संविदा क्या है? | संविदा की परिभाषा, प्रकार एवं वैध संविदा के आवश्यक तत्व | करार और संविदा में अंतर

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संविदा की परिभाषा, प्रकार एवं वैध संविदा के आवश्यक तत्व | करार और संविदा में अंतर

संविदा क्या है?

संविदा का आशय? संविदा एक विधि है जिसके द्वारा समान विचार वाले व्यक्तियों के पारस्परिक अधिकार एवं दायित्व, सृजित व प्रशासित होते हैं. जब एक व्यक्ति कुछ कार्य करने या सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा, दूसरे व्यक्ति से इस उद्देश्य से व्यक्त करता है कि वह अपनी सहमति दे, तो सहमति देने के पश्चात् दोनों व्यक्तियों में पारस्परिक समानुभाव (मतैक्य) या समझौता हो जाता है, जिसे करार भी कहते हैं. करार ही संविदा का आत्म-तत्व है बशर्ते कि यह विधि के द्वारा प्रवर्तनीय हो. प्रवर्तनीय होने के कारण संविदा एक आधारभूत विधि बन जाता है जिसके अनुसार पक्षकारों के अधिकार व दायित्व का निर्धारण किया जाता है |

संविदा की परिभाषा

संविदा किसे कहते हैं? भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 2 (h) में शब्द ‘संविदा’ की परिभाषा दी गई है. इसके अनुसार “वह करार जो विधितः प्रवर्तनीय हो, संविदा है.”

विधिशास्त्रियों द्वारा दी गयी परिभाषा

ऐन्सन के अनुसार, संविदा विधि (Law Of Contract), विधि की वह शाखा है जो उन परिस्थितियों को अवधारित करती है जिनमें प्रतिज्ञाकर्ता अपनी प्रतिज्ञा से वाध्य होता है.

संविदा विधि, “दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य विधि द्वारा प्रवर्तनीय एक करार है जिसमें एक या अधिक द्वारा एक या अधिक के प्रति कृत्यों या सहनशीलता के अधिकार अर्जित होते हैं.”

सॉमण्ड के अनुसार, “संविदा एक ऐसा करार है जो दो पक्षों के बीच दायित्व का सृजन करता है एवं उसकी व्याख्या करता है.”

पोलक एवं मुल्ला के अनुसार, “प्रत्येक करार या वचन जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो, संविदा कहलाता है.”

सर विलियम एन्सन के अनुसार, “संविदा से आशय दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच ऐसे करार या समझौते से है जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो तथा जिसके द्वारा एक या एक से अधिक पक्षकार दूसरे पक्षकारों के विरुद्ध किसी काम को करने अथवा न करने के लिए कुछ अधिकार अर्जित कर लेता है या कर लेते हैं.”

सुखविन्दर कौर बनाम अमरजीत सिंह (AIR 2012 पंजाब एण्ड हरियाणा 97) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि अपंजीकृत विक्रय के करार से सम्पत्ति में हित अथवा स्वत्व का सृजन नहीं होता. विक्रय-विलेख द्वारा निष्पादित संविदा से ही ऐसा हित एवं स्वत्व सृजित हो सकता है |

संविदा के प्रकार

संविदा कितने प्रकार के होते हैं? संविदाएं निम्नलिखित प्रकार की होती है-

1. प्रत्यक्ष संविदा

जब संविदा की शर्तें लिखित या मौखिक होती हैं तो उसे प्रत्यक्ष संविदा (Express Contract) कहते हैं.

2. अप्रत्यक्ष संविदा

अब संविदा की शर्तें शब्दों के अन्यथा पक्षकारों के आवरण से होती है, उसे अप्रत्यक्ष संविदा (Implied Contract) कहते हैं.

जैसे, कोई व्यक्ति टैक्सी पर बैठता है तो अप्रत्यक्ष रूप से किराया देना स्वीकार करता है, या स्टाल से समाचार-पत्र लेता है. तो कीमत देना स्वीकार करता है.

3. प्रलक्षित संविदा

प्रलक्षित संविदा से तात्पर्य, ऐसी संविदा जहां पक्षकारों का आशय संविदा न करना हो, लेकिन विधि के द्वारा संविदा उन पर आरोपित हो जाय जिसके अन्तर्गत पक्षकार उसी प्रकार से दायित्वाधीन होते हैं.

जैसे, संविदा के अन्तर्गत होते हैं, उसे प्रलक्षित संविदा (Constructive Contract) कहते है.

