संविधान में शक्तियों का पृथक्करण
इस सिद्धान्त के अनुसार सरकार की तीनों शक्तियां कार्यपालिका, विधायिका और न्याय-पालिका एक ही अंग में निहित नहीं होना चाहिए वरन् अलग-अलग होना चाहिए. शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त 18वीं सदी में एक फांसीसी दार्शनिक मान्टेस्क्यू द्वारा प्रतिपादित किया गया था. उसका यह मत था कि यदि सरकार की शक्तियां किसी एक व्यक्ति या निकाय में निहित होंगी तो बहु निरंकुश हो जायेगा. शक्ति मनुष्य को भ्रष्ट कर सकती है और निरपेक्ष रूप में उसे बिल्कुल भ्रष्ट कर देती है. इसीलिए उसने यह कहा कि सरकार के तीनों अंग एक-दूसरे से पृथक् हों और कोई भी व्यक्ति एक से अधिक अंगों का सदस्य न हो.
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत इस बात में निहित है कि राज्य के तीनों शक्तियों का विकेंद्रीकरण होना चाहिए जिससे मानवीकरणों एवं सतत की रक्षा की जा सकें. राज्य के तीनों अंगों को अपने-अपने कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप ना कर अलग-अलग कार्य करना चाहिए.
विधिवेत्ता वेड और फिलिप्स ने शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत के तीन अर्थ निरूपित किए हैं-
- व्यक्तियों का एक ही समूह सरकार के तीन अंगों में से एक से अधिक अंगों का निर्माण ना करें। उदाहरण- मंत्रीगण संसद में न बैठें.
- सरकार का एक अंग दूसरे अंग के कार्यों में हस्तक्षेप न करें.
- सरकार का एक अंग दूसरे अंग अंग के कार्यों का निर्वहन न करें.
इसी प्रकार शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत संरचनात्मक और कृत्यिक पार्थक्य पर बल देता है.
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अमेरिका का संविधान इसी सिद्धान्त पर आधारित है. वहाँ सरकार की शक्तियाँ अलग-अलग अंगों में निहित हैं. कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है. उसे विधायिका और न्यायपालिका की कोई शक्ति प्राप्त नहीं है. राष्ट्रपति और उसके मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधानमण्डल के सदस्य नहीं होते हैं. विधायी शक्ति कांग्रेस में निहित है और व्यायपालिका शक्ति अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में निहित है. किन्तु तीनों अंगों द्वारा उनकी शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था भी की गई है.
इंग्लैंड में यह सिद्धान्त लागू नहीं होता है. वहाँ मन्त्रिमण्डल के सदस्य कार्यपालिका और विधानमण्डल दोनों के सदस्य होते हैं. ब्रिटिश संसद् का ऊपरी सदन हाउस ऑफ लार्डस न्यायिक शक्ति का प्रयोग भी करता है और वह इंग्लैंड का सर्वोच्च न्यायालय भी है. लार्ड चान्सलर न्यायपालिका का प्रधान होता है और साथ ही वह कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल का सदस्य होता है.
भारतीय संविधान में इंग्लैंड के संविधान की भाँति ही शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त कठोरता से लागू नहीं होता है. भारत में कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधान-मण्डल के भी सदस्य होते हैं. मन्त्रिमण्डल का सदस्य होने के लिए विधानमण्डल का सदस्य होना आवश्यक होता है. राष्ट्रपति को अनुच्छेद 72 के अधीन क्षमादान की शक्ति प्राप्त है जो एक न्यायिक कार्य है. राष्ट्रपति अनुच्छेद 132 के अधीन अध्यादेश जारी करके कानून बना सकता है जो विधायिका की शक्ति है. संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका और विधायिका का अलग-अलग होना सम्भव नहीं है.
यद्यपि शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त को भारतीय संविधान में कठोरता से लागू नहीं किया गया है किन्तु इस बात का पर्याप्त ध्यान रखा गया है कि सरकार का कोई भी अंग निरंकुश न हो जाये. इसीलिए संविधान में रोकथाम की व्यवस्था की गई है. इसी उद्देश्य से कार्यपालिका को लोक सभा के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है और विधायिका तथा कार्यपालिका के मनमानीपूर्ण कार्यों के विरुद्ध न्यायपालिका को यह शक्ति दी गई है कि उनके संविधान विरुद्ध-कार्यों को अविधिमान्य घोषित करके उन्हें अपनी सीमा में कार्य करने के लिए बाध्य करें |