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अभिवचन का अर्थ एवं परिभाषा
अभिवचन क्या है? सिविल न्याय प्रशासन में अभिवचनों का अत्यधिक महत्व है. बाद पदों की रचना एवं अस्थायी व्यादेश आदि जारी करने जैसे मामलों में अभिवचन की रचना की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है.
न्यायालय के समक्ष किसी मुकदमे की सुनवायी आरम्भ होने के पूर्व यह वांछनीय है कि न्यायालय को स्पष्ट रूप से मालूम हो कि उसे किस बात पर निर्णय देना है. इसी प्रकार पक्षकारों के लिये स्पष्ट रूप से यह मालूम होना वांछनीय है कि वे किस बात पर लड़ रहे हैं. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये सबसे सन्तोषजनक तरीका यह है कि सुनवाई के पूर्व प्रत्येक पक्षकार अपने वाद का कथन करे और अपने विपक्षी के बाद का उत्तर दे. ऐसे कथनों तथा उसके उत्तरों को ही अभिवचन (Pleadings) कहते हैं.
अभिवचन की परिभाषा करते हुये आजर्स महोदय कहते हैं कि “अभिवचन प्रत्येक पक्षकार द्वारा लिखित रूप से प्रस्तुत किये गये ऐसे कथन होते हैं जिनमें वह यह उल्लेख करता है कि मुकदमे के परीक्षण में उसके अभिकथन क्या होंगे; इन कथनों में वह उन सब विवरणों को प्रस्तुत करता है जो उसके विपक्षी के लिये उत्तर में अपना वाद तैयार करने के लिये आवश्यक हो।”
श्री P. C. मोघा के अनुसार, “अभिवचन ऐसे कथन होते हैं जो किसी मामले की प्रत्येक पक्षकार द्वारा लिखे और तैयार किये जाते हैं. उसमें इस बात का कथन किया जाता है कि परीक्षण में उसका क्या संकथन होगा और उसमें ऐसी सब बातों का ब्योरा होगा, जिनकी उसके प्रतिद्वन्द्वी को जवाब में अपना मामला तैयार करने के लिये जरूरत हो।”
1873 के सुप्रीम कोर्ट आफ जुडीकेचर ऐक्ट की धारा 100 के अनुसार, “अभिवचन में कोई याचिका या समन शामिल है, और उसके अन्तर्गत किसी वादी के दावे या अधियाचन (Demand) का लेखनबद्ध कथन और किसी प्रतिवादी द्वारा की गई उसके सम्बन्ध में कोई प्रतिरक्षा का कथन किसी प्रति-दावा के सम्बन्ध में वादी के जवाब का कथन भी है।”
नियमत: भारत में इंग्लैण्ड की भाँति, एक वाद में केवल दो अभिवचन होते हैं-
- एक वादी की ओर से दायर किया गया दावे का कथन जिसे वाद-पत्र कहा जाता है और जिसमें वादी सभी आवश्यक विवरणों सहित अपने वादहेतु का उल्लेख करता है, तथा
- दूसरा, प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत किया गया बचाव या प्रतिवाद जिसे लिखित कथन कहते हैं और जिसमें प्रतिवादी, वादी द्वारा वाद-पत्र में कथित किये गये प्रत्येक सारभूत तथ्य का उत्तर देता है, साथ ही ऐसे नये तथ्यों का भी उल्लेख करता है जो उसके पक्ष में हो.
उपरोक्त दो अभिवचनों को दृष्टि में रखकर भारत में सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश 6, नियम 1 में अभिवचन की परिभाषा इस प्रकार दी गई है “अभिवचन से बाद पत्र या लिखित कथन अभिप्रेत है।”
संक्षेप में किसी बाद में वादी के द्वारा न्यायालय में प्रस्तुत वादपत्र और प्रतिवादी के द्वारा प्रस्तुत जवाबदावा को संयुक्त रूप से अभिवचन कहा जाता है.
वादपत्र वादी का अभिवचन होता है, तो वादपत्र के जवाब में प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत जवाबदावा प्रतिवादी का अभिवचन होता है.
