Table of Contents
निर्देश क्या है?
निर्देश किसे कहते हैं? किसी मामले में विधि की वैधानिकता के बारे में समाधान करना किसी अधीनस्थ न्यायालय को आवश्यक हो तो वह उच्च न्यायालय उसे उस पर स्पष्टीकरण ले सकता है. यह प्रक्रिया निर्देश (Reference) कहलाता है |
निर्देश कब दिया जा सकता है?
प्रत्येक न्यायालय किसी मामले का कथन करते हुए उसे राय हेतु उच्च न्यायालय को निर्दिष्ट कर सकेगा –
- जहाँ कि निर्णय के पूर्व किसी समय न्यायालय यह संदेह करता है कि क्या वह वाद लघुवाद न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञेय है या नहीं तब वहाँ वह न्यायालय संदेह के कारणों को अभिलिखित कर उच्च न्यायालय में भेजेगा.
- जहाँ जिला न्यायालय को यह प्रतीत होता हो कि उसका अधीनस्थ कोई न्यायालय यह गलत धारण करने के कारण कि बाद लघुवाद न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञेय है या नहीं, अपने में विधि द्वारा विहित क्षेत्राधिकार को प्रयुक्त करने में असफल रहा वहाँ वह जिला न्यायालय अभिलेख को उच्च न्यायालय को निर्देशित कर सकता है.
- ऐसा कोई भी निर्देश न्यायालय द्वारा या तो अपनी स्वप्रेरणा से या पक्षकार के आवेदन किये जाने पर किया जा सकेगा |
निर्देश की आवश्यक शर्तें
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 113 के अन्तर्गत निर्देश जारी करने के लिए निम्न शर्तें आवश्यक हैं-
- किसी वाद में उत्पन्न होने वाले ऐसे विधि अथवा प्रथा के प्रश्न जिनके विरुद्ध अपील न होती हो,
- ऐसी प्रश्नों पर सन्देह युक्तियुक्त (Reasonable doubt) से हो, न्यायालय के विरुद्ध ऐसे प्रश्नों पर उच्च न्यायालय द्वारा विचार करना आवश्यक हो |
निर्देश सम्बन्धी प्रक्रिया
निर्देश सम्बन्धी प्रक्रिया (Procedure) का उल्लेख आदेश 46 में किया गया है. इसके अन्तर्गत-
- आदेश 46 के नियम 1 के अनुसार, ऐसा कोई निर्देश न्यायालय द्वारा या तो अपनी स्वप्रेरणा (Own Motion) पर या किसी पक्षकार के द्वारा आवेदन किये जाने पर किया जा सकेगा.
- आदेश 46 के नियम 2 के अनुसार, निर्देश पर आदेश लम्बित रहने के दौरान वाद को या तो रोका जा सकेगा या निर्देश पर होने वाले आदेश पर आश्रित कोई आज्ञप्ति पारित की जा सकेगी या किसी आदेश का निष्पादन तब तक नहीं किया जायेगा.
- आदेश 46 के नियम 3 के अनुसार, यदि पक्षकार ऐसी इच्छा प्रकट करे तो उच्च न्यायालय उनकी सुनेगा और उसके बाद उस प्रश्न का विनिश्चय करके निर्णय की एक प्रति उस न्यायालय को पारेषित (Transmit) करेगा और वह न्यायालय तदनुसार मामले का निपटारा करेगा.
निर्देश करने वाले न्यायालय की आज्ञप्ति को परिवर्तित करने, अपास्त करने आदि की उच्च न्यायालय की शक्ति
आदेश 46 के नियम 5 के अनुसार, जहाँ कोई मामला इस आदेश के नियम 1 अथवा 113 के परन्तुक के अन्तर्गत उच्च न्यायालय को निर्दिष्ट किया जाये, वहाँ उच्च न्यायालय-
- मामले को संशोधन के लिए लौटा सकेगा,
- निर्देश करने वाले न्यायालय की आज्ञप्ति अथवा आदेश को परिवर्तित कर सकेगा, निरस्त कर सकेगा या अपास्त कर सकेगा, अथवा
- ऐसा कोई आदेश दे सकेगा, जैसा कि वह उचित समझे |
पुनरीक्षण क्या है?
सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 115 में पुनरीक्षण (Revision) के प्रावधानों का उल्लेख किया गया है. पुनरीक्षण की शक्ति उच्च न्यायालय को है. पुनरीक्षण के अन्तर्गत उच्च न्यायालय ऐसे मामलों जिनमें अपील नहीं होती तथा जो कि किसी अधीनस्थ न्यायालय द्वारा निर्णीत किया गया है, की वैधता की जाँच कर सकता है |
पुनरीक्षण के लिए आधार
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 115 के अनुसार उच्च न्यायालय में निम्नलिखित आधारों पर पुनरीक्षण के लिए आवेदन किया जा सकता है-
- जब कि अधीनस्थ न्यायालय ने ऐसे क्षेत्राधिकार का प्रयोग किया हो जो कि उसमें निहित नहीं था.
