तथ्यों का कथन संक्षेप में शुद्धता और निश्चितता के साथ होना चाहिए

चौथा नियम यह है कि अभिवचन पत्र में महत्वपूर्ण तथ्यों का कथन किया जाये अभिवचन पत्र का प्रारूप यथेष्ट निश्चितता के साथ तैयार किया जाय जिससे विरोधी पक्षकार यह समझ सके कि उसको किस मामले का सामना है. महत्वपूर्ण तथ्यों का कथन ठीक-ठीक और संगत ढंग से और इतने संक्षेप में किया जाना चाहिए जितना स्पष्टता से सुसंगत हो और हर सूरत में अस्पष्टता से बचा वाय अनावश्यक तथ्यों को छोड़ दिया जाना चाहिये. उपयोग की जाने वाली भाषा सुन्दर होनी चाहिये और जिस भाषा में अभिवचन-पत्र का प्रारूप तैयार किया जाना हो, उसके शब्द संग्रह और व्याकरण में दक्षता आवश्यक है |

अभिवचन के सामान्य नियम

अभिवचन के सामान्य सिद्धांत? अभिवचन के सम्बन्ध में निम्नलिखित सामान्य नियम हैं-

  1. जब अनावश्यक तथ्यों को, जैसे कि विधि के विषय ऐसे तथ्य जो महत्वपूर्ण नहीं हैं, छोड़ दिया जाय;
  2. महत्वपूर्ण तथ्यों का अभिकथन करते समय जब अनावश्यक तथ्यों को छोड़ दिया जायें;
  3. महत्वपूर्ण तथ्यों का अभिकथन करने में उपयोग में लायी जाने वाली भाषा पर उचित ध्यान दिया जाये;
  4. यथासम्भव अनावश्यक क्रिया-विशेषणों और तार्किक दलीलों का उपयोग न किया जाये;
  5. दस्तावेज के शब्दों की पुनरावृत्ति किये बिना उसके विधिक प्रभाव का कथन संक्षिप्त रूप में किया जाये;
  6. जहां कहीं विद्वेष, कपट, आशय, ज्ञान या चित्त की अन्य दशा का अभिकथन करना महत्वपूर्ण है, वहां उन परिस्थितियों का वर्णन किये बिना, जिनमें उसका अनुमान किया जाना है, उसे तथ्य के रूप में अभिकथित किया जावे;
  7. पत्रों या वार्तालापों की श्रृंखला या अन्य परिस्थितियों के विधि परिणाम का अभिकथन बिना पूरी कहानी का विस्तृत विवरण किये ही किया जाना चाहिये और
  8. किसी ऐसे तथ्य का अभिकथन न किया जायें जिसे विधि सम्बन्धित पक्षकार के पक्ष में उपधारित करती है या जिसकी सिद्धि का भार प्रतिपक्षी पर है.

निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखने से यथार्थता प्राप्त की जा सकती है-

  1. व्यक्तियों और स्थानों का सही नाम सही वर्णन दिया जाना चाहिये.
  2. यथासम्भव सर्वनामों का उपयोग न किया जाये.
  3. वादी और प्रतिवादी का निर्देश उनके नाम से न किया जाये.
  4. चीजों को उनके सभी नाम से बताया जाये और एक वस्तु का निर्देश एक ही नाम से किया जाये.
  5. तथ्यों का कथन और स्पष्टता से जाये. “यदि” और “पान्तु” शब्दों के प्रयोग से बचा जाये.
  6. छोटे वाक्यों का प्रयोग किया जाये.
  7. एक ही बात को बार-बार दोहराया न जाये.
  8. व्याकरण के मूल नियमों को ध्यान में रखा जाये.
  9. अभिवचनों को पैराग्राफों विभक्त किया जाये और उन पर संख्या डाली जाये. तारीख और संख्यायें अंकों में व्यक्त की जायें.
  10. परिशिष्ट में विहित फार्मों का अनुसरण किया जाना चाहिये. अभिवचन पत्रों को हस्ताक्षरित दिनांकित और सत्यापित किया हुआ होना चाहिये.

वसुंधरा देवी बनाम हरेराम तिवारी (AIR 2011 पटना 150) के मामले में पटना उच्च न्यायालय द्वारा यह अभीनिर्धारित किया गया है कि अभिवचन (प्रोबेट कार्यवाहियों) पर स्वयं पक्षकारों के हस्ताक्षर होना आवश्यक नहीं है. पक्षकारों के अभिकर्ता अथवा प्राधिकृत व्यक्ति उन पर हस्ताक्षर कर सकते हैं |

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