ऐसी संविदा का सृजन प्रस्थापना, प्रतिग्रहण, पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति, इत्यादि के आधार पर नहीं किया जाता है, लेकिन कुछ परिस्थि तियों के अन्तर्गत विधि द्वारा पक्षकारों के मध्य संविदा मान ली जाती है.

जैसे, खोयी हुई वस्तु को प्राप्त करने वाले व्यक्ति का यह दायित्व होता है कि वह उसके वास्तविक स्वामी को उसी प्रकार लोटाये जैसे कि वस्तु संविदा के अन्तर्गत दी गई हो.

4. अप्रवर्तनीय संविदा

जब कोई मान्य संविदा कुछ तकनीकी गलतियों के कारण लागू नहीं करायी जा सकती है तथा पक्षकार उसके आधार पर बाद भी नहीं प्रस्तुत कर सकता, तो उसे अप्रवर्तनीय संविदा कहते हैं, जैसे, संलेख या वचनपत्र पर उचित मूल्य कम का टिकट लगाया.

5. शून्य संविदा

विधि के द्वारा प्रवर्तनीय करार ही संविदा होता है. यदि कोई करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है तो यह शून्य संविदा (Void Contract) होगी. भारतीय संविदा अधिनियम के अन्तर्गत बहुत से ऐसे करार हैं जो नैतिकता तथा लोकनीति के विरुद्ध होने के कारण विधि द्वारा शून्य घोषित किये गये हैं (धारा 11 तथा धारा 25 से 30 तक) इसके अलावा यदि किसी करार के दोनों पक्षकार भूल के अन्तर्गत हैं तो वह शून्य करार होगा धारा 20. ये करार किसी भी परिस्थिति में संविदा का रूप धारण नहीं कर सकते.

शून्य संविदा का प्रयोग करना विरोधाभास-सा प्रतीत होता है. अधिनियम की धारा 2 (g) में इसे इस प्रकार परिभाषित किया गया है; शून्य संविदा वह है जिसका विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो जाना समाप्त हो जाता है.

जब तक इसका प्रवर्तनीय होना समाप्त नहीं हो जाता है तब तक ऐसी संविदा मान्य रहती है परन्तु क्यों ही इसका प्रवर्तनीय होना समाप्त हो जाता है उस समय संविदा शून्य हो जाती है. ऐसी संविदा धारा 56 में उपबन्धित है संविदा निर्माण के समय मान्य थी अर्थात् उसका प्रवर्तन सम्भव था लेकिन पश्चातवर्ती घटना या परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण अप्रवर्तनीय हो गई. इसके अतिरिक्त धारा 32 में भी उपलब्धित है कि यदि कोई करार अनिश्चित घटना पर आधारित हो, तो उस घटना के असम्भव हो जाने पर करार शून्य होता है.

6. आरम्भतः शून्य संविदा

यदि कोई संविदा आरम्भ से ही शून्य है तो उसे आरम्भतः शून्य संविदा कहते हैं, जैसे अवयस्क के द्वारा की गयी संविदा इसे संविदा कहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि यह करार की अवस्था से नहीं गुजरती है.

7. शून्यकरणीय संविदा

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 2 (i) के अनुसार, कोई करार जो कि उसके पक्षकारों में से एक या अधिक के विकल्प पर प्रवर्ततीय है किन्तु दूसरे पक्षकार या दूसरे पक्षकारों के विकल्प पर प्रवर्तनीय नहीं है शुन्यकरणीय है.

शून्यकरणीय संविदा वह है जिसे एक पक्षकार मान्य या अमान्य कर सकता है, लेकिन वह पक्षकार कौन है? जिसकी सम्मति कपट, असम्यक असर उत्पीड़न मिथ्या व्यपदेश के द्वारा प्राप्त की गयी हैं उस पक्षकार के विकल्प पर संविदा शुन्यकरणीय हो सकती है. उसे संविदा के अन्तर्गत प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, यदि यह चाहे तो प्रतिज्ञा का पालन कर भी सकता है. वह संविदा को मान्य बना सकता है क्योंकि उत्तरदायित्व के अधीन उसी को होना है.

इस प्रकार शून्यकरणीय संविदा एक मान्य संविदा होती है जब तक कि अधिकृत पक्षकार अपने विकल्प का प्रयोग करके उसे अमान्य न कर दे.

उदाहरण के लिए, ‘अ’, ‘ब’को मकान किराये पर न देने के कारण मार डालने की धमकी देता है. वह राजी हो जाता है. यह करार ‘ब’ के विकल्प पर शून्यकरणीय है.

