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मानसिक आघात
विधि इतिहास के प्रारम्भिक काल में केवल ऐसी शारीरिक क्षति के लिए ही क्षतिपूर्ति का दावा किया जा सकता था जो चोट लगने से हो. मानसिक आघात के कारण हुई क्षति की पूर्ति के लिए बाद नहीं चलाया जा सकता था. स्पष्ट रूप से यह नियम अन्यायपूर्ण था, परन्तु इसे बदलने के लिये न्यायालय तैयार नहीं थे.
यह भय रहता था कि इससे जाली दावे होंगे और समाज में उपयोगी सेवाओं पर अधिक भार पड़ेगा. परन्तु चिकित्सा विज्ञान में उन्नति के साथ-साथ उपर्युक्त कठिनाई हल होने लगी और न्यायालयों का दृष्टिकोण भी बदला. आज मानसिक आघात से हुई क्षति के बहुत मामले न्यायालय में आते हैं और न्यायालय क्षतिपूर्ति के आदेश देते हैं.
मानसिक आघात से तात्पर्य भावात्मक संक्षोभ अथवा मानसिक सदमे से है. जब कि व्यक्ति की असावधानी अथवा अपकृत्य से किसी अन्य व्यक्ति को मानसिक संक्षोभ होता है. जिसमें उसकी मानसिक भावनाओं को ठेस पहुँचती है अथवा शरीर को अन्य प्रकार की पीड़ा पहुँचती है तो उसे मानसिक आघात कहते हैं.
साशय मानसिक आघात
जहां तक मानसिक आघात का प्रश्न है न्यायालय ने बहुत पहले विल्किंसन बनाम डाउण्टन (1897) में यह निर्णय दिया कि जब कोई व्यक्ति जानबूझकर स्वेच्छा से ऐसा कार्य करता है जिससे मानसिक कष्ट से शारीरि क्षति होती है तो वह व्यक्ति जिसे क्षति होती है, नुकसानी पाने का हकदार होगा. इस केस प्रतिवादी ने मजाक में वादी को बता दिया कि तुम्हारे पति दुर्घटनाग्रस्त हो गये हैं और उन टांगे टूट गई हैं. वादी ने इस बात पर विश्वास कर लिया और गंभीर रूप से बीमार पड़ गई. प्रतिवादी को नुकसानी देने के लिये जिम्मेदार ठहराया गया.
उपेक्षा द्वारा मानसिक आघात
ऐसे मामलों में जहां मानसिक आघात किसी उपेक्षापूर्ण कार्य द्वारा होता था, न्यायालय उपचार देने को 20वाँ शताब्दी के पहले तैयार नहीं थे.
विक्टोरियन रेलवे कमिश्नर बनाम काउल्टस (1888) में रेलवे क्रासिंग पर गेट खुला होने के कारण वादी की गाड़ी सुरक्षित पास हो गई फिर भी वादी इतनी भयभीत हो गई कि मानसिक आघात के कारण बीमार पड़ गई और उसकी आँखों की ज्योति तथा स्मरण शक्ति कम हो गई. न्यायालय ने निर्णय किया कि वादी को कोई नुकसानी नहीं मिल सकती.
इस विषय पर लिन्थ बनाम नाइट (1861) एवं विक्टोरियन रेलवे कमिश्नर बनाम कोल्स (1888) दो प्रसिद्ध प्राचीन बाद हैं. इन वादों में यह निर्णीत किया गया था कि मानसिक आघात के रूप में केवल मानसिक संक्षोभ अथवा मामूली चोट अभियोज्य नहीं होती. कोई भी मानसिक सदमा अथवा संक्षोभ जब तक शारीरिक क्षति अथवा बीमारी का कारण नहीं बनता, उसके लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. इसके पीछे यह कारण बताया जाता था कि मानसिक आघात जब किसी बीमारी का कारण बन जाता है तो विधि उसे पर्याप्त उपचार प्रदान करती है परन्तु अब यह सिद्धान्त उपयुक्त नहीं माना जाता है.
डूप्ले बनाम केमल लेयर्ड कंपनी (1951) के मामले में प्रतिवादी की असावधानी से क्रेन की रस्सी टूट गयी, जिससे क्रेन का सम्पूर्ण बोझ जलयान के होल्ड से गिरा, जहां बहुत सारे श्रमिक कार्यरत थे. वादी जो क्रेन का ड्राइवर था एक सुरक्षित जगह में बैठा यह सब देख रहा था. सुरक्षित जगह पर होते हुए भी इतने श्रमिकों को खतरे में फँसा देखकर वह घबरा गया और मानसिक आघात का शिकार हो गया. न्यायालय ने वादी को क्षतिपूर्ति के लिये हकदार माना.
ओवेन बनाम लिवरपूल कारपोरेशन (1807) वादी के नौकर ने इतनी असावधानी से ट्राम चलायी कि वह सड़क पर जा रही शव यात्रा के शववाहन से टकरा गई. शवगाड़ी नष्ट हो गई और शव उलट-पुलट गया जिससे मृतक के सम्बन्धी विक्षुब्ध हो उठे और मानसिक आघात के शिकार हो गये. न्यायालय का मत था कि मृतक के सम्बन्धी क्षतिपूर्ति पाने के अधिकारी हैं.
ML सिंहल बनाम डॉ. प्रदीप माथुर (AIR 1996) के वाद न्यायालय ने वादी को, अपनी पत्नी की अस्पताल में समुचित सेवा न होने एवं कैथेटर में होने के कारण मानसिक परेशानी उत्पन्न हुई, जिसके कारण, प्रतिकर दिलाया |