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मध्यस्थता या माध्यस्थम् का अर्थ
माध्यस्थम्/मध्यस्थता का शाब्दिक अर्थ पक्षकारों के पारस्परिक समझ और समझौते से विवादों या मतभेदों का समाधान है जिसमें पक्षकारों के अधिकारों और दायित्वों को न्यायिक दृष्टिकोण से निर्धारित किया जाता है और यह पक्षकारों पर बाध्यकारी होता है और जो पक्षकार स्वयं करते हैं एक मध्यस्थता न्यायाधिकरण की स्थापना करके करते हों |
माध्यस्थम् की परिभाषा?
रसेल के अनुसार माध्यस्थम का सार तत्व यह है कि इसके अन्तर्गत विवादग्रस्त पक्षकारों द्वारा अपने विवादित मामले के निपटारे हेतु मध्यस्थ या मध्यस्थों, जिन्हें माध्यस्थ अधिकरण कहा जाता है, को निर्देशित किये जाते हैं और इस माध्यस्थम अधिकरण का चुनाव न्यायालय की बजाय पक्षकारों द्वारा स्वयं किया जाता है.
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माध्यस्थम्/मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 2 (1) (क) में माध्यस्थम् को परिभाषित (Definition of Arbitration) किया गया है. इसके अनुसार ‘माध्यस्थम्’ से अभिप्रेत है कोई भी माध्यस्थम् चाहे स्थायी माध्यस्थम् संस्था द्वारा प्रशासित किया जाये या न किया जाये।
इस परिभाषा में वे माध्यस्थम् सम्मिलित हैं जो व्यक्तिगत पक्षकारों के स्वैच्छिक करार पर आधारित हों या विधि के प्रावधानों के फलस्वरूप अस्तित्व में आये हैं. यह धारा माध्यस्थम् को परिभाषित नहीं करती है बल्कि सिर्फ यह उल्लेख करती है. कि माध्यस्थम् में कौन से माध्यस्थम् सम्मिलित हैं.
अमरचंद बनाम अंबिका जूट मिल्स (AIR 1966 SC 1036) के वाद में ‘माध्यस्थम्’ का अर्थान्वयन करते हुए कहा है कि यह पक्षकारों या व्यक्तियों के समूहों के मध्य उद्भूत विषादों को ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा निर्मात किये जाने की प्रक्रिया है जिसका विवाद से कोई संबंध न हो और जिनका निर्णय उभय पक्षों को स्वीकार्य हो.
इस प्रकार माध्यस्थम् हेतु माध्यस्थों की नियुक्ति स्वयं या आपसी सहमति से करते हैं जो उनके मतभेदों अथवा विवादों को निपटाते हैं. आवश्यकता पड़ने पर माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 (6) न्यायालय द्वारा भी माध्यस्थम की नियुक्ति की जाती है. अतः इसमें संदेह नहीं कि पक्षकारों के मध्य उद्भूत हुए या उद्भूत होने वाले विवादों या मतभेदों को सुलझाने हेतु न्यायालयीन मुकदमेबाजी के विकल्प के रूप में माध्यस्थम् एक प्रभावी साधन है |
माध्यस्थम् के प्रकार?
माध्यस्थम्/मध्यस्थता प्रायः चार प्रकार के होते हैं-
- तदर्थ माध्यस्थम्
- संविदात्मक माध्यस्थम्
- संस्थागत माध्यस्वम्
- सांविधिक माध्यस्यम्
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1. तदर्थं माध्यस्थम्
इस प्रकार के माध्यस्थम् का प्रयोग उस समय किया जाता है जब कोई विवाद कारोबार से संबंधित संव्यवहार से उत्पन्न होता है जिसे पक्षकार आपसी बातचीत या सुलह द्वारा नहीं सुलझा सकते हैं. तदर्थ माध्यस्थम (Ad hoc Arbitration) किसी निश्चित एक विवाद के लिए ही प्रयुक्त किया जाता है.
