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मृत्युकालीन घोषणा का अर्थ
मृत्युकालिक कथन क्या है? मृत्युकालिक कथन उस कथन को कहते हैं. जिसमें कथन करने वाला अपनी मृत्यु का कारण या उन संव्यवहारिक परिस्थितियों को जिनकी परिणति उसकी मृत्यु में हुई बताता है. जैसे यदि ‘अ’ घायल अवस्था में अस्पताल में है और वह यह कथन करता है कि रात में वह स्टेशन से घर जा रहा था और रास्ते में ‘ब’ तथा ‘स’ ने छूरे से उसे घायल किया तथा कथन करने के बाद वह मर जाता है तो ‘अ’ का कथन मृत्युकालिक कथन के अन्तर्गत आयेगा, क्योंकि उसके कथन से मृत्यु के कारण का पता चलता है.
R बनाम बुडकाक, (1789) के बाद में कहा गया कि इस प्रकार के साक्ष्य के ग्रहण करने का सामान्य सिद्धान्त है कि जीवन के अन्तिम क्षण में कथन किया गया हो जब जीवन की सारी आशायें समाप्त हो चुकी हैं और मनुष्य का मस्तिष्क सर्वशक्तिमान ईश्वर के कारण सत्य बोलने के लिये प्रेरित हो रहा है तो विधि इस अवसर को इतना पवित्र समझती है. जितना न्यायालय में शपथ दिलाने पर हो सकता है |
मृत्युकालीन घोषणा की आवश्यक शर्ते
किसी मृत्युकालिक कथन को ग्राह्यता के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 के अनुसार, निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है-
- ऐसे कथन का सम्बन्ध मृत्यु के कारण से या ऐसी परिस्थितियों से होना चाहिए, जिसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हुई है.
- ऐसे कथन करने वाले की अन्ततः मृत्यु हो गई हो.
- ऐसे कथन में मृत्यु का कारण बताया गया हो.
- विधिवत सिद्ध की गई हो.
पकाला नारायण स्वामी बनाम सम्राट (AIR 1930 PC 47) के वाद में लार्ड एटकिन ने प्रतिपादित किया है कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 के तहत तुरन्त मृत्यु की आशंका का होना जरूरी नहीं है. कथन ऐसे समय भी किया जा सकता है. जब कि मृत्यु का कोई कारण पैदा न हुआ हो और चाहे मृतक को यह आशंका भी न हो कि वह मार दिया जायेगा.
इसी सिद्धान्त को उच्चतम न्यायालय ने कौशल राम बनाम स्टेट ऑफ बाम्बे (AIR 1958 SC 22) में स्वीकार कर मान्यता दी. पानावाना बनाम स्टेट ऑफ गुजरात (AIR 1992 SC 1817) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यदि न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मृत्युकालिक कथन मृत्यु की परिस्थितियों और आहत व्यक्ति पर आक्रमण करने वाले का ठीक-ठीक वर्णन का परिणाम है तो इसके लिए अतिरिक्त पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती है. बेताल सिंह बनाम मध्यप्रदेश राज्य (AIR 1996 SC 2770) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मृतक के मृत्युकालिक कथन पर मात्र इसी कारण अविश्वास नहीं किया जा सकता है कि वह पुलिस द्वारा अभिलिखित किया गया है |
मृत्युकालिक घोषणा कब ग्राहा है?
साक्ष्य अधिनियम के अन्तर्गत मृत्युकालिक कथन सुसंगत है. चाहे वह व्यक्ति जिस समय उसने घोषणा की थी. मृत्यु की आशंका में रहा हो या नहीं रहा हो. दीवानी मामलों में भी ऐसी घोषणा ग्राह्य है, यदि उसमें मृत्यु के कारण का प्रश्न उठाया गया हो |
मृत्युकालिक घोषणा की ग्राह्यता के आधार
मृत्युकालिक कथन को साक्ष्य में ग्रहण किये जाने के निम्नलिखित आधार हैं-
1. आवश्यकता
मृतक की मृत्यु के कारणों पर मृतक से अच्छा और कोई अन्य व्यक्ति प्रकाश नहीं डाल सकता और चूंकि वह मर गया है तो उसकी जगह पर उसके द्वारा किया कोई कथन मृत्यु के कारण का उत्तम साक्ष्य हो सकता है. अतः मृतक के कथन द्वारा उत्तम साक्ष्य की आवश्यकता की पूर्ति की जाती है.
2. विश्वसनीयता
मृत्युकालिक वचन ऐसी परिस्थितियों में किया जाता है कि उसे विश्वसनीय माना जा सकता है. इस प्रकार का साक्ष्य ग्रहण करने का सामान्य सिद्धान्त यह है कि यह के अन्तिम क्षण में किया जाता है, जब कि व्यक्ति मृत्युशय्या पर पड़ा है. और इस जीवन की सारी आशायें समाप्त हो चुकी होती है तो वह सच बोलता है.
3. अन्य साक्षी की कमी
प्रायः हत्या के गम्भीर अपराध ऐसे समय किये जाते हैं. कि कोई देख न सके और ऐसा भी हो सकता है कि साक्ष्य के अभाव में दोषी व्यक्ति दण्ड से बच जाय, अतः साक्ष्य की कमी को दूर करने के लिए मृत्युकालिक कथन को साक्ष्य में लिया जाता है.
दलवीर सिंह बनाम पंजाब राज्य (AIR 1987 SC 1328) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि मात्र मृत्युकालिक कथन के आधार पर भी अपराधी को दण्डित किया जा सकता है.
मृत्युकालिक कथन करने वाले के जीवित रह जाने पर कथन की उपयोगिता
यदि कोई व्यक्ति मृत्युकालिक कथन करने के बाद जीवित रहता है तो उसका कथन मृत्युकालिक कथन के तौर पर साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 (1) के अन्तर्गत नहीं साबित किया जा सकता हैं. क्योंकि धारा 32 लागू होने की पहली आवश्यकता है कि कथन करने वाला मर गया हो.
ऐसे कथन का उपयोग साक्ष्य अधिनियम की धारा 157 के अन्तर्गत दिया जा सकता है. जब कथन करने वाला अपना बयान देने न्यायालय में उपस्थित होता है और बयान देता है तो वह अपने कथन की पुष्टि में पहले किये गये कथन को पेश कर सकता है.
यदि मृत्युकालिक कथन लिखित है तो उसका उपयोग साक्ष्य अधिनियम की धारा 145 के अनुसार, उस समय किया जा सकता है, जब मृत्युकालिक कथन करने के बाद जीवित रहने पर वह व्यक्ति अपना बयान देने न्यायालय में पेश होता है। तब उसके बयान का खण्डन करने के लिए, यदि बयान और मृत्युकालिक कथन में कोई भिन्नता है तो प्रतिपरीक्षा में लिखित मृत्युकालिक कथन का उपयोग किया जा सकता है.
मदन बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र (AIR 2018 SC 2007) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मृतक द्वारा किये गये मृत्युकालिक घोषणा के कथन साक्ष्य में हैं, यदि-
कथन लेखबद्ध करने से पूर्व उसके कथन करने के लिए सक्षम होने का प्रमाणपत्र प्राप्त कर लिया गया हो, तथा
कथनों से अभियुक्त के दोषी होने का आभास होता हो |