विधिशास्त्र की समाजशास्त्रीय विचारधारा के मुख्य सिद्धांत

विधिशास्त्र की समाजशास्त्रीय विचारधारा के मुख्य सिद्धांत

समाजशास्त्रीय विचारधारा

विधि समाज के लिये है न कि समाज विधि के लिये (Law is a means to an end) इस विचारधारा के अनुसार विधिशास्त्र का अध्ययन ऐसी पद्धति से किया जाना चाहिए जिसमें ‘सामुदायिक’ जीवन के अन्तर्गत सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों और संव्यवहारों को नियमबद्ध किया जा सके अर्थात विधि के विभिन्न सिद्धान्तों का वास्तविक कार्यों, क्रमिक तथा व्यावहारिक रीति से अध्ययन किया जाये.

इसीलिए इस पद्धति को क्रियाशील विधि (Functional law) कहा जाता है. इस विचारधारा में यह देखा जाता है कि विधि का मनुष्यों पर क्या प्रभाव पड़ता है और मनुष्यों का विधि पर क्या प्रभाव पड़ता है. यह पद्धति ‘विधि’ को सामाजिक प्रगति का साधन मानती है. क्योंकि विधि का उद्देश्य ‘अधिकाधिक लोगों को अधिकाधिक सुख देना है’ (The greatest happiness of greatest number). न्यूनतम बर्बादी पर अधिकतम सुख की प्राप्ति भी समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र का लक्ष्य हो गया है |

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समाजशास्त्रीय शाखा के उद्भव के कारण

समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र के प्रकट होने के कारण थे-

  1. लोगों का वैयक्तिक अधिकारों से सामाजिक कर्त्तव्यों की ओर झुकाव, जिसके कारण थे- जनसंख्या की वृद्धि, औद्योगीकरण का विकास, वैज्ञानिक उन्नति आदि,
  2. ऐतिहासिक शाखा द्वारा कानून और समाज के पारस्परिक सम्बन्धों पर अधिक जोर,
  3. राज्य द्वारा आदमी के हर काम पर अधिकाधिक नियन्त्रण, विश्लेषणात्मक पद्धति की कमियाँ और असफलताएं, विद्रोह एवं वर्ग-संघर्ष |

समाजशास्त्रीय विचारधारा के प्रमुख समर्थक

1. जेरेमी बेन्थम

बेन्थम के विचार उपयोगितावाद के सिद्धान्त (Theory of utility) पर आधारित हैं. उनके अनुसार यह देखा जाना चाहिए कि मनुष्य के अमुक आचरण से से सुख में वृद्धि हुई या दुख में, इसी कारण उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि विधायन का प्रमुख उद्देश्य यह होना चाहिए कि विधि द्वारा मानंव सुख में वृद्धि करे. उन्होंने व्यक्ति की स्वतन्त्रता और सामाजिक कल्याण में जो संतुलन कायम रखा उससे स्पष्ट है कि उन्होंने सामाजिक हितों में वृद्धि को ही विधि का मुख्य उद्देश्य माना था.

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बेन्थम ने अधिकाधिक लोगों के अधिकाधिक सुख को ही विधायन का अन्तिम लक्ष्य (Greatest happiness of the greatest number is the ultimate end of legislation) माना है.

2. ऑगस्ट काम्टे

काम्टे समाजशास्त्रीय अध्ययन को विज्ञान के रूप में परिभाषित करने वाले प्रथम व्यक्ति थे. उन्होंने वैज्ञानिक प्रमाण वाद विचारधारा को जन्म दिया. उनके मतानुसार ज्ञान का प्रत्येक बिम्ब पूर्वकल्पित विचारों पर आधारित न होकर अनुभव तथा निरीक्षण पर आधारित होना चाहिए. उनका मत है कि इसी से मानव समाज का सुधार तथा विकास हो सकता है.

काम्टे की परिभाषा के दो तत्व हैं समाज की स्थिरता तथा समाज की प्रगतिशीलता.

3. इहरिंग (Thering)

विधि लक्ष्य प्राप्त करने का एक माध्यम है (Law is a means to an end). इहरिंग के अनुसार विधि का उद्देश्य व्यक्तिगत हितों को एकरूपता देते हुए सामाजिक हितों को सुरक्षा प्रदान करना तथा उन्हें आगे बढ़ाना है. उनका तर्क है कि व्यक्तिगत हितों तथा सामाजिक हितों के बीच द्वन्द्व की स्थिति को टालना ही विधि का प्रमुख उद्देश्य है. उन्होंने कहा है कि विधि सामाजिक दशाओं का यौगिक स्वरूप है जिसे बाह्य विवशता के माध्यम से राज्य की शक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है.

