विधिक व्यवसाय की परिभाषा, विशेषताएं एवं भारत में विधिक व्यवसाय के इतिहास?

विधिक व्यवसाय क्या है?

विधिक व्यवसाय की परिभाषा

विधि बहुत जटिल होती है, अधिनियमों तथा नियमों की भाषा अत्यन्त जटिल होती है. जिस कारण उसे समझना आसान नहीं होता है. इन अधिनियमों को समझने के लिये योग्य व्यक्ति की आवश्यकता होती है, जो कि अधिवक्ता कहलाता है. इस प्रकार सरल भाषा में कहा जा सकता है कि अधिवक्ता द्वारा विधि का प्रयोग करके जो व्यवसाय किया जाता है, वह विधि व्यवसाय कहलाता है. अधिवक्ता का यह कर्त्तव्य होता है कि वह व्यक्तियों को विधि पर सलाह दे तथा उसके बदले में वह अपनी फीस या मेहनताना ले सके इसी व्यवसाय को विधि व्यवसाय कहा जाता है |

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विधिक व्यवसाय की विशेषताएं

विधि व्यवसाय की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं-

  1. यह एक विस्तृत (विशाल) व्यवसाय है.
  2. यह एक स्वतन्त्र व्यवसाय है जिसमें सेवा भावना प्रमुख होती हैं.
  3. इसमें व्यवसायी को मानव के विभिन्न संव्यवहारों का ज्ञान रखना होता है.
  4. इस व्यवसाय में व्यवसाय का विज्ञापन तथा दलालों का उपयोग करना नीति विरुद्ध माना जाता है.
  5. इस व्यवसाय में बार (Bar) एवं बेंच (Bench) के साथ अच्छे सम्बन्ध होते हैं |

बार एवं बेंच में क्या सम्बन्ध होना चाहिये?

न्यायाधीश तथा अधिवक्ता न्याय प्रशासन के दो पहिये (राय) हैं. यदि इन दोनों में कोई भी सदा प्रकट होता है तो न्याय प्रशासन अवरुद्ध होता है. न्याय प्रशासन में सक्रियता के कारण दोनों में आपसी तालमेल होने से वास्तविक न्याय सामने आ सकता है.

बार-बेंच के सम्बन्धों को अच्छा बनाये रखने के लिये निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है-

  1. एक दूसरे का सम्मान करें.
  2. संव्यवहार के समय शालीनता एवं मधुर भाषा का प्रयोग करें.
  3. क्रोध एवं उत्तेजना से बचें.
  4. एक दूसरे की आलोचना तथा निन्दा न करें.
  5. एक दूसरे के सम्बन्ध में अनावश्यक टीका-टिप्पणी न करें.
  6. एक दूसरे के निजी जीवन में हस्तक्षेप न करें.
  7. भेदभाव न करें.
  8. अनुचित गतिविधियों में भाग न लें |

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भारत में विधिक व्यवसाय के इतिहास

हिन्दू काल में विधिक व्यवसाय का कोई अस्तित्व नहीं था क्योंकि उस समय राजा सर्वोपरि था तथा वही न्यायविद हुआ करता था. राजा निर्णय के लिए अपने सलाहकारों की मदद लेता था, परन्तु ऐसी कोई संस्था नहीं थी जो कि विधि को व्यवसाय के रूप में मान्यता देती हो. विधि व्यवसाय का सृजन काल ब्रिटिश भारत में हुआ.

1. ब्रिटिश भारत में विधिक व्यवसाय

प्रारम्भिक ब्रिटिश काल में विधिक व्यवसाय को ज्यादा महत्व नहीं दिया गया क्योंकि उस समय कम्पनी का शासन काल था. ब्रिटिश भारत में विधिक व्यवसाय के इतिहास को जानने के लिये हम इसे निम्न भागों में विभाजित कर सकते हैं-

2. मेयर कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट ऑफ जुडीकेचर के अधीन विधि व्यवसाय

ब्रिटिश भारत में 1726 में राजपत्र द्वारा प्रथम बार मेयर न्यायालयों की स्थापना कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेन्सी नगरों में की गई जो कि न्यायिक प्रक्रिया का अनुसरण करते थे तथा जो कि इंग्लैण्ड के न्यायालयों के न्यायतुल्य थे. इस राजपत्र के बाद और राजपत्र आये जिन के द्वारा विधिक व्यवसाय को बल मिला परन्तु विधिक व्यवसाय को एक सुनियोजित ढांचा 1773 के रेग्यूलेटिंग ऐक्ट तथा 1774 के चार्टर द्वारा मिला. इनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट को स्थापना की गई. 1774 का चार्टर एक न्यायिक चार्टर था जिसका उद्देश्य न केवल कलकत्ते में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना करना था, बल्कि भारत में ब्रिटिश अदालतों तथा कम्पनी अदालतों की विधियों तथा प्रक्रियाओं में सुधार लाना भी था.