8. अवैध संविदा

जब किसी संविदा का उद्देश्य या प्रतिफल विधि विरुद्ध है तो उसे अवैध संविदा कहेंगे. प्रत्येक अवैध संविदा शून्य संविदा होती है, इसलिए उसका प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता. निम्नलिखित अवस्थाओं में संविदा अवैध होती है. यदि किसी संविदा का उद्देश्य व प्रतिफल, अनैतिक लोकनीति के विरुद्ध विधि के द्वारा निषिद्ध या ऐसी प्रकृति का है कि यदि लागू किया जाय तो विधि के प्रावधानों को कर देगा या किसी के शरीर व सम्पत्ति को क्षति पहुंचाता है या कपटपूर्ण है.

9. निष्पादित संविदा

प्रत्येक संविदा के अन्तर्गत प्रतिज्ञाओं का पालन ही प्रमुख आधार होता है जिसके लिए पक्षकार बाध्य होते है. यदि किसी संविदा के अन्तर्गत प्रतिज्ञाओं का पूर्णतया पालन कर दिया गया है तो उसे निष्पादित संविदा कहते हैं.

उदाहरण के लिए, ‘अ’ ‘ब’ को अपनी गाय उधार देने की प्रतिज्ञा करता है तो गाय को बिना मूल्य प्राप्त परिदत्त करना ही निष्यादित संविदा मानी जायेगी.

10. निष्पाद्य संविदा

जो संविदा पूर्णतया पालित नहीं की गयी है या पक्षकारों द्वारा कुछ कार्य किया जाना शेष रह गया है और जिसका पालन भविष्य में किया जाना है. उसे निष्याय संविदा कहते हैं,

जैसे, ‘अ’ ‘ब’ को 500 रुपये देने की प्रतिज्ञा करता है यदि ‘ब’ उसे 10 जून तक अच्छी घड़ी देता है. इसे निष्याय संविदा कहते हैं.

11. एकपक्षीय व द्विपक्षीय संबिदा

एकपक्षीय संविदा वहज्ञहै जिसमें प्रतिफल निष्पादित रहता है व द्विपक्षीय संविदा वह है जिसमें प्रतिफल निष्पाद्य रहता है.

12. समाश्रित संविदा

अधिनियम की धारा 31 के अनुसार, समाश्रित संविदा, ऐसी संविदा की सम्पाश्विक (Collateral) किसी घटना के होने या न होने पर किसी बात को करने या न करने की संविदा है.

जैसे, ‘अ’ ‘ब’ से संविदा करता है. कि यदि ‘स’ का घर जल गया तो यह ‘ब’ को 10 हजार रुपया देगा. यह समाश्रित संविदा है.

इसकी मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं; यह कुछ करने या न करने की संविदा है, यदि कुछ घटना घटती है या नहीं घटती है तथा यह घटना ऐसी संविदा की सम्पाश्विक होना चाहिये.

13. बाजीयुक्त संविदा

बाजीयुक्त संविदा एक ऐसी संविदा है जिसमें भविष्य की किसी अनिश्चित घटना पर विरोधी विचार वाले दो व्यक्ति आपस में यह तय करते हैं कि इस घटना के निश्चय पर एक की जीत या दूसरे की हार होगी. हारने वाला जीतने वाले को किसी निश्चित या बाजी में रखी हुई कोई अन्य मूल्यवान वस्तु देगा.

ऐन्सन के अनुसार, किसी अनिश्चित घटना के निश्चित होने पर धन या मूल्यवान वस्तु देने की प्रतिज्ञा को बाजी लगाना कहते हैं.

14. संविदा कल्प

संविदा कल्प एक ऐसी आपवादिक संविदा है जिसके अन्तर्गत पक्षकारों में संविदा द्वारा सर्जित सम्बन्धों के सदृश, सम्बन्ध, प्राकृतिक न्याय व साम्य के आधार पर स्थापित हो जाता है इस कारण से एक पक्षकार दूसरे प्रति दायित्वाधीन होता है. यद्यपि पक्षकारों का आशय संविदा करना नहीं होता है. इस संबंध में धारा 68 से 72 तक में ऐसे सम्बन्धों का उल्लेख किया गया है |

वैध संविदा के आवश्यक तत्व

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 10 में विधिमान्य संविदा (Valid Contract) के निम्नलिखित आवश्यक तत्वों का उल्लेख किया गया है-

1. करार का होना

प्रत्येक संविदा करार होती है, अतः यह स्वतः स्पष्ट है कि संविदा के लिए करार का होना आवश्यक है. करार प्रस्थापना, प्रतिग्रहण एवं प्रतिफल से मिलकर बनता है. करार दो पक्षकारों के बीच होता है. अतः संविदा में भी दो पक्षकारों का होना विवक्षित है.

