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प्रारंभिक काल
उस समय जबकि भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने आपराधिक न्याय से सम्बन्धित अदालतें स्थापित नहीं की थीं, तब आपराधिक मामलों का फैसला मुस्लिम अपराध विधि में वर्णित व्यवस्थाओं के अनुसार किया जाता था. ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 1773 में रेगुलेटिंग ऐक्ट पास किया तो उसके अन्तर्गत सुप्रीम कोर्ट (SC) स्थापित किये जाने की चर्चा भी की गई थी. परिणाम-स्वरूप कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गयी. इसके बाद वर्ष 1800 ईसवी में मद्रास में तथा 1823 में बम्बई में भी सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गयी.
एक अन्य कानून में जो कि 1781 ईसवी में पास हुआ सुप्रीम कोटों से भिन्न प्रान्तीय न्यायालयों को मान्यता दी गयी और इसके साथ ही इसी कानून द्वारा गवर्नर जनरल-इन-काउन्सिल को इन अदालतों के लिए रेगुलेशन बनाने की शक्ति एवं इसके साथ ही साथ अपीलीय क्षेत्राधिकार भी प्रदान किया गया. गवर्नर जनरल इन-काउन्सिल ने बंगाल में लागू होने वाले रेगुलेशनों को बनाया तथा मद्रास प्रेसीडेन्सी में लागू होने वाले रेगुलेशनों को गवर्नर-इन-काउन्सिल ऑफ फोर्ट सेण्ट जार्ज ने बनाया एवं बम्बई प्रेसीडेन्सी में लागू होने वाले रेगुलेशनों को गवर्नर-इन-काउन्सिल बम्बई ने निर्मित किया.
इन उपयुक्त सुप्रीम कोटों में दीवानी एवं आपराधिक मामलों के निपटारे हेतु अंग्रेजी का कानून एवं प्रक्रिया का प्रयोग होता था. मुफस्सिल न्यायालयों के कार्य सरकार द्वारा बनाये गये रेगुलेशनों के अनुसार होता था तथा जहाँ यह रेगुलेशन प्राप्त नहीं होते थे, वहाँ न्याय, साम्य, तथा सद्विवेक के आधार पर मामलों का निपटारा किया जाता था.
CrPC का विकास
गवर्नर जनरल-इन-काउन्सिल को 1833 ईसवी में यह अधिकार दिया गया कि वे सम्पूर्ण अंग्रेजी भारत के लिए ऐसा कानून बनायें, जो सभी व्यक्तियों के लिए लागू हो, चाहे वे ब्रिटेन के निवासी हो या विदेशी हों या हिन्दुस्तानी हों, जो सभी न्यायालयों के लिए लागू हो चाहे न्यायालय चार्टर के अनुसार या अन्य तरीके से स्थापित किये गये हों और अंग्रेजी भारत के अन्दर सभी स्थानों पर लागू हों.
CrPC का स्वरूप
1854 ईसवी में दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के प्रारूप का परीक्षण एवं संशोधन किया गया और इसे 1856 ईसवी में पार्लियामेंट के सामने पेश किया गया तथा 1857 ईसवी में गवर्नर जनरल की लेजिस्लेटिव काउन्सिल में ‘सर बार्नेस पीकॉक’ ने पेश किया था. यह स्टेच्यूट बुक में 1861 ईसवी से 25वें अधिनियम के रूप में प्रकट हुआ तथा इसे 1 जनवरी, 1862 ईसवी में लागू किया गया.
प्रारम्भ में यह अंग्रेजी शासन में सामान्य नियमों के अधीन लागू हुआ परन्तु बाद में इसका विस्तार महानगरों को छोड़कर सम्पूर्ण अंग्रेजी भारत में हो गया, फिर उचित समय बाद इसका स्थान हाईकोर्ट क्रिमिनल प्रोसीजर ऐक्ट (1856 ईसवी का 13वां) द्वारा ले लिया गया. 1869 ईसवी के 8वें अधिनियम द्वारा इसका भी संशोधन किया गया. इसके पश्चात् इन दोनों अधिनियमों के स्थान पर दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1872 ईसवी (Criminal Procedure Code, 1872) लागू हुई.