इहरिंग के अनुसार विधि का लक्ष्य हितों का संरक्षण है. इन्होंने व्यक्तिगत एवं सामाजिक हितों में सम्बन्ध स्थापित कर सामाजिक उद्देश्य को प्राप्त करना चाहा था इसीलिये इहरिंग को “सामाजिक उपयोगितावादी” कहा जाता है.

4. इहर्लिच (Ehrlich)

इसके अनुसार किसी समाज विशेष की वास्तविक विधि वस्तुतः वहाँ के पारस्परिक विधि स्रोतों, संविधियों और निर्णीत वादों में सन्निहित होती है. इहलिंच का कहना है कि विधि के विकास का केन्द्र बिन्दु विधायन का न्यायालयीय निर्णय न होकर समाज स्वयं है. उन्होंने जीती जागती विधि (living law) को अपनी विचारधारा का केन्द्र बिन्दु बनाया.

इहलिच ने कहा कि विधिक विकास का केन्द्र न तो विधायन में केन्द्रित है न विधिपरक विज्ञान में और न ही न्यायिक निर्णयों में बल्कि यह स्वयं समाज में केन्द्रित है.

5. ड्यूगिट (Duguit)

ड्यूगिट के अनुसार समाज का यह सर्वोच्च लक्ष्य है कि मनुष्य एक दूसरे के सहयोग से सुखमय जीवन की ओर अग्रसर हो. वर्तमान समय में मनुष्य के एकल जीवन की परिकल्पना करना व्यर्थ है. जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य को अन्य व्यक्तियों के सहयोग की आवश्यकता होती है. अतएव समाज के सदस्य के रूप में मानव की सामाजिक पारम्परिक निर्भरता कल्पना मात्र न होकर एक वास्तविकता है. मनुष्य के सभी क्रियाकलाप प्रस्पर सहयोग की ओर लक्षित होने चाहिए. समाज में, मनुष्य के परस्पर निर्भरता को ड्यूगिट ने ‘मामाजिक समेकता’ (social solidarity) कहा है. राज्य का अस्तित्व तभी तक उचित है जब तक वह सामाजिक समेकता को बढ़ाता हो.

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सामाजिक समेकता का तात्पर्य है लोगों की पारस्परिक निर्भरता, उन्होंने कहा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज में ही रह सकता है.

6. रास्को पाउन्ड

पाउन्ड ने अपने विधि दर्शन को हितों पर आधारित करते हुए कथन किया कि हित को विधि की प्रमुख विषयवस्तु मानना उचित होगा. उनका मानना था कि विधि का कार्य केवल यह है कि वह मनुष्यों के हितों की रक्षा करे. विधि एक ऐसा ज्ञान और अनुभव है जिसके माध्यम से सामाजिक नियन्त्रण स्थापित किया जा सके. पाउण्ड इसीलिए अपने सिद्धान्त को सामाजिक यान्त्रिकी (Social engineering) कहता है जिसके माध्यम से नई विधिक तकनीकों का विकास किया जा सकता है.

पाउण्ड का विधिशास्त्र विधि का विज्ञान है. इन्होंने पुस्तकीय विधि तथा क्रियाशील विधि में अन्तर पर जोर दिया.

भारतीय परिप्रेक्ष्य में समाजशास्त्रीय विचारधारा

विधि समाज का दर्पण है. भारत में सामाजिक परिवर्तन की पद्धति स्वयं संविधान में वर्णित है. संविधान में उदार प्रजातान्त्रिक मूल्यों तथा गांधीवादी मूल्यों को सम्मिलित किया गया है. यह मूल अधिकारों तथा नीति निदेशक तत्वों को समाविष्ट करते हुये शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की बात करता है.

भारत में विधि की क्रियात्मक भूमिका का स्पष्ट रूप मिलता है, भारत में सामाजिक उत्थान के लिए अनेक कानूनों का निर्माण किया गया है. छुआछूत, भेदभाव तथा दलित उत्थान सम्बन्धी विधियों द्वारा समाजवाद की स्थापना की गई है. समाज में कमजोर वर्गों की आरक्षण तथा महिलाओं को आरक्षण देकर उन्हें समाज में बराबरी का हक दिया जा रहा है तथा उनके हितों को सुरक्षित किया जा रहा है. लोकहित सम्बन्धी याद द्वारा ‘सुने जाने के अधिकार’ (Locus standi) को व्यापक रूप दिया जा रहा है, इस प्रकार कहा जा सकता है कि भारत में विधि के समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को मान्यता दी गई है |

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