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कंपनी का अर्थ
‘कंपनी’ शब्द लैटिन भाषा से लिया गया है. इसकी उत्पत्ति दो लैटिन शब्दों ‘कम’ (Com) और ‘पेनिस’ (Panis) के मेल से हुई है, जिनका अर्थ क्रमश: ‘साथ-साथ’ तथा ‘रोटी’ होता है. प्रारम्भ में ‘कंपनी’ शब्द का आशय ऐसे व्यक्तियों के समूह से था जो भोजन के लिये एकत्रित हुए हों |
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कंपनी की परिभाषा
कुछ विद्वानों के अनुसार कंपनी की परिभाषायें है-
जेम्स के अनुसार- “कंपनी व्यक्तियों का एक ऐसा संघ है जो किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिये संगठित हुए हों.”
लिण्डले के अनुसार- “कंपनी का आशय अनेक व्यक्तियों के ऐसे समूह से है जिसकी संयुक्त पूंजी में प्रत्येक अपना अंशदान धन या किसी सम्पत्ति के रूप में देते हैं तथा किसी सामान्य उद्देश्य के लिये उसका प्रयोग करते हैं.” इस प्रकार एकत्रित पूंजी कंपनी की पूंजी कहलाती है. पूँजी (Capital) में अंशदान करने वाले व्यक्ति कंपनी के सदस्य कहलाते हैं |
कंपन किसे कहते हैं?
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (20) के अनुसार कंपनी की परिभाषा
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (20) में दी गयी परिभाषा के अनुसार कंपनी से तात्पर्य इस अधिनियम अथवा पूर्ववर्ती किसी अन्य कंपनी विधि के अन्तर्गत निगमित कंपनी से है. इस परिभाषाओं के निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि “कंपनी एक ऐसा कृत्रिम व्यक्ति है जिसका वास्तविक कारोबार किन्हीं सजीव व्यक्तियों के द्वारा कुछ सजीव व्यक्तियों के हित या लाभ के लिए किया जाता है.” |.
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कंपनी की विशेषताएं
1. कृत्रिम व्यक्ति
कंपनी विधिक दृष्टि से एक कृत्रिम व्यक्ति है जो अदृश्य तथा गैर जीवित है तथा इसमें प्राकृतिक व्यक्तियों की शारीरिक आवश्यकताओं जैसे भूख, प्यास, विवाह तथा काम का अभाव पाया जाता है. विधि इस कानूनी व्यक्ति इसलिये मानती है क्योंकि यह विधिक व्यवसाय का संचालन कर सकती है ताकि अपने नाम से अन्य व्यक्तियों के साथ संविदा कर सकती है.
कंपनी सम्पत्ति का क्रय तथा विक्रय कर सकती है. यह अपने नाम से वाद प्रस्तुत कर सकती है इसमें विधिक अस्तित्व के कारण इसे काल्पनिक नहीं कहा जा सकता है. अतः कंपनी विधिक दृष्टि से विधिक व्यक्ति है.
2. स्वैच्छिक संघ
कंपनी की दूसरी विशेषता इसका एक स्वैच्छिक संघ अथवा समुदाय होना है. इसका सृजन संविदा के अन्तगर्त किया जाता है. जिसमें व्यक्ति अपनी स्वतंत्र सम्पत्ति मे सम्मिलित होते है. कंपनी का सदस्य बनने पर बाध्यता नहीं होती.
3. स्वतंत्र विधिक अस्तित्व
कंपनी की तीसरी महत्वपूर्ण विशेषता उसका स्वतंत्र अथवा पृथक विधिक अस्तित्व होना है. कंपनी का अस्तित्व अपने सदस्यों के अस्तित्व से पृथक होता है. यही कारण है कि कंपनी के अधिकार एक दायित्व भी उन लोगों से पृथक होते है जिनके द्वारा कंपनी का सृजन हुआ है.
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4. शाश्वत उत्तराधिकार
कंपनी की चौथी विशेषता उसका शाश्वत उत्तराधिकार है. इसका स्थायी आस्तित्व है. किसी सदस्य द्वारा सदस्यता त्याग दिये जाने, उसके दिवालिया हो जाने, उसकी मृत्यु हो जाने या अन्यथा स्थान रिक्त हो जाने पर कंपनी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता है.
कंपनी एक ऐसी बढ़ती हुई नदी के समान है जिसमें अस्थायी पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता रहता है. लेकिन नदी स्थायी बनी रहती है.
5. सामान्य मुहर
कंपनी को पाँचवीं विशेषता उनकी एक सामान्य मुहर का होता है. सामान्य मुहर से ही कंपनी के सारे कार्य किये जाते है कंपनी की सामान्य मुहर पर किये गये संचालकों के हस्ताक्षरों से उसके कार्य एवं दायित्व कंपनी के कार्य एवं दायित्व समझे जाते है यद्यपि कंपनी एक कृत्रिम व्यक्ति है, लेकिन उसके समय समस्त कार्य सामान्य मुहर के बल पर प्राकृतिक व्यक्तियों द्वारा किये जति है.
6. परिसीमित दायित्व
कंपनी की छठवीं विशेषता उसके सदस्यों का परिसीमित दायित्व होना है. कंपनी के सदस्यों का दायित्व उनके के द्वारा क्रय किये गये अंशों के मूल्य तक सीमित रहता है या कह सकते हैं कि कंपनी के अंशधारकों का दायित्व केवल अपने अंश का मूल्य चुकाने तक ही होता है |