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उपभोक्ता को शोषण से बचाने के लिए समय-समय पर विभिन्न अधिनियम पारित होते रहे हैं. लेकिन वे उपभोक्ता के लिए अधिक मददगार साबित नहीं हुए. इसी कारण सन् 1986 में उपभोक्ता के हितों को ध्यान में रखते हुए और उसे संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम को पारित किया गया |
1. अधिनियम के उद्देश्य
यह अधिनियम उपभोक्ता के हितों को संरक्षित करने के उद्देश्य से बनाया गया है. उपभोक्ता के अधिकारों को प्रवर्तनीय बनाना तथा उन्हें संरक्षण देना इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य है. इस अधिनियम की प्रस्तावना के अनुसार, उपभोक्ताओं के हितों के सर्वोत्तम संरक्षण के लिए और उस प्रयोजन के लिए उपभोक्ता विवादों तथा उससे सम्बन्धित मामलों के निपटारे के लिए उपभोक्ता परिषदों तथा अन्य प्राधिकरणों की स्थापना के लिए उपबन्ध करने के लिए यह अधिनियम अधिनियमित किया गया है.
लखनऊ विकास प्राधिकरण बनाम M.K. गुप्ता (AIR 1994 SC 787) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अवधारित किया है कि (प्रस्तावना का) शब्द संरक्षण अधिनियम के निर्माताओं के मस्तिष्क की कुंजी है. अधिनियम में दी गई विभिन्न परिभाषायें और उपबन्ध, जो इस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करते है उनका निर्वाचन इस आलोक में सुनिश्चित दृष्टिकोण से विचलित हुये बिना किया जाना चाहिए कि प्रस्तावना अन्यथा स्पष्ट अर्थ को नियंत्रित नहीं कर सकती. “वास्तव में यह विधि काफी दिनों से महसूस की गयी जनता की आवश्यकता को पूरी करती है.” इस अधिनियम के द्वारा-
- माल या सेवाओं की क्वालिटी, मात्रा तथा मूल्य के बारे में संरक्षण,
- अनुचित व्यापार व्यवहार या उपभोक्ता के अनैतिक शोषण के विरुद्ध प्रतिकर दिलाना.
- उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार, को प्राप्त करने का उद्देश्य निर्धारित किया गया.
1993 में इस अधिनियम में संशोधन द्वारा उपभोक्ता को श्रेष्ठ संरक्षण प्रदान करने का उद्देश्य बनाया गया है.
C. बेन्कटचलम बनाम अजीत कुमार C. शाह एवं अन्य, [(2011) 4 SCC (सिविल)] के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 का इस उद्देश्य एवं आशय से उपभोक्ता विवादों को शीघ्रता से युक्तियुक्त लागत पर निपटाना है जो अन्यथा साधारण न्यायिक/न्यायालय प्रणाली से संभव नहीं है.
नेशनल सीड कॉरपोरेशन लिमिटेड बनाम मधुसूदन रेड्डी (AIR 2012 SC 1160) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 का मुख्य उद्देश्य उपभोक्ता के हितों की रक्षा करना है.
2. उपबन्ध का अर्थ
उच्चतम न्यायालय ने लखनऊ डेवलपमेन्ट अथोरिटी बनाम M.K. गुप्ता (1994 SCC 2431) के मामले में अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम के उपबन्धों का अर्थ उपभोक्ता के पक्ष में निकाला जाये.
अधिनियम ने प्रयुक्त शब्दों को विस्तार से परिभाषित किया है जो कि अधिकांशतया उपभोक्ता के हित में है.
3. अधिनियम प्रभाव
यह अधिनियम ऐसी वस्तुओं तथा सेवाओं पर लागू नहीं होती है जो कि इस अधिनियम के प्रभाव में आने के पूर्व कुछ की गई थी. या भाड़े पर ली गई थी.
4. अधिनियम के तहत अनुतोष
किसी भी उपभोक्ता को संरक्षण देने के लिए उसके अधिकारों को प्रदान कराने के लिए अधिनियम में जिला फोरम, राज्य आयोग तथा राष्ट्रीय आयोग को निर्मित किया गया है. इन आयोगों तथा फोरम में करने की प्रक्रिया को भी सरल बनाया गया है जिससे कि कोई उपभोक्ता स्वयं ही उसका प्रयोग कर अपने अधिकारों को प्रवर्तित करा सकता है.
इस अधिनियम के द्वारा पीड़ित उपभोक्ता को प्रतिकर दिलाने की व्यवस्था भी की गई है.
5. दण्ड
इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत ढंग करने के उद्देश्य से किये गये परिवादों पर दण्ड आरोपित करने के लिए न्यायको अधिकृत किया गया है.
6. परिसीमा
अधिनियम के परिवाद प्रस्तुत करने के लिए दो वर्ष की अवधि की परिसीमा रखी है जो कि पर्याप्त है.
7. प्रयोज्यता
यह अधिनियम बिहार विद्यालय परीक्षा बोर्ड पर लागू नहीं होता है. यह अधिनियम को परिधि से बाहर है. बोर्ड अथवा विश्वविद्यालय के कर्त्तव्यों की प्रकृति इस अधिनियम के अन्तर्गत ‘सेवा’ की परिधि में आती है.
नेशनल सीड कॉरपोरेशन लिमिटेड बनाम मधुसूदन रेड्डी (AIR 2012 SC 1760) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-
राष्ट्रीय बीज निगम से बीज क्रय करने वाला व्यक्ति उपभोक्ता है. यदि ऐसे बीज खराब निकल जाते हैं तो उसके विरुद्ध उपभोक्ता मंच में परिवाद लाया जा सकता है, चाहे बीज अधिनियम ही क्यों न बना हुआ हो. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का मुख्य उद्देश्य उपभोक्ता के हितों की रक्षा करना है, अतः ऐसे मामलों पर यह अधिनियम लागू होता है.
उपरोक्त से स्पष्ट होता है कि यह अधिनियम उपभोक्ता के हितों का बेहतर संरक्षण एवं विवादों का शीघ्र निराकरण करने में सक्षम है.
उपभोक्ता संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, द्वारा इस अधिनियम को और अधिक उपयोगी बनाया गया है |