2. संविदात्मक माध्यस्थम्
वर्तमान में निरंतर बढ़ते हुए व्यापार तथा औद्योगिक कारोबार और आर्थिक प्रगति के परिणामस्वरूप वाणिज्यिक संव्यवहारों में अत्यधिक वृद्धि हुई है, अतः इन कार्यों में रत पक्षकारों में आपसी मनमुटाव या विवाद उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है. इन विवादों को शीघ्र निपटाने के उद्देश्य से पक्षकार बहुधा अपनी वाणिज्यिक संविदाओं में एक माध्यस्थम् उप-वाक्य (Arbitration Clause) अवश्य डाल देते हैं ताकि उनके विद्यमान या भावी विवाद न्यायालय की शरण लिए बिना उनके द्वारा नियुक्त मध्यस्थों की मध्यस्थता से निपटा लिए जा सकें। इस प्रकार के माध्यस्थम् को संविदात्मक माध्यस्थम् (Contractual Arbitration) कहा जाता है.
3. संस्थागत माध्यस्थम्
जब पक्षकार अग्रिम रूप से इस बात की सहमति व्यक्त करते हैं कि उनके बीच व्यापारिक या वाणिज्यिक कारोबार में उत्पन्न होने वाले मनमुटावों को निपटाने के लिए वे किसी ऐसी नामित माध्यस्थम् संस्था को निर्देशित करेंगे, तो ऐसे माध्यस्थम् को संस्थागत माध्यस्थम् (Institutional Arbitration) कहा जाएगा।
इन माध्यस्थम् संस्थाओं के अपने स्वयं के प्रकाशित नियम होते हैं तथा ये पक्षकारों की सहमति से अपने विशेषज्ञों की पेनल में से मध्यस्थ या मध्यस्थों की नियुक्ति करती हैं, जो संबंधित व्यवसाय में विशिष्ट ज्ञान रखते हैं.
4. सांविधिक माध्यस्थम्
कुछ ऐसे क्षेत्र होते हैं जिनमें देश की स्थानीय विधि के अधीन पक्षकारों पर माध्यस्थम् सांविधिक रूप से अधिरोपित (Impose) किया जाता है और उन्हें माध्यस्थम् के निर्णय का अनुपालन करना अनिवार्य होता है. सांविधिक माध्यस्थम् में ऊपर वर्णित तीन प्रकार का प्रश्न नहीं उठता जबकि तदर्थ माध्यस्थम्, संविदात्मक माध्यस्थम् तथा संस्थागत माध्यस्थम् पक्षकारों की सहमति पर आधारित होते हैं. दूसरे सांविधिक माध्यस्थम् पक्षकारों के लिए अन्य किसी विधि की भाँति अनिवार्य एवं बन्धनकारी होता है जबकि अन्य प्रकार के माध्यस्थमों का स्वरूप स्वैच्छिक (Voluntary) होता है |
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माध्यस्थम्/मध्यस्थता एवं सुलह के बीच अंतर
- मध्यस्थता और सुलह क्या है? माध्यस्थम् (Arbitration) में पक्षकारों के बीच अपना विवाद निबटाने के लिये पहले से ही माध्यस्थम् करार होना चाहिये, जबकि सुलह (Conciliation) में इस प्रकार के करार की आवश्यकता नहीं होती है इसमें एक पक्ष दूसरे पक्ष को सुलह हेतु आमन्त्रण देता है तथा दूसरे पक्ष के पास उसे स्वीकार करने या न करने का विकल्प रहता है.
- माध्यस्थम् कार्यवाही में मध्यस्थ माध्यस्थम् कार्यवाही को पूर्ण रूप से संचालित करता है तथा अपना निर्णय देता है, जबकि माध्यस्थम् कार्यवाही में पक्षकारों के बीच गोपनीयता नहीं रहती है.
- पंचाट का प्रयोग न्यायिक कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में किया जा सकता है, जबकि सुलहकर्त्ता का मुख्य कार्य यह होता है कि वह पक्षकारों की आपसी सहमति से कोई निष्कर्ष निकाले.
- सुलह में पक्षकार सुलहकर्ता से यह अपेक्षा कर सकता है कि वह मामले में दी गई जानकारी दूसरे पक्ष को न बताये, जबकि सुलह कार्यवाही का प्रयोग साक्ष्य के रूप में नहीं किया जा सकता है. माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम की धारा 53 यह भी उपबन्धित करती है कि जिस देश को पंचाट बनाया गया है यदि उस देश में उसकी वैधता की कार्यवाही लम्बित है तब यह लागू नहीं होगा |