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सुलह क्या है?
सुलह किसे कहते हैं? जहां पक्षकार बिना किसी पूर्व करार के अपने विवाद को किसी तीसरे व्यक्ति की सहायता से हल कराकर उसके हल या निदान को स्वीकारते हैं तब वह प्रक्रिया सुलह कहलाती है. यह प्रक्रिया माध्यस्थम् से भिन्न है. इसमें सुलहकर्ता पक्षकारों के बीच हुए सुलह की अधिमान्यता देता है.
माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 63 के प्रावधानों के अनुसार, सुलहकर्ता सामान्यतः एक ही होगा, परन्तु यदि सुलह कार्यवाही के पक्षकार इस पर सहमत हो कि सुलह कर्ताओं की संख्या दो या तीन हो तो ये उन्हें नियुक्त कर सकते हैं.
जहां एक से अधिक सुलहकर्ता है तब उन्हें एक सामान्य नियम के अनुसार संयुक्त रूप से कार्य करना होगा. सुलहकर्ता मध्यस्थ के रूप में कार्य नहीं कर सकता |
सुलहकर्त्ता की नियुक्ति सम्बन्धी प्रावधान
1. सुलहकर्ता की संख्या
माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 63 के प्रावधानों के अनुसार, सुलहकर्ता सामान्यतः एक ही होगा परन्तु यदि सुलह कार्यवाही के पक्षकार इस पर सहमत हों कि सुलहकर्त्ताओं की संख्या दो या तीन हो तो वे उन्हें नियुक्त कर सकते हैं. जहाँ एक से अधिक सुलहकर्त्ता हैं तब उन्हें एक सामान्य नियम के अनुसार संयुक्त रूप में कार्य करना होगा.
2. सुलहकर्ता की नियुक्ति की प्रक्रिया
अधिनियम की धारा 64 (1) के अनुसार-
- यदि सुलह कार्यवाही में एक सुलहकर्ता है तो पक्षकार उस एकमात्र सुलहकर्ता के नाम पर सहमत हो सकते हैं.
- यदि कार्यवाही में दो मुलहकर्ता हैं तो दोनों पक्षकार एक-एक सुलहकर्ता नियुक्त कर सकते हैं.
- यदि कार्यवाही में तीन सुलहकर्ता हैं तब पक्षकार पहले एक-एक सुलहकर्ता को नियुक्त करेंगे तथा बाद में नियुक्त सुलहकर्ता एक अन्य सुलहकर्ता को नियुक्त करेंगे. यह तीसरा मुलहकर्ता अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा.
धारा 64 (2) के अनुसार, पक्षकारों को यह स्वतन्त्रता है कि यदि पक्षकार चाहे तो सुलहकर्त्ता की नियुक्ति के लिये एक ऐसी संस्था से अनुरोध कर सकते हैं जो कि सुलह सेवाओं को प्रदान करने के लिये प्रसिद्ध हो. पक्षकार किसी विशिष्ट ख्याति प्राप्त व्यक्ति से भी इसके लिये अनुरोध कर सकते हैं. पक्षकार इसके लिये भी स्वतन्त्र हैं कि वे संस्था से इस बात का अनुरोध कर सकते हैं कि वह संस्था उनके लिये एक या एक से अधिक सुलहकर्त्ता की नियुक्ति करे जो कि इस क्षेत्र में विशेषज्ञता रखते हों. जब कोई संस्था का व्यक्ति सुलहकर्त्ताओं को नियुक्त करती है तब उससे आशा की जाती है कि वह स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष सुलहकर्ता को नियुक्त करे |
सुलहकर्ता की भूमिका
सुलहकर्ता की भूमिका क्या है? जब किसी पक्ष को यह प्रतीत होता है कि उसे अपने झगड़े का निपटारा सुलह प्रक्रिया से करा लेना चाहिए तो वह दूसरे पक्ष को इस प्रक्रिया द्वारा झगड़े के निपटारे के लिए आमंत्रण देता है. दूसरे पक्ष के सहमत होने पर इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए सुलहकर्ता का आपसी सहमति से चुनाव होता है. सुलहकर्ता को संख्या एक, दो या इससे अधिक हो सकती है.