3. कम्पनी न्यायालयों में विधि व्यवसाय

उपरोक्त के बाद भी विधि व्यवसाय सुव्यवस्थित नहीं हो सका. 1793 में विधि व्यवसाय (Legal profession) को एक सुनियमित व्यवस्था प्राप्त हुई, क्योंकि 1793 के रेग्यूलेशन द्वारा बंगाल में सदर दीवानी अदालत के लिए वकीलों को प्रथम बार सूचीबद्ध किया गया.

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1814 के बंगाल रेग्यूलेशन 27 में विधिक व्यवसाय के सम्बन्ध में कतिपय उपबन्ध बनाये गये जिन्हें 1833 के रेग्युलेशन द्वारा लागू किया गया.

उपरोक्त सब के बाद 1846 में लीगल प्रेक्टिशनर्स एक्ट बनाया गया इसमें स्पष्ट किया गया कि भारत में ब्रिटिश सम्राट के न्यायालयों में सूचीबद्ध वकील ही कार्य कर सकेंगे. इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट के एटॉर्नी तथा बैरिस्टर कम्पनी को सदर अदालतों में भी अभिवचन कर सकते थे. लीगल प्रेक्टिशनर्स एक्ट, 1853 ने सुप्रीम कोर्ट के अटोर्नी और बेरिस्टर को कम्पनी की किसी भी सदर अदालत में अभिवचन करने का अधिकार प्रदान किया. परन्तु भारतीय वकीलों को सुप्रीम कोर्ट में अभिवचन करने का अधिकार प्रदान नहीं किया गया.

4. भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम, 1861 के अधीन विधि व्यवसाय

ब्रिटिश भारत में भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम, 1861 पारित होने के बाद प्रत्येक प्रेसीडेन्सी नगर अस्तु कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास प्रत्येक में एक हाईकोर्ट की स्थापना की गई तथा सुप्रीम कोर्ट तथा सदर अदालतों को समाप्त किया गया. विभिन्न राजपत्रों द्वारा इन उच्च न्यायालयों को वकील, अटोर्नी एवं एडवोकेट को सूचीबद्ध करने तथा अनुमोदित करने की शक्ति प्रदान की गई। इस प्रकार इन न्यायालयों में सूचीबद्ध व्यक्ति हो वकालत कर सकते थे.

5. लीगल प्रेक्टिशनर्स एक्ट, 1879 के अधीन विधि व्यवसाय

ब्रिटिश भारत में सन 1879 में लोगल प्रेक्टिशनर्स एक्ट (Legal Practioner’s Act) पारित किया गया. इसके द्वारा विधि व्यवसायी को दो वर्गो में बांटा गया-

  1. एडवोकेट,
  2. वकील।

एडवोकेट आयरलैण्ड या इंग्लैण्ड का बैरिस्टर या स्कॉटलैण्ड के एडवोकेट संकाय का सदस्य होता था. वकील वे सदस्य होते थे जो कि भारतीय विश्वविद्यालयों से विधि स्नातक होते थे.

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6. इण्डियन बार काउन्सिल एक्ट, 1926 के अन्तर्गत विधिक व्यवसाय

1923 में सर एडवर्ड चामियार की अध्यक्षता में इण्डियन बार कमेटी गठित की गई. इस कमेटी को भारतीय स्तर पर बार के गठन तथा हाईकोर्ट के लिए अखिल भारतीय स्तर पर कौंसिल की स्थापना के गठन के लिये सुझाव देना था. इस कमेटी ने विधि व्यवसाय के एक वर्ग को मान्यता देने की बात कही तथा कहा विधि व्यवसाय के लिए एक वर्ग हो होना चाहिए. उसे एडवोकेट कहा जाना चाहिये. इस कमेटी के सुझावों को लागू करने के लिए इण्डियन बार कौंसिल एक्ट, 1926 पारित किया गया. यह एक्ट भी विधि व्यवसायियों को संतुष्ट करने में सफल नहीं रहा. क्योंकि मुफस्सिल कोर्ट में कार्य करने वाले वकील तथा मुख्तार इसके क्षेत्र में नहीं आते थे.

7. स्वतन्त्र भारत में विधि व्यवसाय

स्वतंत्रता के बाद 1951 में न्यायमूर्ति S.R. दास की अध्यक्षता में अखिल भारतीय विधिक कमेटी की स्थापना की गई। इस कमेटी ने अखिल भारतीय बार कौंसिल तथा स्टेट बार कौंसिल की स्थापना की सिफारिश की. इस कमेटी ने बार कौंसिल को अधिक शक्ति देने की बात भी कही.

8. अधिवक्ता अधिनियम के अन्तर्गत विधि व्यवसाय

इस अधिनियम का उद्देश्य विधि व्यवसाय सम्बन्धी विधि को संकलित और संशोधित करना और चार कौंसिल तथा अखिल भारतीय बार कौंसिल की स्थापना करने के उपबन्ध करना था. वर्तमान में यह एक्ट संपूर्ण भारत में प्रभावशील है |

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