जवाब दावा या लिखित कथन से आप क्या समझते हैं?

जवाब दावा या लिखित कथन से आप क्या समझते हैं?

जवाबदावा (लिखित कथन) का अर्थ

किसी बाद में, जिस तरह वादपत्र वादी का अभिवचन होता है उसी प्रकार जवाबदावा प्रतिवादी का अभिवचन होता है. वादपत्र में अन्तर्विष्ट वादी के दावा का जो जवाब प्रतिवादी अपनी प्रतिरक्षा में न्यायालय में दाखिल करता है, उसको जवाब दावा कहा जाता है. वादी का दावा प्रतिवादी के विरुद्ध होता है, इसलिए न्याय के हित में यह उचित ही है कि न्यायालय उस दावा का उत्तर देने के लिये प्रतिवादी को समाहित करे और अपना जवाबदावा दाखिल करने के लिये निर्देश दे.

सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2002 द्वारा संहिता में संशोधन कर उल्लेखित किया गया है कि जवाबदावा या लिखित कथन (Written statement) समन की तामील होने के 30 दिन में आवश्यक रूप से प्रस्तुत करेगा. न्यायालय द्वारा यह अवधि अधिकतम 90 दिन तक बढ़ाई जा सकती है.

T.R.F. लिमिटेड बनाम दामोदर वेली कॉरपोरेशन (AIR 2016 N.O.C. 701 कलकत्ता) के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि लिखित कथन पेश करने की अवधि में उच्च न्यायालय द्वारा अभिवृद्धि की जा सकती है. तत्सम्बन्धी उच्च न्यायालय के नियम आदेश 8 नियम 1 पर पूर्वता रखते हैं.

1999 में संशोधन करके आदेश 8 में नियम 1(ए) जोड़ा गया जिसके अनुसार प्रतिवादी जिन दस्तावेजों के आधार पर अपनी प्रतिरक्षा करना चाहता है, उन दस्तावेजों को लिखित कथन के साथ प्रस्तुत करना चाहिये. यदि ऐसे दस्तावेज उसके कब्जे में नहीं हैं तब यह उल्लेखित करना होगा कि वे किसके कब्जे में हैं. जहां ऐसे दस्तावेज को प्रस्तुत नहीं किया जाता है तब न्यायालय उन्हें बिना अपनी अनुमति के साक्ष्य में ग्रहण नहीं करेगा.

जवाब-दावे में उल्लिखित होने वाले विवरण

1. नये तथ्यों का विशेष रूप से अभिवचन किया जाना

प्रतिवादी को अपने अभिवचन में उन सभी बातों को अवश्य उठाना चाहिये जो यह दर्शाते हों कि वाद चलाये जाने योग्य नहीं है या कि संव्यवहार कानून की दृष्टि से या तो शून्य है या शून्यकरणीय है, और अपनी प्रतिरक्षा के उन सभी आधारों को बताना चाहिये. उदाहरण के लिये-कपट, मर्यादा, सम्मोचन, भुगतान, पालन या अवैधता दर्शाने वाले तथ्य, जो इस प्रकार से न उठाये जाने की दशा में एकाएक सामने आने पर सम्भवतः विरोधी पक्षकार को व्यग्र कर सकते हों, या कि जिनसे तथ्य सम्बन्धी ऐसे वाद-पद पैदा हो सकते हों तो वादपत्र से पैदा न होते हों.

2. इंकारी (प्रत्याख्यान) स्पष्ट रूप की हो

वादी के द्वारा अभिकथित बाधाओं को अपने जवाब दावा में सामान्यतः इंकार करना ही प्रतिवादी के लिये पर्याप्त नहीं है, बल्कि जरूरी यह है कि वह नुकसानी (Damages) को छोड़कर तथ्य के ऐसे प्रत्येक अभिकचन को, जिसको वह स्वीकार नहीं करता है, स्पष्ट रूप से उत्तर दें.

3. टालमटोल वाली वाक्छलपूर्ण इंकारी

जहां प्रतिवादी वाद में के किसी तथ्य के अभिकथन से इंकार करता हो, वहां उसे ऐसा टालमटोल के ढंग से नहीं करना चाहिये, बल्कि बात के सार का उत्तर देना चाहिये, जैसे-यदि अभिकथित किया गया है कि उसने एक निश्चित धनराशि प्राप्त किया है, तो ऐसा इन्कार करना पर्याप्त नहीं होगा. कि उसने वह राशि प्राप्त नहीं की थी बल्कि इस बात को इन्कार करना चाहिये कि उसने उस राशि को या उसके किसी भाग को प्राप्त किया था, अथवा यह दर्ज करना चाहिये कि उसने अमुक राशि प्राप्त की थी, और यदि अभिकथन विभिन्न परिस्थितियों सहित किया गया है तो उन परिस्थितियों सहित उससे इन्कार करना पर्याप्त नहीं होगा.

4. विशिष्ट इन्कारी न होने की दशा में

यदि वादपत्र में के तथ्य के प्रत्येक अभिकथन को प्रतिवादी के अभिवचन (जवाब दावा ) में, विशिष्ट रूप से या आवश्यक विवक्षित रूप से इन्कार नहीं किया गया है, या स्वीकार नहीं किया गया, ऐसा कधित किया जाता है, तो निर्योग्यता के अधीन व्यक्ति के विरुद्ध छोड़कर यह समझा जायेगा कि उस अभिकथन को स्वीकार किया गया है, परन्तु इस प्रकार से स्वीकार किये गये किसी तथ्य को ऐसी स्वीकारोक्ति से भिन्न, किसी अन्य प्रकार से सिद्ध किये जाने की अपेक्षा न्यायालय अपने स्वविवेक से कर सकेगा.

5. प्रतिसादन का स्पष्ट उल्लेख

जहां प्रतिवादी वादी के दावे के विरुद्ध प्रतिसादन का अधिकार रखता है वहां उसे उसका स्पष्ट उल्लेख करना चाहिए तथा सम्बन्धित विशिष्टियों के सम्बन्ध में स्पष्ट कथन करना चाहिए.

सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2002 के द्वारा यह भी प्रतिस्थापित किया गया है कि ‘’प्रतिवादी के लिखित कथन के पश्चात कोई भी अभिवचन, जो मुजरा के या प्रतिदावे के विरुद्ध प्रतिरक्षा से भिन्न हो, न्यायालय की इजाजत से ही और ऐसे निबन्धनों पर, जो न्यायालय ठीक समझे, उपस्थित किया जाएगा, अन्यथा नहीं, किन्तु न्यायालय पक्षकारों में किसी से भी लिखित कथन या अतिरिक्त लिखित कथन किसी समय अपेक्षित कर सकेगा और उसे उपस्थित करने के लिए कोई समय नियत कर सकेगा जो तीन दिनों से अधिक नहीं होगा।”

जब न्यायालय द्वारा अपेक्षित लिखित कथन को उपस्थित करने में पक्षकार असफल रहता है, तब प्रक्रिया

जहां ऐसा कोई पक्षकार, जिससे लिखित कथन नियम 1 या नियम 9 के अधीन अपेक्षित किया गया है, उसे न्यायालय द्वारा अनुज्ञात या यथास्थिति नियत समय के भीतर उपस्थित करने में असफल रहता है, वहां न्यायालय उसके विरुद्ध निर्णय सुनाएगा या वाद के सम्बन्ध में ऐसा आदेश पारित करेगा, जो वह ठीक समझे और ऐसा निर्णय सुनाए जाने के बाद डिक्री तैयार की जाएगी |

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