हाईकोर्ट की कार्यविधि को प्रशासित करने वाले अनेक अधिनियम निरस्त कर दिये गये और उनके स्थान पर हाईकोर्ट क्रिमिनल प्रोसीजर ऐक्ट का प्रचलन किया गया जिसमें हाईकोर्टो की कार्यविधि को उनके मूल आपराधिक क्षेत्राधिकार के प्रयोग में नियमित कर दिया.
महानगरों में मजिस्ट्रेटों के न्यायालयों की कार्यविधि को नियमित करने के लिए प्रेसीडेन्सी मजिस्ट्रेट ऐक्ट को अधिनियमित किया गया. 1877 ईसवी के अधिनियम संख्या 10, 1875 ईसवी के अधिनियम संख्या 10 व 1872 ईसवी के अधिनियम संख्या 4 के अनेक उपबन्ध एक ही तरह के थे. अतः यह आवश्यक समझा गया कि उपर्युक्त तीनों अधिनियमों को मिलाकर एक अधिनियम दण्ड प्रक्रिया संहिता (Code Of Criminal Procedure) का निर्माण किया जाय जो सम्पूर्ण भारत में प्रचित हो. इसी विचार के अनुसार उपर्युक्त तीनों अधिनियमों को हटा दिया गया तथा उसके स्थान पर 1882 ईसवी का 10वां अधिनियम जारी किया गया.
इस अधिनियम ने सारे भारत अर्थात् महानगरों एवं मुफस्सिल अदालतों में कार्य विधि की एक समान विधि (Uniform Law) का प्रथम बार प्रचलन किया. 1882 ईसवी के अधिनियम संख्या 19 में जो कमियां थीं उनकी पूर्ति 1898 ईसवी के अधिनियम संख्या 5 द्वारा की गयी. यही अधिनियम 1974 ईसवी के अधिनियम संख्या 2 से पहले प्रक्रिया की कार्यविधि का आधार है.
दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1898 ईसवी का संशोधन समय-समय पर केन्द्रीय एवं राज्य विधान मण्डलों ने अधिनियम बनाकर किया. केन्द्रीय विधान मण्डलों ने इस संहिता में महत्वपूर्ण सुधार 1923 ईसवी व 1955 ईसवी में किये. 1955 ईसवी का संशोधन अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत था. इन संशोधन ने परीक्षण में गतिशीलता लाने के विचार से कार्यविधि को और भी सरल बना दिया. इन संशोधनों के अलावा 1898 ईसवी की संहिता के उपबन्ध 1955 ईसवी में जब तक केन्द्रीय विधि आयोग (Central Law Conmission) की स्थापना नहीं की गयी, अपरिवर्तित रहा. आयोग का मुख्य कार्य हाईकोर्टों के प्रतिकूल निर्णयों द्वारा या अन्यथा जो असंगतता और अस्पष्टता प्रकाश में जानी उसे दूर करने के लिए सुझाव देना था ताकि यथा सम्भव कानून का समेकन करने के लिए सुझाव देना था जहां तक यह सम्भव हो. विधि आयोग ने सितम्बर 1969 ईसवी में संहिता के रिवीजन के लिए एक विस्तृत रिपोर्ट सरकार के सामने पेश की. सरकार ने आयोग की सिफारिशों की जाँच निम्नलिखित विचारों को ध्यान में रखकर की-
- प्राकृतिक न्याय के स्वीकृत सिद्धान्तों के अनुसार अभियुक्त को निष्पक्ष परीक्षण पाना चाहिए.
- यह भी भरसक कोशिश की जानी चाहिए कि जांच और परीक्षण में विलम्ब या देर बचायी जाये क्योंकि यह विवाद में फँसे व्यक्ति के लिए ही हानि-कारक नहीं है बल्कि यह समाज के लिए भी हानिकारक है.
- कार्यविधि या प्रक्रिया उलझी हुई नहीं होनी चाहिए बल्कि जहाँ तक सम्भव हो यह समाज के गरीब से गरीब व्यक्ति को निष्पक्ष न्याय का विश्वास दिलाने वाली होनी चाहिए.
12 दिसम्बर, 1973 ईसवी को लोकसभा ने 125 संशोधनों सहित दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) बिल पास किया तथा राज्यसभा ने 18 दिसम्बर, 1973 ईसवी को इन संशोधनों को स्वीकार कर लिया. इसे राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त करने के बाद 1 अप्रैल, 1974 ईसवी से लागू किया गया |