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न्यायालय का अवमानना
न्यायालय की अपनी गरिमा होती है. न्यायालय का वातावरण अत्यंत शांत व गम्भीर होता है. मामलों की सुनवाई के समय पक्षकारों से, अधिवक्ताओं से और अन्य सभी व्यक्तियों से शांति और शालीनता बनाये रखने की अपेक्षा की जाती है. किसी भी व्यक्ति को न्यायालय के कार्य में हस्तक्षेप करने अथवा बाधा या विघ्न डालने की अनुमति नहीं दी जा सकती. यदि कोई व्यक्ति चाहे वह अधिवक्ता ही क्यों न हो, ऐसा कार्य करता है जिससे न्यायालय के कार्य में बाधा अथवा व्यवधान उत्पन्न हो, तो ऐसे व्यक्ति को न्यायालय के अवमानना (Contempt of Court) के लिये दण्डित किया जा सकता है.
न्यायालय के अवमानना के सम्बन्ध में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 228 के अन्तर्गत समुचित व्यवस्था की गई है. इसके अनुसार “जो कोई किसी लोक सेवक का उस समय, जबकि ऐसा लोक सेवक न्यायिक फार्यवाही के किसी प्रक्रम में बैठा हुआ हो, साशय कोई अपमान करेगा या उसके कार्य में कोई विघ्न डालेगा, यह सादा कारावास से, जिसकी अवधि 6 माह तक की हो सकेगी, या जुमनि से, जो एक हजार रुपये तक का हो सकेगा, या दोनों से, दण्डित किया जायेगा.”
इस प्रकार न्यायालय के अवमानना का अर्थ किसी व्यक्ति के ऐसे कार्य से लगाया जाता है जिसके कारण न्यायालय के कार्य में बाधा आती है तथा ऐसा कार्य उस व्यक्ति द्वारा जानबूझकर किया गया हो.
अवमानना अधिनियम की धारा 21 के अनुसार, न्यायालय के अवमानना से तात्पर्य सिविल तथा आपराधिक अवमानना से अभिप्रेत है.
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अधिनियम द्वारा न्यायालय के अवमानना को परिभाषित नहीं किया गया है, बल्कि यह बताया गया है कि अवमानना कितने प्रकार का होता है-
सिविल अवमानना
सिविल अवमानना (Civil Contempt) से अभिप्राय है; धारा 2 (b) के अनुसार न्यायालय की डिक्री, निर्णय, आदेश, निर्देश, रिट या अन्य कार्यवाही की जाबूझकर अवज्ञा करना या न्यायालय को दिये हुए किसी वचन को जानबूझकर तोड़ना.
आपराधिक अवमानना
आपराधिक अवमानना (Criminal Contempt) से अभिप्राय है; ऐसे कोई कार्य करना अथवा प्रकाशन करना जो न्यायालय की निन्दा करते हों या ऐसी प्रवृत्ति वाले हों या उसके प्राधिकार को कम करते हों या ऐसी प्रवृत्ति के हों या न्यायालय पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले हों या न्यायिक कार्यवाहियों में बाधा डालने वाले हों या ऐसी प्रवृत्ति वाले हों.
धारा 2 (c) के अनुसार, “आपराधिक अवमानना” से किसी भी ऐसी बात का (चाहे वह बोले गए या वह लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या रूपणों द्वारा या) प्रकाशन अथवा किसी अन्य ऐसे कार्य को करना अभिप्रेत है-
- जो किसी न्यायालय को कलंकित करता है अथवा जिसकी प्रवृत्ति कलंकित करने की है अथवा जो उसके प्राधिकार को घटाता है अथवा जिसकी प्रवृत्ति उसे घटाने की है, अथवा
- जो किसी न्यायिक कार्यवाही के सम्यक अनुक्रम पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है अथवा उसमें हस्तक्षेप करता है या जिसको प्रवृत्ति उसमें हस्तक्षेप करने की है, अथवा
- जो न्याय प्रशासन में किसी अन्य रीति से हस्तक्षेप करता है या जिसकी प्रवृत्ति उसमें हस्तक्षेप करने को है अथवा जो उसमें बाधा डालता है या जिसकी प्रवृत्ति उसमें बाधा डालने को है.
इन री S. K. सुन्दरम [(2001) 2 SCC 171) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि न्यायालय के अवमानना का क्षेत्राधिकार, न्याय प्रशासन को किसी भी निन्दा से बचाना है न कि किसी व्यक्तिगत न्यायाधीश को. इसलिये अवमाननाकर्ता न्यायालय द्वारा स्वप्रेरणा (Suo Moto) से उठाये गये कदम पर इसलिए आक्षेप नहीं कर सकता है कि जिस न्यायाधीश पर अवमाननाकर्चा ने निन्दा प्रहार किया है उसने अवमानकर्ता के विरुद्ध याचिका प्रस्तुत नहीं की है. इसलिये मेामला विचार योग्य नहीं है.
इसी मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि दाण्डिक अवमानना में टेलीग्राम का भेजा जाना एक प्रकार प्रकाशन नहीं है, भले ही पोस्टल स्टाफ द्वारा भेजने तथा प्रदान करने के समय पढ़ लिया गया हो.
निम्नलिखित कार्य न्यायिक अवमानना की श्रेणी में नहीं आते हैं-
- सद्भावनापूर्ण प्रकाशन.
- न्यायिक कार्यों को रिपोर्ट का सही एवं उचित प्रकाशन.
- न्यायिक कार्यों की उचित आलोचना.
- अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीशों के विरुद्ध की गई सद्भावनापूर्ण शिकायत आदि |