परिवाद का अर्थ, परिभाषा एवं आवश्यक तत्व?

परिवाद का अर्थ, परिभाषा एवं लक्षण?

परिवाद का अर्थ

परिवाद शब्द का वृहत् या विशाल अर्थ है, क्योंकि उसमें जबानी आरोप भी शामिल है. आरोप ऐसा होना चाहिए जो मजिस्ट्रेट को कार्यवाही करने के लिए आशय तथ्यों सहित प्रथमदृष्ट्या अपराध का किया जाना प्रकट करता हो. मजिस्ट्रेट से किया गया आरोप परिवाद है. यदि वह दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत कार्यवाही करने की दृष्टि से किया गया हो. कोई विशेष प्रारूप नहीं है जिसमें परिवाद किया जाना चाहिए. यह पर्याप्त है यदि परिवादी मजिस्ट्रेट के समक्ष उन तथ्यों को रखे जो यदि साबित हो जाये तो अपराध गठित करते हों. आरोप का सार महत्वपूर्ण है न कि परिवाद का प्रारूप. आरोपपत्र परिवाद नहीं है |

परिवाद की परिभाषा

परिवाद किसी न्यायिक कार्यवाही का प्रथम चरण है. परिवाद प्रस्तुत करने पर न्यायिक कार्यवाही का आरम्भ होता है.

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इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक केस में परिवाद की परिभाषा इस प्रकार की है- परिवाद से अभिप्राय ऐसे मौखिक या लिखित दोषारोपण से है जो मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही के लिये प्रस्तुत किया जाता है.

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (घ) में परिवाद की परिभाषा इस प्रकार की गई है- परिवाद से अभिप्राय इस संहिता के अन्तर्गत कार्यवाही किये जाने की दृष्टि से लिखित या मौखिक रूप से किसी मजिस्ट्रेट से किया गया वह कथन है जब किसी व्यक्ति ने कोई अपराध किया है चाहे वह व्यक्ति ज्ञात हो या अज्ञात हो लेकिन इसके अन्तर्गत पुलिस रिपोर्ट सम्मिलित नहीं है. जब मामले में अन्वेषण के पश्चात असंज्ञेय मामला प्रतीत होता है तो पुलिस अधिकारी द्वारा की गई रिपोर्ट परिवाद समझी जायेगी और पुलिस अधिकारी परिवादी समझा जायेगा |

परिवाद के आवश्यक तत्व

परिवाद की उपर्युक्त परिभाषा से इसके निम्नलिखित आवश्यक तत्व होते हैं-

  1. परिवाद मौखिक अथवा लिखित किसी रूप में हो सकता है. जब लिखित हो तो उसे ऐसी याचिका होना चाहिए जिसमें-
    • न्यायालय से नियमानुसार कार्यवाही करने के लिए प्रार्थना की गई हो तथा न्यायिक कार्यवाही किये जाने की प्रार्थना हो. अर्थात दोषारोपण इस उद्देश्य से लगाये जायें जिससे मजिस्ट्रेट संहिता के अन्तर्गत कार्यवाही कर सके.
    • ऐसी याचिका पर विहित कोर्ट फीस लगी होनी चाहिये.
    • परिवादी का हस्ताक्षर अथवा उसका अंगूठा निशान भी होना चाहिए.
  2. किसी भी शिकायत को तब तक परिवाद नहीं माना जाता, जब तक कि वह कोई ऐसा अपराध नहीं गठित करती है जो विधि द्वारा दण्डनीय हो.
  3. परिवाद मजिस्ट्रेट के समक्ष किया जाता है, न कि पुलिस अधिकारी के समक्ष.
  4. परिवाद का मुख्य उद्देश्य उस मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही की जाना है जिसके समक्ष वह प्रस्तुत किया गया है. सूचना के रूप में मजिस्ट्रेट से कार्यवाही करने की प्रार्थना के बिना किया गया बयान परिवाद नहीं है.
  5. परिवाद सम्बन्धी कार्यवाही संहिता में उपबन्धित रीति से की जानी चाहिए.
  6. पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट को परिवाद नहीं माना जाता उसे परिवाद उसी अवस्था में माना जा सकता है जबकि वह अन्वेषण के पश्चात असंज्ञेय अपराध होना प्रकट करती हो.
  7. परिवाद में अपराधी का उल्लेख होना आवश्यक नहीं है. आवश्यक मात्र यह है कि वह अपराधी के दण्डनीय चरित्र को स्पष्ट एवं निश्चित करता हो.
  8. परिवाद में परिवादी द्वारा उस साक्ष्य का उल्लेख किया जाना भी आवश्यक नहीं है जो उसके पास विद्यमान है.
  9. परिवाद ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध किया जाना चाहिए जिसने अपराध किया है चाहे वह ज्ञात हो अथवा अज्ञात |

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आरोप एवं परिवाद के बीच अन्तर?

  1. आरोप न्यायालय द्वारा विचारित लिखित अभिकथन है, जबकि परिवाद किसी व्यक्ति द्वारा लिखित या मौखिक कथन है जो न्यायालय को अपराध के सम्बन्ध में होता है.
  2. आरोप किसी अधिनियम की धारा के अन्तर्गत परिभाषित अपराध के सम्बन्ध में होता है, जबकि परिवाद उन तथ्यों को सूचित करता है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में अपराध किये जाने की सूचना होती है.
  3. आरोप मजिस्ट्रेट द्वारा या सक्षम न्यायालय द्वारा विचारित किया जाता है, जबकि परिवाद मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष अभियोगी द्वारा प्रस्तुत किया जाता है.
  4. आरोप का निस्तारण विचारण से आरम्भ होकर दोषमुक्ति या दोषसिद्धि के साथ होता है, जबकि परिवाद का समापन परिवाद के खारिज किये जाने अथवा अभियुक्त के विरुद्ध समन जारी होने या परिवादी की अनुपस्थिति में होता है |

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