Table of Contents
- 1 प्राङ्न्याय का अर्थ एवं उद्देश्य
- 2 1. वाद की बहुलता को रोकना
- 3 2. दोहरे वाद से सुरक्षा
- 4 3. न्यायालय के विनिश्चय को सही तथा अन्तिम बनाना
- 5 सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 के अनुसार प्राङ्न्याय की परिभाषा
- 6 प्राङ्न्याय के आवश्यक तत्व
- 7 1. वाद पद में विषय
- 8 2. वही पक्षकार
- 9 3. उसी स्वत्व के अधीन
- 10 4. सक्षम न्यायालय
- 11 5. सुना गया तथा अन्तिम रूप से विनिश्चित हो
- 12 सहवादियों तथा सह प्रतिवादियों के बीच प्राङ्न्याय
प्राङ्न्याय का अर्थ एवं उद्देश्य
प्राङ्न्याय को अंग्रेजी में “रेस जुडिकाटा” कहते हैं जो कि एक लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ “पहले से ही निर्णीत की गई वस्तु से है. विधि में प्राङ्न्याय के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
1. वाद की बहुलता को रोकना
पूर्व न्याय का सिद्धान्त या प्राङ्न्याय के सिद्धान्त (Principle of Res Judicata) का प्रथम उद्देश्य है व्यर्थ की मुकदमेबाजी को बढ़ावा न देना. यह रोमन सूत्र ‘इन्टरेस्ट रिपब्लिकास एस्टसिट फिनिस लीटियम’ पर आधारित है जिसके अनुसार यह राज्य का कर्तव्य है कि वह देखे कि मुकदमेबाजी को बढ़ाया जाना चाहिए बल्कि उसका अन्त करना चाहिए.
2. दोहरे वाद से सुरक्षा
प्राङ्न्याय के सिद्धान्त का दूसरा उद्देश्य है कि किसी व्यक्ति पर एक ही वाद कारण के लिए दो बार वाद नहीं लाया जाना चाहिए. यह उद्देश्य रोमन सूत्र (Maxim) नेमो डेविट लिस बेक्सारी प्रो उना येट ईडेम काजा पर आधारित है.
3. न्यायालय के विनिश्चय को सही तथा अन्तिम बनाना
प्राङ्न्याय का तीसरा उद्देश्य न्यायालय के विनिश्चय को सही रूप में स्वीकार करना तथा उसे अन्तिम बनाना है. यह उद्देश्य रोमन सूत्र (Maxim) रेस जुडिकाटा प्रो बेरीटैह सेलीपोटर पर आधारित है.
साधारण शब्दों में प्राङ्न्याय के सिद्धान्त से तात्पर्य किसी एक विवादग्रस्त विषय पर यदि सक्षम न्यायालय द्वारा निर्णय दिया जा चुका है तो उन्हीं पक्षकारों द्वारा उसी विवादग्रस्त विषय पर उन्हीं पक्षकारों के मध्य दूसरे वाद को लेने से रोकना है.
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 के अनुसार प्राङ्न्याय की परिभाषा
सीपीसी धारा 11 के अनुसार, “कोई न्यायालय किसी ऐसे वाद या वाद बिन्दु का विचारण नहीं करेगा, जिसके वाद पद में वह विषय उन्हीं पक्षकारों के मध्य अथवा उन पक्षकारों के मध्य जिसके अधीन वे अथवा उनमें से कोई उसी हक के अन्तर्गत मुकदमेबाजी करने का दावा करता है. एक ऐसे न्यायालय में जो ऐसे परवर्ती वाद जिसमें ऐसा वाद बिन्दु उठाया गया है, के विचारण में सक्षम है, किसी पूर्ववर्ती वाद में प्रत्यक्ष एवं सारवान रूप से रहा है और सुना जा चुका है तथा अन्तिम रूप से ऐसे न्यायालय द्वारा निर्णीत हो चुका है.
