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न्यूनतम मजदूरी अधिनियम
श्रमिक वर्ग का किसी देश के आर्थिक विकास में सर्वाधिक योगदान होता है इसलिए सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में उन्हें महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए. औद्योगिक विकास के वर्तमान युग में यदि श्रमिक वर्ग असंतुष्ट है उसे उचित मजदूरी नहीं दी जाती उसका शोषण किया जाता है तो इसे औद्योगिक विकास का युग कहना गलत होगा.
भारत में बहुत से ऐसे उद्योग जिनमें श्रमिकों को आज भी बहुत कम मजदूरी मिली जिससे वह अपने परिवार का भी उदर पूर्ति नहीं कर पाता है. इसीलिए औद्योगिक जगत में शोषण मुक्त समाज की संरचना करने हेतु स्वतन्त्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद एक अधिनियम, 1948 में पारित किया गया जिसे न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 कहते हैं जिसका मुख्य लक्ष्य श्रमिक वर्ग का जीवन स्तर ऊंचा उठाना और श्रमिक के कल्याण को सुरक्षित करना है |
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न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के उद्देश्य
इस अधिनियम का प्रमुख उद्देश्य मजदूरों की दयनीय दशा में समुचित सुधार लाना, न्यूनतम मजदूरी प्रदान करने की सुरक्षा प्रदान करना तथा उन्हें अपनी कार्यक्षमता कायम रखने का अनुकूल अवसर देना है. इस अधिनियम के पारित हो जाने से कोई भी नियोजक किसी कर्मकार से वैयक्तिक संविदा, न्यूनतम मजदूरी देने के लिए बाध्य और मनमाने ढंग से उसका शोषण नहीं कर सकता है. इसका उद्देश्य पूँजीपतियों, मिल मालिकों आदि से कम संगठित, कम सुविधा प्राप्त समाज से कमजोर वर्ग के लोगों को शोषण से बचाना है |
न्यूनतम मजदूरी के नियत करने का दो मुख्य उद्देश्य है-
- व्यक्ति अपना और अपने परिवार के सदस्यों का भरण-पोषण करने में समर्थ हो.
- वह अपनी कार्य क्षमता बनाये रख सके.
अतः इस अधिनियम का प्रयोजन कतिपय नियोजनों में मजदूरियों की न्यूनतम दरों को नियत करने के द्वारा कर्मकारों के कल्याण को सुरक्षित करना है. इस अधिनियम के विधेयक में उसके उद्देश्यों को निम्न शब्दों में उल्लेख किया गया “न्यूनतम मजदूरियों को निर्धारित करने का संवैधानिक औचित्य अपने-आप में स्पष्ट हैं जो उपबन्ध अन्य प्रगतिशील देशों में किये जा चुके हैं, आज भारत में भी उनकी आवश्यकता है. इसका कारण यह है कि अभी भारत में कर्मकारों के संघों का विकास बहुत कम हो पाया है और कर्मकारों की सौदेबाजी की शक्ति भी बहुत कमजोर है.”
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H.D. सिंह बनाम भारतीय रिजर्व बैंक के विनिश्चय में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिकथन प्रस्तुत किया है कि असहाय स्थिति और भयंकर दरिद्रता के कारण ही श्रमिक वर्ग कम से कम मजदूरी पर काम करना स्वीकार कर लेते हैं. न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 का मुख्य उद्देश्य नियोजकों को बाध्य करना है कि वे इस दयनीय स्थिति का अपने पक्ष में लाभ अर्जित न करें. अत: न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण अपरिहार्य है |
मजदूरी के प्रकार
- न्यूनतम मजदूरी
- उचित मजदूरी
- जीवन-निर्वाह मजदूरी
1. न्यूनतम मजदूरी
न्यूनतम मजदूरी का यह स्तर है जिसके नीचे की मजदूरी किसी श्रमिक को नहीं दी जा सकती है. 1948 की वेतन समिति ने न्यूनतम मजदूरी की परिभाषा प्रस्तुत की है-
यह मजदूरी का निम्नतर स्तर है जिससे एक श्रमिक अपना जीवन स्तर न्यूनतम सीमा पर बनाये रख सकता है. “न्यूनतम मजदूरी से अमिक न केवल जीवन की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता बल्कि शिक्षा, चिकित्सा आदि आवश्यकताओं एवं सुविधाओं की भी पूर्ति कर सकता है जिससे श्रमिक की कुशलता को बनाये रखा जा सके.” दूसरे शब्दों में न्यूनतम मजदूरी से श्रमिक की कुशलता बढ़ायी नहीं जा सकती है और न ही इससे कमी हो सकती है.
हाइड्रो इन्जीनियर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम उसके कर्मकार (AIR 1969 S.C. 182) के मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि न्यूनतम मजदूरी की दरों से केवल कर्मकारों की भौतिक आवश्यकताओं की ही पूर्ति नहीं होनी चाहिए बल्कि उससे श्रमिक और उसके परिवार का भरण-पोषण भी किया जाना चाहिए |
2. उचित मजदूरी
उचित वेतन समिति 1949 के अनुसार यह मजदूरी न्यूनतम तथा जीवन निर्वाह मजदूरी के बीच का होता है तथा उच्चतम सीमा जीवन निर्वाह मजदूरी से की जाती है. जीवन निर्वाह मजदूरी तथा न्यूनतम मजदूरी की तरह उचित मजदूरी की प्रवृत्ति की आर्थिक विकास की दर के साथ ऊंची-नीची भी हो सकती है.
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परंतु इसकी सीमाएं न्यूनतम तथा जीवन निर्वाह मजदूरी इसके अतिरिक्त अन्य तत्व भी ऐसे है जिनपर उचित मजदूरी निर्भर करती है-
- श्रम की उत्पादकता
- मजदूरी की प्रचलित दर है.
- राष्ट्रीय आय का स्तरीय इसका वितरण
- उद्योग का राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में स्थान
शिव फाइन आर्ट्स बनाम राज्य औद्योगिक न्यायालय 1978 के मामलें में सुप्रीम कोर्ट ने उस उचित मजदूरी के संबंध में कहाँ है कि उचित मजदूरी जीवन-निर्वाह मजदूरी तथा न्यूनतम मजदूरी के बीच की मजदूरी है. मजदूरी उचित होनी चाहिए पर्याप्त रूप इतनी होनी चाहिए कि जीवन के लिए भोजन, आवास, वस्त्र, चिकित्सा तथा बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था कर सके |
3. जीवन-निर्वाह मजदूरी
जीवन-निर्वाह मजदूरी सबसे उच्च मजदूरी स्तर को प्रदर्शित करता है. यह उचित मजदूरी से भी अधिक होता है. यह एक प्रकार से मजदूरी की उच्चतम सीमा है. जब देश की अर्थव्यवस्था पर्याप्त मात्रा में विकसित हो जाय तथा नियोजक भी श्रमिक की बढ़ती आकांक्षाओं को पूरा करने योग्य हो तब श्रमिक को इतनी मजदूरी प्रदान की जाती है. जिससे कि एक सभ्य समाज एक शब्द नागरिक की भाॅति जीवन यापन कर सके. यह जीवन को सुखमय व्यतीत करने हेतु समाधान प्रदान करती है.
अर्थात जीवन-निर्वाह मजदूरी वह मजदूरी है जो कर्मकार को भोजन, वस्त्र, आवास, आरामदेह स्थित उसके श्रम और कला को गरिमामय स्थान प्रदान करती है |