- जबकि अधीनस्थ न्यायालय ऐसे क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने में विफल रहा हो जो कि उसमें निहित था.
- जबकि अधीनस्थ न्यायालय ने क्षेत्राधिकार का अवैध रूप से प्रयोग किया हो.
- जबकि मामले को विनिश्चित करने वाला न्यायालय उच्च न्यायालय या अधीनस्थ न हो सकती हो.
- जबकि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा किया हुआ विनिश्चय ऐसा हो जिसकी अपील न्यायालय हो |
उच्च न्यायालय किन परिस्थितियों में पुनरीक्षण में हस्तक्षेप नहीं करेगा?
सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1999, के द्वारा धारा 115 (1) के परन्तुक के स्थान पर नया परन्तुक जोड़ा गया है जिसके अनुसार, उच्च न्यायालय किसी वाद या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में इस धारा के अधीन किये गये किसी आदेश में या कोई विनिश्चित करने वाले किसी आदेश में तभी फेरफार करेगा या उलटेगा जब ऐसा आदेश यदि वह पुनरीक्षण के लिए आवेदन करने वाले पक्षकार के पक्ष में किया गया होता तो वाद या अन्य कार्यवाही का अन्तिम रूप से निपटारा कर देता |
पुनरीक्षण के लिए आवश्यक शर्ते
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 115 के अन्तर्गत पुनः परीक्षण की शक्ति का प्रयोग करने के लिए निम्नलिखित शर्तों का पूर्ण होना आवश्यक है-
- अधीनस्थ न्यायालय द्वारा विनिश्चित कोई मामला होना आवश्यक है.
- मामले का विनिश्चय करने वाला न्यायालय उस उच्च न्यायालय के अधीनस्थ हो जो कि पुनरीक्षण कर रहा है.
विनिश्चय ऐसा होना चाहिए जिसकी अपील न होती हो. - अधीनस्थ न्यायालय ने अपने क्षेत्राधिकार का दुरुपयोग करते हुए विनिश्चय किया हो.
मदन लाल बनाम श्याम लाल, (2002) 1 SCC 535 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि क्षेत्राधिकार के प्रयोग में तात्विक अनियमितता (Material Irregularity In Excercise Of Jurisdiction) न तो विधि की गलती है और न ही तथ्य की अतः धारा 115 का प्रयोग नहीं हो सकता है |
पुनरीक्षण की शक्ति केवल उच्च न्यायालय में ही निहित की गई है
संहिता की धारा 115 द्वारा पुनरीक्षण की शक्ति केवल उच्च न्यायालय में ही निहित की गई है और यह शक्ति उच्च न्यायालय के स्वविवेकाधीन है. उच्च न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग केवल क्षेत्राधिकार के प्रयोग के अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा बरती गई त्रुटियों, अवैधानिकताओं और सारभूत अनियमितताओं को उस दशा में दूर करने के लिए करता है जब पहले तो यह कि उस कारण से न्याय विफल हुआ हो और दूसरे यह कि उस मामले में उच्च न्यायालय में अपील न होती हो.
घोषणा एवं आनुषंगिक अनुतोष के मामले में पारित डिक्री के विरुद्ध पुनरीक्षण नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह धारा 96 के अन्तर्गत डिक्री योग्य है.
सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1999 द्वारा यह भी जोड़ा गया है. कि उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण के लिए आवेदन कर देने मात्र से अधीनस्थ न्यायालय की कार्यवाहियों का स्थगन (Stay) नहीं होता है. वे ऐसी कार्यवाहियाँ तब तक स्थगित नहीं मानी जायेंगी जब तक कि उच्च न्यायालय ऐसा आदेश पारित न करे |
निर्देश तथा पुनरीक्षण के बीच अंतर?
- निर्देश में कोई मामला अधीनस्थ न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय को उसकी राय हेतु भेजा जाता है. जबकि पुनरीक्षण में मामला उच्चतम न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालय से मँगाया जाता है.
- निर्देश, किसी अधिनियम, अध्यादेश, प्रथा आदि की याचना के सम्बन्ध में उठने वाले प्रश्नों तथा सन्देह उत्पन्न होने से होता है, जबकि पुनरीक्षण अधीनस्थ न्यायालय द्वारा प्रयोग में लायी गई अधिकारिता सम्बन्धी त्रुटियों या गलतियों को ठीक करने के लिये किया जाता है |