उदाहरण के लिए, ‘अ’, ‘ब’ के विरुद्ध मालिक की हैसियत से संविदा के आधार पर वाद संस्थित करता है. यह वाद खारिज कर दिया जाता है. तब ‘अ’, ‘ब’ के विरुद्ध उसी संविदा के आधार पर अभिकर्त्ता की हैसियत से बाद संस्थित करता है. यह धारण किया गया है कि यह वाद प्राङ्न्याय के सिद्धान्त द्वारा वर्जित था |
प्राङ्न्याय के आवश्यक तत्व
सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 11 की परिभाषा के अनुसार प्राङ्न्याय के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं-
1. वाद पद में विषय
इस सिद्धान्त की प्रथम अनिवार्य शर्त यह है कि पश्चात्वर्ती वाद में वादपदग्रस्त विषय का पूर्ववर्ती वाद में प्रत्यक्षतः एवं सारत: वाद पदग्रस्त होना चाहिए.
किसी विषय का प्रत्यक्षतः वादपदग्रस्त होना तब कहा जा सकता है जबकि उसका अभिकथन एक पक्षकार द्वारा किया गया हो तथा दूसरे पक्षकार द्वारा उसे स्वीकार या अस्वीकार किया गया हो. इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि किसी विषय को प्रत्यक्षतः बाद पद में उठाया ही गया हो. आवश्यक केवल यह है कि वह विषय सारतः वाद पदग्रस्त हो.
2. वही पक्षकार
प्राङ्न्याय के सिद्धान्त के लिए दूसरी आवश्यक शर्त है कि पश्चात्वर्ती वाद में, वे ही पक्षकार या ऐसे पक्षकार जिनके अधीन वे या उनमें से कोई दावा करते हो, होना चाहिए जो पूर्ववर्ती वाद में थे. यदि दोनों वादों के पक्षकार भिन्न हैं तो यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा.
उदाहरण के लिए, ‘अ’, ‘ब’ के विरुद्ध किराये के लिए बाद संस्थित करता है. ‘ब’ यह अभिकथित करता है कि स्वामी ‘अ’ न होकर ‘स’ है. न्यायालय द्वारा यह धारण किया जाता है कि ‘अ’ वादग्रस्त भूमि के सम्बन्ध में अपना स्वत्व सिद्ध करने में असफल रहा है. तब ‘अ’, ‘ब’ और ‘स’ के विरुद्ध भूमि के सम्बन्ध में अपने स्वत्व की घोषणा के लिए बाद संस्थित करता है. यह वाद वर्जित नहीं है क्योंकि दोनों वादों में पक्षकार वही नहीं हैं. ‘ऐसे पक्षकार जिनके अधीन वे या उनमें से कोई दावा करते हैं’ वाक्यांश व्यक्तियों के दो वर्गों से मिलकर बना है-
- पूर्ववर्ती वाद के किसी पक्षकार के अधीन वस्तुतः दावा करने वाला पक्षकार, और
- ऐसे पक्षकार जिनका प्रतिनिधित्व पूर्ववर्ती में ऐसे व्यक्ति और अन्य व्यक्तियों के लिए साधारणतः दावा किये गये किसी सार्वजनिक अधिकार या व्यक्तिगत अधिकार के सम्बन्ध में किसी पक्षकार द्वारा किया गया हो.
उदाहरण के लिए, ‘अ’ अपना एक मकान ‘ब’ को विक्रय करता है. ‘द’ उस मकान के कब्जे के लिए ‘अ’ के विरुद्ध एक बाद संस्थित करता है और वह आज्ञप्त (डिक्री) हो जाता है. अब यह आज्ञप्ति और निर्णय ‘च’ को बाध्य नहीं कर सकते, क्योंकि ‘ब’ ने मकान को वाद संस्थित किये जाने के पूर्व ही क्रय कर लिया था.
3. उसी स्वत्व के अधीन
प्राङ्न्याय के सिद्धान्त की प्रयोज्यता के लिए तीसरी आवश्यक शर्त पश्चात्वर्ती एवं पूर्ववर्ती वाद के पक्षकारों का एक ही हक अर्थात् हैसियत के अन्तर्गत दावा किया जाना है. यदि कोई व्यक्ति पूर्ववर्ती एवं पश्चात्वर्ती वादों में अलग-अलग हैसियत से पक्षकार रहा हो तो ऐसे वादों में प्राङ्न्याय का सिद्धान्त प्रयोज्य नहीं होगा.
