मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा, प्रकृति, उपबंध एवं महत्व

मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा क्या है?

सार्वभौम घोषणा के प्रकृति

मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा क्या है? संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनेक उपबंध मानवाधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता की विस्तृत संभावनाओं की ओर संकेत करते हैं. ये विधिगत मान्यताएं हैं जिन्हें राज्यों को मानना चाहिए.

इस संबंध में लाटरपैट ने ठीक ही कहा है, “संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसम्बर 1948 की मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा की उदघोषणा का स्वागत अत्यधिक महत्व की ऐतिहासिक घटना तथा संयुक्त राष्ट्र की महान् उपलब्धियों में से एक के रूप में किया गया है।”

चार्टर के उपबन्धों से स्पष्ट है कि चार्टर के अन्तर्गत मानवाधिकारों तथा मूल स्वतंत्रताओं को महत्व दिया गया है. इसीलिए यह स्वाभाविक था कि संयुक्त राष्ट्र इस विषय में विशेष रूप से प्रयत्नशील हो या संयुक्त राष्ट्र की महासभा, जो कि एक ऐसी संस्था है जिसमें सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व है, इस विषय में अपना योगदान दे.

सन् 1946 में महासभा ने न्यूरेम्बर्ग न्यायालय द्वारा प्रतिपादित नियमों को स्वीकृति प्रदान की. 1948 में महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा को पारित किया. यह घोषणा मानवीय अधिकारों के संबंध में व्यक्ति का एक महत्वपूर्ण विषय है. इसकी उद्देशिका में यह कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रत्येक अंग यह प्रयत्न करेगा कि घोषणा में वर्णित अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं को मान्यता प्रदान करे तथा लागू करे |

सार्वभौम घोषणा के उपबंध

मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में 30 अनुच्छेद हैं जिनमें मानवाधिकारों और मूल स्वतंत्रताओं के संबंध में विस्तृत रूप में उपबंध किए गए हैं:

  • अनुच्छेद 1 में मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों के दर्शन को स्वीकार किया गया है. इसके अनुसार, सभी मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुए हैं तथा प्रतिष्ठा एवं अधिकारों में समान हैं.
  • अनुच्छेद 2 में व्यक्ति को स्वतन्त्रताओं का अधिकारी बताया गया है.
  • अनुच्छेद 3 से 15 तक में जीवन, स्वतंत्रता, व्यक्ति की संरचना तथा विधि के समक्ष समता और संरक्षण आदि का उल्लेख किया गया है.
  • अनुच्छेद 16 द्वारा वयस्क पुरुष तथा स्त्रियों को बिना राष्ट्रत्व तथा धर्म के विभेद के विवाह करने तथा कुटुम्ब स्थापित करने के अधिकारों को प्रदान किया गया है.
  • अनुच्छेद 17 में व्यक्ति को सम्पत्ति का अधिकार दिया गया है.
  • अनुच्छेद 18 तथा 19 में धर्म, मत तथा विचारों की अभिव्यक्ति के विषय में स्वतंत्रता दी गई है.
  • अनुच्छेद 20 में व्यक्ति को सम्मेलन करने तथा संघ बनाने की स्वतन्त्रता प्राप्त है.
  • अनुच्छेद 21 में व्यक्ति को मत देने का अधिकार दिया गया है.
  • मनुष्यों के सामाजिक तथा आर्थिक अधिकारों को अनुच्छेद 22 से 26 तक में वर्णित किया गया है. इनके अनुसार, मनुष्य को व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए तथा समान कार्य के लिए समान वेतन मिलना चाहिए.
  • अनुच्छेद 27 में व्यक्ति को संस्कृति, कला, साहित्य के सम्बन्ध में स्वतन्त्रतायें प्राप्त हैं तथा अनुच्छेद 28 में व्यक्ति को सामाजिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में हकदार बनाने का उल्लेख किया गया है.
  • अनुच्छेद 29 में व्यक्तियों के समाज सम्बन्धी कर्त्तव्यों की घोषणा की गई है. इसमें इस बात की स्पष्ट कर दिया गया है कि व्यक्तियों को अपनी स्वतंत्रता तथा अधिकार का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए जिससे कि दूसरों की स्वतंत्रता और अधिकारों में हस्तक्षेप न हो.
  • अनुच्छेद 30 में निर्वाचन से संबंधित नियम को विहित किया गया है. इसके अनुसार, घोषणा के उपबंधों का निर्वचन इस प्रकार नहीं किया जाएगा जिससे कि किसी व्यक्ति या वर्ग की घोषणा में विलिखित अधिकारों को हानि पहुँचे |

घोषणा का विधिक महत्व

घोषणा का विधिक स्वरूप विवादास्पद है. विधिशास्त्रियों ने इसकी बड़ी आलोचना की है. उनका कहना है कि यह न तो सन्धि है और न ही कोई अन्तर्राष्ट्रीय समझौता है. अतः इसके उपबन्ध बन्धनकारी नहीं हैं.