किन्तु यह उल्लेखनीय है कि CPC के अन्तर्गत दी गई उपरोक्त परिभाषा व्यापक नहीं है. यथार्थ रूप से यह कहना सही है कि “अभिवचन या तो वाद-पत्र होता है या लिखित कथन तथापि कभी-कभी मौलिक कार्यवाहियों में याचिकाओं तथा शपथपत्रों को वादों के अभिवचन के रूप में माना जाता है यद्यपि वे वाद पत्र या लिखित कथन के औपचारिक भागों के अनुरूप नहीं होते।”
वहीं आदेश 1 नियम 4 (13) मद्रास हाई कोर्ट रूल्स में मद्रास हाई कोर्ट के नियमों के अन्तर्गत अभिवचन की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-
“अभिवचन में वाद-पत्र, लिखित कथन, याचिका, स्पेशल केस, अपील का मेमोरेन्डम तथा आपत्तियों का मेमोरेन्डम शामिल हैं।”
घोष महोदय ने इस परिभाषा को अपेक्षाकृत अधिक व्यापक माना है. उन्होंने सिविल प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत दी गई परिभाषा में प्रयुक्त शब्दावली की भी आलोचना की है. उनके शब्दों में, “सभी अभिवचन लिखित कथन होते हैं. एक बाद पत्र उतना ही लिखित कथन है जितना कि बचाव या प्रतिवाद अथवा वादी का उत्तर. प्रतिवाद के लिये ‘लिखित कथन’ तथा ‘उत्तर’ के लिए ‘वादी का लिखित कथन’ शब्दों का प्रयोग उपयुक्त नहीं है।” |
मौखिक अभिवचन
सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश 10 नियम 1 के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है कि जब किसी पक्षकार द्वारा प्रस्तुत लिखित कथन में वर्णित तथ्यों को दूसरे पक्षकार द्वारा स्पष्ट रूप से अथवा आवश्यक लाक्षणिकता (Implication) द्वारा स्वीकार या अस्वीकार नहीं किया जाता है तब न्यायाधीश का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि मुकदमे की पहली सुनवाई पर वह दूसरे पक्षकार से यह अभिनिश्चित करे कि वह उन्हें स्वीकार करता है अथवा अस्वीकार करता है और न्यायालय ऐसी स्वीकारोक्तियों अथवा अस्वीकारोक्तियों को अभिलेखबद्ध कर लेगा. मोघा महोदय के अनुसार इस प्रकार अभिलेखबद्ध की गई स्वीकारोक्तियों तथा अस्वीकारोक्तियों को मौखिक अभिवचन कहा जा सकता है |
अभिवचन के उद्देश्य
1. पक्षकारों को निश्चित वादपदों पर लाना
अभिवचनों का कार्य उन बातों को ठीक-ठीक रूप से अभिनिश्चय करना है जिन पर पक्षकारों में मतभेद है और जिन पर वे एकमत है जिससे कि पक्षकारों को निश्चित तनकीहों (Issues) पर लाया जा सके.
2. पक्षकारों को अचम्भे से बचाना
अभिवचनों का सम्पूर्ण उद्देश्य प्रत्येक पक्षकार को इस बात की उचित सूचना देना है कि उसके विपक्षी का केस क्या है जिससे कि परीक्षण आरम्भ होने से पूर्व ही उसे मालूम रहे कि परीक्षा के समय उसके विपक्षी द्वारा कौन-कौन सी बातें उठायी जायेंगी और इस प्रकार पक्षकार परीक्षण के दौरान चकित होने से बच जाते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने राज नारायण बनाम इंदिरा गाँधी, (AIR 1992 SC 1302) में यह निर्दिष्ट किया है कि अभिवचनों के नियम निष्पक्ष एवं उचित परीक्षण में सहायता प्रदान करते हैं.
3. अनावश्यक खर्चा एवं कठिनाइयों को कम करना
अभिवचनों के कारण पक्षकारों को पहले से मालूम रहता है कि उन्हें क्या साबित करना है अतः स्वाभाविक रूप से वे अनावश्यक साक्ष्य प्रस्तुत करने के व्यय एवं कठिनाई से बच जाते हैं.
4. असंगतताओं का उन्मूलन करना
पैटन महोदय के अनुसार, अभिवचनों का उद्देश्य असंगतताओं को दूर करना भी होता है. अन्यथा वास्तविक परीक्षण शुरू होने के पूर्व पक्षकारों को अभिवचनों के रूप में अपना-अपना केस प्रस्तुत करने के लिए विवश करने सम्बन्धी नियमों के अभाव में केस अनेक प्रकार की असंगतताओं से परिपूर्ण हो सकता है.
5. अनावश्यक देरी में कमी करना
अभिवचन सम्बन्धी नियमों के कारण विशेषकर उस समय की बचत हो जाती है जो अन्यथा अनावश्यक एवं असम्बद्ध साक्ष्य के परीक्षण में लग जाता.
6. न्यायालय को सहायता प्रदान करना
अभिवचनों को कार्य केवल पक्षकारों को ही लाभ प्रदान करना नहीं है, बल्कि न्यायालय की सहायता करना भी है, क्योंकि अभिवचन उस क्षेत्र को अंकित कर देते हैं जिसके बाहर पक्षकारों के बीच विवाद को विस्तृत नहीं होने देना चाहिए.
राजनारायण बनाम इंदिरा गाँधी, (AIR 1972 SC 1302) के बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इंगित किया है कि अभिवचनों के नियम उचित निर्णय करने के साधन हैं |
अभिवचनों का निर्वचन
यद्यपि अभिवचनों के उपरोक्त उद्देश्यों से भलीभाँति लाभान्वित होने के लिये यह आवश्यक है कि अभिवचन के नियमों के पालन पर जोर दिया जाये. किन्तु भारत में अभिवचनों को ड्राफ्ट करने की प्रारम्भिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए यह उचित नहीं होगा कि यहां अभिवचनों के निर्वाचन को उतना ही कठोर बना दिया जाय जितना कि इंग्लैण्ड में इसी कारण भारतीय न्यायालयों ने बार-बार इस प्रकार की व्यवस्थायें दो हैं कि अभिवचनों सम्बन्धी विधि का निर्वचन इतनी कठोरतापूर्वक न किया जाये जिससे कि वह अनुपयुक्त हो जाय और न्याय की सेवा न कर सके जो कि व्यावहारिक विधि का सामान्य उद्देश्य होता है. अभिवचनों का निर्वाचन करने में न्यायालयों को कितना उदार होना चाहिए, इस सम्बन्ध में कोई निर्धारित नियम निर्दिष्ट करना कठिन है यद्यपि उसकी कोई निश्चित सीमा होनी ही चाहिए |