उदाहरण के लिए, जहां कोई व्यक्ति सम्पत्ति के कब्जे के लिए पूर्ववर्ती वाद ‘अ’ के उत्तरभोगी की हैसियत से और पश्चात्वर्ती वाद ‘ब’ के उत्तरभोगी की हैसियत से संस्थित करता है, वहां ऐसा वाद प्राङ्न्याय द्वारा वर्जित होगा, क्योंकि दोनों दावे एक ही हैसियत के अन्तर्गत किये गये हैं.
4. सक्षम न्यायालय
प्राङ्न्याय के सिद्धान्त की प्रयोज्यता की चौथी आवश्यक और महत्त्वपूर्ण शर्त पूर्ववर्ती वाद का विचारण करने वाले न्यायालय का पश्चात्वर्ती वाद का विचारण करने के लिए सक्षम होना है. केवल न्यायालय की समानता पर्याप्त नहीं होती है.
मथुरा प्रसाद बनाम दोसी बाई, (AIR 1971 SC 2355) के मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि पूर्व न्याय का सिद्धान्त तभी लागू होगा जब कि विचारण का निपटारा सक्षम न्यायालय द्वारा किया गया हो तथा प्रश्न का विनिश्चय अन्तिम रूप से कर दिया गया हो.
5. सुना गया तथा अन्तिम रूप से विनिश्चित हो
प्राङ्न्याय की अन्तिम एवं पाँचवी शर्त पूर्ववर्ती वाद में के विषय को सुनकर अंतिम रूप से विनिश्चित किया जाना है अर्थात प्राङ्न्याय का गठन करने के लिए किसी विषय का पूर्ववर्ती वाद में प्रत्यक्षत: और सारतः वादपदग्रस्त होना मात्र पर्याप्त नहीं है अपितु यह भी आवश्यक एवं अपेक्षित है कि वह विषय सुनकर ही अन्तिम रूप से विनिश्चित कर दिया गया हो.
दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि ऐसा प्रतीत होना चाहिये कि न्यायालय ने अपने न्यायिक मस्तिष्क का प्रयोग करके किसी तथ्य या विधि के वादपद के किसी विनिश्चय पर एक निश्चित निष्कर्ष दिया हो जिसके बारे में ऐसा विनिश्चय वाद के अवधारण के लिए आवश्यक था.
ब्रह्मवर्त सनातन धर्म महामण्डल बनाम कन्हैयालाल वाला, (2001) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि प्राङ्न्याय का सिद्धान बाद के मामले में किसी ऐसे प्रश्न पर लागू नहीं होता जब कि वह प्रश्न पूर्ववर्ती मामले में निर्णय के लिए आवश्यक नहीं था.
वहीं; M.C. मेहता बनाम कमलनाथ, (2002) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जहां याचिका की सुनवाई के दौरान एक बिन्दु का निराकरण कर उसे अन्तिम कर दिया जाता है वहां उस बिन्दु को पुनः उसी याचिका में नहीं उठाया जा सकता है. वह रेस जुडीकेटा का प्रभाव रखेगा |
सहवादियों तथा सह प्रतिवादियों के बीच प्राङ्न्याय
यदि प्राङ्न्याय के सिद्धान्त की सभी शर्तें सहवादियों के बीच विवादित विषय पर लाग होती हैं तो वह निर्णय उन सभी सहवादियों के बीच प्राङ्न्याय की तरह ही लागू होगा.
सह प्रतिवादियों (Co-defendants) के बीच कोई निर्णय प्राङ्न्याय की हैसियत तब प्राप्त करता है जब कि उसके लिए निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हों-
- सह-प्रतिवादियों के बीच हित का परस्पर विरोध हो.
- इस विरोध को विनिश्चित करने की आवश्यकता हो.
- सह-प्रतिवादी पहले वाद के आवश्यक पक्षकार हों |