Table of Contents
- 1 आपराधिक अवमानना
- 2 1. न्यायालय के प्राधिकार को कलंकित करना
- 3 2. किसी न्यायिक कार्यवाही के सम्यक् अनुक्रम के किसी प्रकाशन या किसी प्रकार के अन्य कार्य से क्षति पहुंचाना अथवा हस्तक्षेप करना
- 4 3. प्रकाशन या किसी अन्य रीति से किया गया कार्य न्याय-प्रशासन में हस्तक्षेप करता है या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति रखता है या बाधा उत्पन्न करता है या बाधा उत्पन्न करने की प्रवृत्ति रखता है
- 5 दाण्डिक अवमानकर्ता की प्रतिरक्षाएं
- 6 1. विषय का निर्दोष प्रकाशन तथा वितरण, अवमान नहीं माना जाता
- 7 2. न्यायिक कार्यवाहियों का निष्पक्ष एवं शुद्ध प्रतिवेदन
- 8 3. न्यायिक कार्यों की यथार्थ आलोचना
- 9 4. अधीनस्थ न्यायालयों के पीठासीन अधिकारियों के विरुद्ध सद्भाव में किया गया परिवाद
- 10 5. अमुक मामलों में अवमान दण्डनीय नहीं होते
आपराधिक अवमानना
आपराधिक अवमानना को दाण्डिक अवमान भी कहते हैं. न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 2 की उपधारा (ग) प्रावधान करती है कि “आपराधिक अवमानना (Criminal Contempt)” का अर्थ है किसी विषय का प्रकाशन (चाहे बोले गये या अंकित किए गये शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा अथवा अन्यथा) या किसी प्रकार के अन्य कार्य का किया जाना; जो
- किसी न्यायालय के प्राधिकार को कलंकित करता है या कलंकित करने को प्रवृत होता है या उसके अधिकार को घटाता है या उसको घटाने को प्रवृत्त होता है, अथवा
- किसी न्यायिक कार्यवाही के सम्यक् अनुक्रम को क्षति पहुंचाता है या उसमें हस्तक्षेप करता है या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति रखता है, अथवा
- किसी अन्य रीति से न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करता है या बाधा उत्पन्न करता है या हस्तक्षेप करने या बाधा उत्पन्न करने की प्रवृत्ति रखता है.
- अवमान का अपराध न्याय प्रशासन के विरुद्ध होता है और उसको दण्डित करने के पीछे यह भाव होता है कि कोई भी न्यायालय उचित रूप से कार्य नहीं कर सकता जब तक उसे अपनी गरिमा को कायम रखने नहीं दिया जाता.
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1. न्यायालय के प्राधिकार को कलंकित करना
“यायालय को कलंकित करने” से तात्पर्य किसी ऐसे कार्य या लेख के प्रकाशन से है जिसका उद्देश्य न्यायालय या न्यायाधीश के अवमान से सम्बन्धित है या उसके प्राधिकार को न्यून करने से है. यह एक मूलभूत सिद्धान्त है कि यदि विधि के शासन का कोई अर्थ है, तो न्यायालय तथा न्यायाधीश के प्राधिकार के प्रति सामान्य जनता के मस्तिष्क में विश्वसनीयता बनाए रखना आवश्यक है और उसको अस्थिर नहीं होने देना है.
ब्रह्म प्रकाश शर्मा बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश, AIR 1954 SC 10 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि सार रूप में कलंकित करने का तात्पर्य किसी न्यायाधीश या न्यायालय पर आक्रमण करना है. इसके लिए सभी या अमुक मामले में किसी न्यायाधीश की योग्यता या चरित्र पर अपमानजनक कलंक लगाना नहीं है.
2. किसी न्यायिक कार्यवाही के सम्यक् अनुक्रम के किसी प्रकाशन या किसी प्रकार के अन्य कार्य से क्षति पहुंचाना अथवा हस्तक्षेप करना
न्यायालय अवमान अधिनियम की धारा 2 (ग) के उपखण्ड (ii) के अनुसार आपराधिक अवमान के अन्तर्गत किसी विषय का प्रकाशन या किसी न्यायिक कार्यवाही के सम्यक् अनुक्रम पर प्रतिकूल प्रभाव डालने या उसमें हस्तक्षेप करने या हस्तक्षेप पैदा करने की प्रवृत्ति रखने से है. ऐसे विचारण इसलिए अवमानिक माने जाते हैं क्योंकि वे न्याय प्रशासन की स्थापित व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न करते हैं और निष्पक्ष राष्ट्रीय विधि के अनुसार अनुसरण किये जा रहे निष्पक्ष न्याय की प्रक्रिया को संकट में डाल देते हैं.
लार्ड डेनिंग ने कहा है कि “प्रेस एक प्रहरी है जो न्याय प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. यह एक ऐसा प्रहरी है जो इस बात पर दृष्टि रखता है कि प्रत्येक विचारण उचित एवं खुले रूप में हो रहा है अथवा नहीं. किन्तु कभी-कभी यह प्रहरी मर्यादा का अतिक्रमण कर जाता है और इस प्रकार कदाचार के लिए उसे दण्डित करना पड़ता है.”
3. प्रकाशन या किसी अन्य रीति से किया गया कार्य न्याय-प्रशासन में हस्तक्षेप करता है या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति रखता है या बाधा उत्पन्न करता है या बाधा उत्पन्न करने की प्रवृत्ति रखता है
“किसी अन्य रीति से” का तात्पर्य आपराधिक अवमान के अवशिष्ट मामलों से है जो धारा 2 (ग) (i) तथा (ii) के अन्तर्गत नहीं आते। चूँकि अवमान के अवशिष्ट मामले, प्रकाशन के अतिरिक्त मामले हैं, अतः उन्हें अन्य उपखण्ड (iii) में विवेचित किया गया है.