2. पक्षकारों का सक्षम होना

संविदा के पक्षकारों का सक्षम होना आवश्यक है. सक्षमता से अभिप्राय है-

  1. प्राप्तवत या वयस्क हो;
  2. स्वस्थचित्त होना एवं
  3. संविदा करने के लिए किसी विधि के अधीन अनर्ह (Disqualified) नहीं होना.

उदाहरण के लिए, अवयस्क व्यक्ति भागीदारी की संविदा नहीं कर सकता. विधि के अधीन अवयस्क केवल भागीदारी के लाभों में सम्मिलित हो सकता है (धारा 30 भागीदारी अधिनियम).

3. स्वतन्त्र सहमति का होना

प्रत्येक करार पक्षकारों की स्वतंत्र सहमति से किया जाना आवश्यक है. सहमति स्वतंत्र होती है, यदि वह-

  1. प्रपीड़न (धारा 15);
  2. असम्यक् असर (धारा 16);
  3. कपट (धारा 17);
  4. दुर्व्यपदेशन (धारा 18) में से किसी एक या अधिक से प्रभावित न हो.

विधिशास्त्र की स्वस्थ परम्परा में कपट एवं दुरभिसंधि पवित्र से पवित्र संव्यवहार को भी दूषित कर देती है. संविदा का भी इनसे परे होना आवश्यक है.

4. विधिपूर्ण प्रतिफल एवं उद्देश्य का होना

प्रतिफल एवं उद्देश्य का विधिपूर्ण होना आवश्यक है. प्रतिफल एवं उद्देश्य विधिपूर्ण होता है, यदि वह-

  1. विधि द्वारा निषिद्ध नहीं हो,
  2. वह विधि के प्रावधानों को निष्फल न करता हो,
  3. वह कपटपूर्ण न हो,
  4. वह शरीर या सम्पत्ति को क्षति न पहुँचाता हो,
  5. वह लोक नीति के विरुद्ध न हो.

5. अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित नहीं किया जाना

किसी करार को अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित किया गया नहीं होना चाहिए. संविदा अधिनियम के अन्तर्गत निम्नलिखित संविदाओं को शून्य घोषित किया गया है-

  1. दोनों पक्षकारों द्वारा तथ्य की भूल के अधीन किया गया करार (धारा 20);
  2. प्रतिफल के बिना किया गया करार (धारा 25);
  3. विवाह में अवरोध पैदा करने वाला करार (धारा 26);
  4. व्यापार में अवरोध पैदा करने वाला करार (धारा 27);
  5. विधिक कार्यवाहियों में अवरोध पैदा करने वाला करार (धारा 28);
  6. अनिश्चित अर्थ वाला करार (धारा 29);
  7. पण या बाजी का करार (धारा 30);
  8. असम्भव घटनाओं पर आधारित करार; एवं
  9. असम्भव कार्य करने का करार (धारा 36).

6. लिखित एवं अनुप्रमाणित होना

जहां किसी संविदा का भारत में प्रवृत्त किसी विधि द्वारा लिखित एवं अनुप्रमाणित किया जाना अपेक्षित हो, वहां उसका लिखित एवं अनुप्रमाणित होना आवश्यक है |

करार और संविदा में अंतर

  1. शब्द करार संविदा से अधिक व्यापक है. सभी संविदाएं करार होती हैं, लेकिन सभी करार संविदाएं नहीं होतीं.
  2. प्रत्येक करार से विधिक दायित्व का उत्पन्न होना आवश्यक नहीं होता, जबकि प्रत्येक संविदा में विधिक दायित्वों की उत्पत्ति आवश्यक होती है.
  3. करार के लिए संविदा का होना आवश्यक नहीं है, जबकि प्रत्येक संविदा के लिए करार का होना आवश्यक है.
  4. सभी करार विधितः प्रवर्तनीय नहीं होते, जबकि सभी संविदाएं विधितः प्रवर्तनीय करारों से निर्मित होती हैं.

उदाहरण के लिए, एक मित्र द्वारा दूसरे मित्र को भोजन पर आमंत्रित करना, चल-चित्र देखने के लिए आग्रह करना आदि ऐसे करार हैं जो नैतिक दृष्टि से प्रवर्तनीय हो सकते हैं, लेकिन विधिक दृष्टि से नहीं |

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