न्यायमूर्ति लाटरपैट का मत है कि यह केवल घोषणा मात्र है. यह महासभा का प्रस्ताव भी नहीं होगा. लाटरपैट आगे कहते हैं कि मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा केवल व्यक्ति के अधिकारों की घोषणा करती है, परन्तु वह इस सम्बन्ध में राज्यों के कर्तव्यों का निर्धारण नहीं करती है. जब तक इस सम्बन्ध में राज्यों का कोई कर्त्तव्य या उत्तरदायित्व न हो व्यक्तियों के मानवीय अधिकारों का कोई मूल्य नहीं है. इसका सर्वप्रथम कारण यह है कि यह केवल एक घोषणा है.

महासभा के प्रस्ताव तथा घोषणा राज्यों पर बन्धनकारी नहीं होते हैं. ये केवल अनुशंसा हैं जिनको राज्य बहुधा मानते हैं. परन्तु इस घोषणा को राज्यों की सहमति से पारित किया गया है और इसके द्वारा राष्ट्र संघ के उद्देश्यों की पूर्ति होती है, अतः यह कहना कि इसका कोई मूल्य नहीं है, उचित नहीं होगा.

स्टार्क का मत है कि इस घोषणा की इस आधार पर आलोचना करना कि यह बन्धनकारी प्रभाव नहीं रखती, उचित नहीं होगा. इस घोषणा की सबसे बड़ी सफलता मानवीय अधिकारों का विस्तृत वर्णन करना है. इन अधिकारों को किसी न किसी रूप में सभी राज्य मानते हैं. वास्तव में घोषणा स्वरूप से विधिक नहीं है किन्तु इसके पीछे महान नैतिक बल है जो राष्ट्रों को अपने व्यक्तियों के मूल अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं को लागू कराने में सदा प्रेरणा देता रहेगा. यह एक ऐसी खान या स्रोत है जिसने मानवीय अधिकार के विषय में अभिसमयों तथा राष्ट्रीय संविधानों को जन्म दिया है.

घोषणा के अंगीकार किए जाने के पश्चात् के वर्षों में इसकी व्यापक स्वीकृति से कुछ लोगों का यह मत हुआ कि यद्यपि घोषणा संधि नहीं है फिर भी इसके उपबंध संबंधित विषय पर अन्तर्राष्ट्रीय प्रथा संबंधी विधि नए नियम हो गए हैं.

जहाँ तक इस घोषणा को विधि स्वरूप देने तथा लागू करने की बात है, इस विषय में यूरोपीय देशों ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है. इस सम्बन्ध में मानव अधिकारों तथा मूल स्वतंत्रताओं की रक्षा के लिए यूरोपीय अभिसमय, 1950 उल्लेखनीय है.

इस सन्धि के अनुसार, यूरोपीय देशों की परिषद् ने कमीशन तथा न्यायालय स्थापित किया है. कमीशन मानवीय अधिकारों के उल्लंघन की जाँच आदि करता है तथा न्यायालय इस विषय में अपना निर्णय देता है. मानव अधिकार घोषणा को कार्यान्वित करने की दिशा में यह एक सराहनीय कदम है. लेकिन यहां उल्लेख करना जरूरी है कि उपर्युक्त यूरोपीय सन्धि में मानवीय अधिकारों का मामला न्यायालय से सम्बन्धित राज्य की सम्मति के बिना नहीं जा सकता है.

मार्च, 1968 में माष्ट्रिय (Montreal) में मानव अधिकारों की अनौपचारिक सभा में यह मत प्रकट किया गया कि मानवीय अधिकारों की सार्वभौम घोषणा चार्टर का अधिकृत निर्वाचन है तथा कालान्तर में यह प्रथा सम्बंधित अन्तर्राष्ट्रीय घोषणा में उक्त मत की पुष्टि की गई है. दिसम्बर 1968 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने भी तेहरान घोषणा की पुष्टि कर दी. सार्वभौमिक घोषणा के सिद्धान्तों के आधार पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों पर 50 से अधिक विधिक अभिलेख अपनाये हैं.

अनेक वादों में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के प्रावधानों को सन्दर्भित किया है; उदाहरणार्थ कोलम्बिया बनाम पेरू 1950, एंग्लो-ईरानियन तेल कंपनी वाद 1955 एवं नाटेबाम वाद इत्यादि महत्वपूर्ण हैं.

अतः निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि 1948 में चाहे जो स्थिति रही हो किन्तु अब मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा ने विधिक रूप ग्रहण कर लिया है तथा वह चार्टर अधिकृत निर्वचन तथा प्रसार होने के फलस्वरूप सदस्य राज्यों पर उसी प्रकार बन्धनकारी है जिस प्रकार चार्टर उन पर बन्धनकारी है |

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