सुलहकर्ता को नियुक्ति के बाद इनकी भूमिका शुरू होती है. सुलहकर्ता पहिले दोनों पक्षों को एक साथ इकट्ठा करके उनके मध्य झगड़े का स्वरूप एवं दोनों पक्षों के दावों को सुनता है और फिर अलग-अलग बुलाकर दोनों पक्षों से एक दूसरे की त्रुटि, भूल, कदाचार, करार भंग इत्यादि पहलुओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है. तथा सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में मित्रवत एक-दूसरे पक्षों की कमी को रेखांकित कर झगड़े को निपटाने के लिए दोनों पक्षों से सुझाव माँगता है तथा अपना भी सुझाव देता रहता है. इस प्रक्रिया को अन्तिम रूप तक पहुँचाने के लिए सुलहकर्ता दोनों पक्षों से अलग-अलग लिखित संसूचना देने के लिए अनुरोध करता है.
इस लिखित संसूचना में दोनों पक्षों को संक्षेप में झगड़े का स्वरूप, झगड़े का कारण तथा अपने दावा को दोनों पक्षों को बताना होता है. दावों की सच्चाई के लिए इसके पुष्टीकरण हेतु दावों का सबूत, गवाह प्रपत्र इत्यादि भी प्रस्तुत करना पड़ता है.
नैसर्गिक न्याय की रक्षा हेतु तथा समय को बचाने के लिए तथा दोनों पक्षों को संतुष्टि पूर्ण न्याय देने के लिए, दोनों पक्षों को उस लिखित संसूचना की प्रतिलिपि, जो सुलहकर्ता को दी गई है, उभय पक्षों को एक दूसरे को देना पड़ेगा.
लिखित संसूचना प्राप्त करने के बाद और सुलहकर्ता द्वारा उनका अध्ययन करने के बाद यदि सुलहकर्ता को यह प्रतीत होता है कि दावों की पुष्टि के लिए और अतिरिक्त संसूचना की आवश्यकता है तो सुलहकर्ता दोनों पक्षों से या एक पक्ष से, जैसी आवश्यकता हुई, अतिरिक्त लिखित संसूचना माँग सकता है.
इसके अतिरिक्त लिखित संसूचना की प्रतिलिपि भी दूसरे पक्षकार को एक-दूसरे द्वारा प्रेषित करना पड़ेगा जिससे नैसर्गिक न्याय की रक्षा होती रहे. इस प्रकार सुलहकर्ता दावों एवं प्रतिदावों का समन्वय करते हुए तथा दोनों पक्षों को हानि-लाभ का सन्दर्भ देते हुए समझाता है. और समझौता के लिए प्रेरित करता है.
सुलहकर्ता के ही प्रयासों से उभव पक्ष समझौते के लिए जब राजी हो जाते हैं तब निपटारा करार (Settlement Agreement) को सुलहकर्ता निर्मित करता है और दोनों पक्षों के पास भेज कर उनकी प्रतिक्रिया प्राप्त करता है. और यदि निपटारा करार में जो उसने बनाया है कुछ त्रुटि, कमी या सुधार की आवश्यकता, दोनों पक्षों की प्रतिक्रिया प्राप्त करने के बाद महसूस होती है तो सुलहकर्ता निपटारे करार को पुनः सृजित करता है और इसको अन्तिम अवस्था में ले जाने का प्रयास करता है.