“न्याय प्रशासन” एक ऐसी अभिव्यक्ति है जो इतनी विस्तृत है कि धारा 2 (ग) के उपखण्ड (i) तथा (ii) के अन्तर्गत व्यक्त नहीं किए जा सकते, इसलिए प्रकाशन या अतिरिक्त कार्य जो न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करते हैं या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति रखते हैं या बाधा उत्पन्न करते हैं या बाधा उत्पन्न करने की प्रवृत्ति रखते हैं, अपराधिक अवमान के मामले हैं, जिनका उल्लेख धारा 2 (ग) के उपखण्ड (iii) में किया गया है.
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दाण्डिक अवमानकर्ता की प्रतिरक्षाएं
1. विषय का निर्दोष प्रकाशन तथा वितरण, अवमान नहीं माना जाता
धारा 3 की उपधारा (1) प्रावधान करती है कि कोई व्यक्ति उस आधार पर न्यायालय अवमान का दोषो न होगा कि उसने चाहे बोले गए या अंकित किए गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यरूपणों द्वारा अथवा अन्यथा, कोई विषय प्रकाशित किया है, जो प्रकाशन के समय लम्बित किसी सिविल या दाण्डिक कार्यवाही के सम्बन्ध में न्याय के अनुक्रम में अड़चन उत्पन्न करता है या अड़चन बाधित करने की प्रवृत्ति रखता है, उसको बाधित करता है या बाधित करने की प्रवृति रखता है, यदि उस समय उसे यह विश्वास करने का कोई युक्तियुक्त आधार न हो कि वह कार्यवाही लम्बित थी.
2. न्यायिक कार्यवाहियों का निष्पक्ष एवं शुद्ध प्रतिवेदन
न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 4 में यह उपबन्ध किया गया है कि न्यायिक कार्यवाही का उचित एवं सही प्रतिवेदन न्यायालय का अवमान नहीं होता.
धारा 4 के अनुसार धारा 7 में अन्तर्विष्ट उपबन्धों के अधीन रहते हुए कोई व्यक्ति किसी न्यायिक कार्यवाही या उसकी किसी अवस्था का उचित एवं सही प्रतिवेदन प्रकाशित करने के लिए न्यायालय अवमान का दोषी नहीं होगा.
3. न्यायिक कार्यों की यथार्थ आलोचना
न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 5 के अन्तर्गत उपबन्ध किया गया है कि न्यायिक कार्यों की उचित आलोचना अवमान नहीं होती. धारा 5 के अनुसार कोई व्यक्ति किसी ऐसे मामले के, जो सुनवाई करके अन्तिम रूप से विनिश्चित किया जा चुका है, गुणावगुण या किसी उचित आलोचना का प्रकाशन करने के लिए अवमान का दोषी नहीं होगा.
धारा न्यायिक कार्यों की उचित आलोचना को प्रतिरक्षा प्रदान करती है यदि वह मामले के गुणावगुण पर आधारित है और वह अन्तिम रूप से विनिश्वित किया जा चुका है.
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4. अधीनस्थ न्यायालयों के पीठासीन अधिकारियों के विरुद्ध सद्भाव में किया गया परिवाद
इस संदर्भ में न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 6 सुसंगत है. इस धारा के अन्तर्गत यह स्पष्ट किया गया है कि अधीनस्थ न्यायालय के पीठासीन अधिकारियों के विरुद्ध परिवाद कब अवमान की कोटि में नहीं आता. धारा 6 के अनुसार कोई व्यक्ति किसी ऐसे कथन के बारे में जो उसे सद्भावना से किसी ऐसे अधीनस्थ न्यायालय के पीठासीन अधिकारी के सम्बन्ध में किया हो, जो-
- किसी अन्य अधीनस्थ न्यायालय, या
- उस उच्च न्यायालय के अधीन हो, जिसके वह अधीनस्थ हो, न्यायालय अवमान का दोषी नहीं होगा.
इस धारा में “अधीनस्थ न्यायालय” का अर्थ है, कोई न्यायालय जो उच्च न्यायालय के अधीनस्थ हो.
A. N. जिन्दल बनाम P. L. छत्रा, AIR 1969 दिल्ली 291 के बाद में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि किसी उच्चतम न्यायालय को एक पत्र इस आशय से लिखा जाना कि अधीनस्थ न्यायालयों में लम्बित मामलों को क्या स्थिति है, न्यायालय का अवमान नहीं है.
5. अमुक मामलों में अवमान दण्डनीय नहीं होते
इस संदर्भ में न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 13 महत्वपूर्ण है जो प्रावधान करती है कि कतिपय दशाओं में अवमानना दण्डनीय नहीं होती है. धारा 13 के अनुसार तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में किसी बात के होते हुए भी कोई न्यायालय इस अधिनियम के अधीन न्यायालय अवमान के लिए कोई दण्डादेश तब तक आरोपित नहीं करेगा जब तक उसका समाधान न हो जाए कि अवमानना इस प्रकार की है कि वह न्याय के सम्यक् अनुक्रम में या तो सारभूत रूप से हस्तक्षेप करती है, या सारभूत रूप से हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति रखती है.
धारा 13 में “सारभूत रूप से” शब्दों का प्रयोग, अवमान की गम्भीरता से विचारण के लिए आवश्यक है. कुलदीप रस्तोगी बनाम विश्वनाथ खन्ना, AIR 1979 दिल्ली 202, के वाद में यह धारण किया गया है कि यदि न्याय प्रशासन को पहुंची हानि थोड़ी है और नोटिस के अधीन है, तो न्यायालय उसे दण्ड नहीं देगा |