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हिन्दू कौन है?
हिन्दू का तात्पर्य उन सभी लोगों से है जो हिन्दू माता-पिता से पैदा होते हैं और जो हिन्दू धर्म में परिवर्तित हो जाते हैं. वे लोग निम्न हैं-
- धर्म से हिन्दू
- बौद्ध, सिक्ख, जैन, ब्राह्म, आर्य समाजी और लिंगायत जो मूल रूप में हिन्दू थे, किन्तु अब दूसरी धार्मिकता में विश्वास करते हैं. वर्तमान हिन्दू विवाह, हिन्दू उत्तराधिकार तथा दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण आदि अधिनियम के अन्तर्गत बौद्ध, जैन तथा सिक्खों को भी हिन्दू शब्द के अर्थ के अन्तर्गत सम्मिलित कर दिया गया है और वे अब इन्हीं अधिनियमों में उल्लिखित कानूनों से प्रशासित होंगे.
- वे आदि निवासी जो हिन्दू हो गये हैं.
उच्चतम न्यायालय के पेरुमल बनाम पेन्नूस्वामी (1971 SC 2352) के वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि यदि कोई दूसरे धर्म को त्यागकर हिन्दू धर्म स्वीकार कर लेता है तो वह हिन्दू माना जायेगा |
हिन्दू विधि के स्रोत
हिन्दू विधि के मूल स्रोत निम्नलिखित हैं-
1. श्रुति या वेद
श्रुतियां हिन्दू विधि की प्राथमिक और सर्वोच्च स्रोत हैं. इन्हें ईश्वर का वाक्य कहा जाता है. श्रुति का शाब्दिक अर्थ है वह जो सुना गया है जो श्रेष्ठ ऋषियों के समक्ष प्रकट किया गया. इसके अन्तर्गत चारों वेद तथा 6 वेदांग सम्मिलित हैं. इन वेदों में विधि का स्वरूप धर्म के नियमों के साथ मिश्रित कर दिया गया है. चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद हैं. इनमें ऋग्वेद अत्यन्त उल्लेखनीय है. उसमें विधि का उल्लेख जिस प्रकार किया गया है, उससे आज्ञापक विधि का स्पष्ट रूप नहीं प्राप्त होता. वेदों के बाद वेदांगों का स्थान आता है. ये संख्या में 6 हैं जो क्रमश: इस प्रकार हैं-
- कल्प
- व्याकरण
- छन्द
- शिक्षा
- ज्योतिष, तथा
- निरुल।
इसके अतिरिक्त श्रुतियों में उल्लिखित विधि कालान्तर में उतनी उपयोगी नहीं रह गई जितना कि उस समय थी जबकि उसकी रचना की गई थी. उसको व्यावहारिक उपयोगिता कम हो गई थी जिसके कारण स्मृतियों में विधि की पुनर्व्याख्या की गयी |
2. स्मृति
स्मृति का शाब्दिक अर्थ है “वह जो स्मृति में रखा गया” अर्थात स्मरण किया गया. ऐसा विश्वास है कि स्मृतियाँ वेदों के उस मूल पर आधारित हैं. जिनका रूप अब लुप्त हो गया है.
जो स्मृतियाँ स्लोकों में हैं उन्हें धर्मशास्त्र की संज्ञा दी गयी. इसके विशिष्ट रचनाकार मनु याज्ञवल्क्य, नारद, विष्णु, वृहस्पति, कात्यायन तथा पाराशर हैं |
3. भाष्य तथा निबन्ध
यद्यपि भाष्यों तथा निबन्धों (Digests and Commentaries) का कार्य स्मृतियों की व्याख्या करना है किन्तु निबन्धों ने समय की माँग के अनुसार व्याख्या करके मूल विधि को काफी परिवर्तित कर दिया है.
मुख्य भाष्य और निबन्ध है-
- जीमूतवाहन का दायभागः
- याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की टीका-मिताक्षरा
- मित्र मिश्र की टीका वीर मित्रोदय
- वाचस्पति मिश्र का विवाद चिन्तामणि
- चन्द्रेश्वर का विवाद रत्नाकर
- रघुनन्दन का दाय तत्व
- श्रीकृष्ण का दायक्रम संग्रह
- देवनन्दन भट्ट की स्मृति चन्द्रिका
- माधवाचार्य की पाराशर पर टीका पाराशर माधव्य तथा
- नीलकण्ठ का व्यवहार मयूख |
4. सदाचार
हिन्दू विधि के विकास में सदाचार (Custom) का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है. स्मृतियों तथा भाष्यों में सदाचार की प्रधानता के विषय में अनेक प्रामाणिक लेख प्राप्त होते हैं. विधि के स्पष्ट स्वरूप के विरोध में सदाचार के ही आधार पर विधि का निर्धारण किया जाता था. सदाचार को ही सामान्य भाषा में रीति-रिवाज अथवा प्रथायें आदि नाम से पुकारा जाता है. आधुनिक समय में भी प्रथाओं के महत्व में कोई कमी नहीं आई है.
कलेक्टर ऑफ मदुरा बनाम मोटू रामलिंगम (1868, 12 M. I. 1397) के मामले में प्रिवी काउंसिल ने कहा है कि प्रथाओं का स्पष्ट प्रमाण लिखित मूल से अधिक प्रामाणिक होगा.
स्मृतियाँ और निबन्ध अधिकांशत: इन्हीं प्रथाओं पर आधारित हैं. जिस विषय में स्मृतियाँ और टीकाएँ मौन है वहाँ पर प्रथायें हो विधि को पूर्ण बनाती हैं. इन प्रथाओं के लिए यह आवश्यक बताया गया कि वे अति प्राचीन हों, निरन्तर प्रयुक्त की जाती हों, युक्तियुक्त हों तथा विधि के आज्ञापक प्रावधानों के विरुद्ध न हों. इन प्रथाओं को नैतिकतापूर्ण भी होना चाहिये |
5. विधायन
अंग्रेजों के शासन काल में समय-समय पर कुछ अधिनियम बनते रहे हैं जिनका उद्देश्य मूल हिन्दू-विधि को संशोधित और परिवर्द्धित करना था. उदाहरण के लिए-बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929, हिन्दू अधिगम के लाभ अधिनियम, 1930 इत्यादि. स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय संसद द्वारा कुछ ऐसे अधिनियमों की रचनायें हुई हैं जिनसे हिन्दू-विधि में महान परिवर्तन हुए हैं. इन अधिनियमों में हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955, हिन्दू दूत्तक ग्रहण तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 तथा हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 मुख्य हैं. भारतीय संसद ने हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 पारित किया, जिसके द्वारा मिताक्षरा सहदायिक की पुत्री को मिताक्षरा संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में सहदायिक बनाया गया |
6. न्यायिक निर्णय
न्यायिक निर्णयों (Judicial Decisions) को भविष्य के मामलों के लिए दृष्टान्तस्वरूप (Precedent) समझा जाता है. दृष्टान्त केवल विधि का साक्ष्य ही नहीं वरन् उस ज्ञान का स्रोत है और न्यायालय इन दृष्टान्तों को मानने के लिए बाध्य होते हैं. यदि स्पष्ट रूप से कहा जाय तो विधान (Legislation) और न्यायिक निर्णय (Judicial Decisions) विधि के स्रोत नहीं हैं. उन्होंने तो केवल विशुद्ध हिन्दू विधि में परिवर्तन और संशोधन मात्र किये हैं. न्यायालयों का कार्य विधि का निर्माण नहीं है अपितु विधि की व्याख्या करना और उसको निश्चित करना भर है |