जब दोनों पक्ष अन्तिम रूप से सुलहकर्ता द्वारा बनाये गये निपटारा करार पर सहमत हो जाते हैं तो दोनों पक्ष अपना हस्ताक्षर कर देते हैं और इस निपटारे करार पर सत्यापन के रूप में सुलहकर्ता भी अपना हस्ताक्षर कर देता है और यह निपटारा, करार, माध्यस्थम् द्वारा प्राप्त पंचाट एवं न्यायालय द्वारा निर्णय दिये जाने के बाद जो डिक्री प्राप्त होती है इन सबके समकक्ष स्थान प्राप्त करके उस पक्ष के विरुद्ध डिक्री की तरह लागू कराया जा सकता है जिसको दूसरे पक्ष को उसके दाने की प्रतिपूर्ति में अपना दायित्व निभाना होता है.
सुलहकर्ता की भूमिका सुलह प्रक्रिया से प्रारम्भ होकर निपटारा करार के सत्यापन के लिए हस्ताक्षर करने के बाद भी चालू रहती है क्योंकि सुलह प्रक्रिया में प्राप्त जानकारी को उसे गुप्त रखना होता है यह विधिक पाबन्दी है. सुलहकर्ता द्वारा प्राप्त संसूचनाओं का कहीं गलत प्रयोग भी वर्जित है. यह विधिक प्रावधान इसलिए किया गया है जिससे समाज में शान्ति व्यवस्था बनी रहे और किसी पक्ष को ठगी का शिकार न होना पड़े तथा सुलहकर्ता एवं सुलह प्रक्रिया की विश्वसनीयता बनी रहे.
माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 67 उपबन्धित करती है कि-
- सुलहकर्ता, विवाद का सौहार्द्रपूर्ण ढंग से निपटारा कराने में स्वतन्त्र और निष्पक्ष रूप से पक्षकारों की सहायता करेगा.
- सुलहकर्ता, वस्तुपरकता, औचित्य एवं न्याय के सिद्धान्तों से मार्गदर्शित होगा और अन्य बातों में, वह पक्षकारों के अधिकारों एवं दायित्वों, संबंधित व्यापार की प्रथाओं तथा विवाद को परिवर्ती परिस्थितियों जिसमें पक्षकारों के बीच किसी पूर्ववर्ती कारोबार की परिपाटियाँ सम्मिलित हैं, पर विचार करेगा.
- सुलहकर्त्ता ऐसे ढंग से सुलह कार्यवाही का संचालन कर सकेगा जैसा कि वह उचित समझे, इसमें वह पक्षकारों की परिस्थितियों, पक्षकारों द्वारा व्यक्त की गयी इच्छाओं जिसमें सम्मिलित है किसी पक्षकार का यह निवेदन कि सुलहकर्त्ता मौखिक कथनों को सुने, ताकि विवाद तथा शीघ्र निपटारे की आवश्यकता को ध्यान में रखेगा.
- सुलहकर्ता, सुलह कार्यवाही के किसी भी चरण में विवाद के निपटारे के लिये प्रस्ताव कर सकेगा. ऐसे प्रस्तावों का लिखित में होना आवश्यक नहीं है और उनके कारणों का विवरण साथ में देना भी आवश्यक नहीं होता है.
यह धारा अपेक्षा करती है कि सुलहकर्त्ता अपनी भूमिकां इस प्रकार निभाये कि जिससे पक्षकारगण अपने विवाद को सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में आपसी सहमति से निपटा सकें, उसे इस हेतु पक्षकारों की सहायता करते समय वस्तुपरकता, औचित्य तथा न्यायालय के सिद्धांतों को मार्गदर्शक के रूप में अपनाना होगा. साथ ही उसे पक्षकारों की पृष्ठभूमि विवाद की परिस्थितियों पर भी गम्भीरता से विचार करना होगा. यदि सुलहकर्त्ता चाहे तो, वह पक्षकारों के मौखिक कथनों की सुनवाई भी कर सकता है. इस धारा का मूल उद्देश्य सुलह तन्त्र द्वारा पक्षकारों के विवाद त्वरित गति से सौहार्दपूर्ण वातावरण में निपटाना है |