Table of Contents
- 1 प्रथा/रूढ़ि की परिभाषा
- 2 विधिमान्य प्रथा के आवश्यक तत्व
- 3 1. प्राचीनता
- 4 2. निरन्तरता
- 5 3. वैध संविधियों से अनुरूपता
- 6 4. निश्चितता
- 7 5. युक्तियुक्तता
- 8 6. ग्राह्यता एवं बाध्यकारी बल
- 9 7. शान्तिपूर्ण उपभोग
- 10 8. लोकनीति के अनुकूल
- 11 9. पारस्परिक संगतता
- 12 प्रथा/रूढ़ि के प्रकार
- 13 1. विधिक रूढ़ियां
- 14 1. स्थानीय रूढ़ियां
- 15 2. सामान्य रूढ़ियां
- 16 2. अभिसमयात्मक रूढ़ियां
- 17 विधि के स्त्रोत के रूप में रूढ़ि या प्रथा का स्थान
प्रथा/रूढ़ि की परिभाषा
प्रथा/रूढ़ि विधि का सबसे प्राचीन स्रोत है. रूढ़ि की उत्पत्ति समाज की उत्पत्ति के साथ माना जाता है. रूढ़ियां आचरण सम्बन्धी आदतों पर आधारित होती हैं जो सामान्य रूप से लोगों द्वारा अनुपालित की जाती हैं.
प्रोफेसर कीटन के अनुसार, प्रथाओं की सबसे अधिक साधारण परिभाषा इस प्रकार है; ‘प्रथाएं एक ही प्रकार की परिस्थिति तथा वातावरण में रहने वाले सभी व्यक्तियों के कार्यों की एकरूपता हैं.’
विनोग्रेडाफ के अनुसार, रीति-रिवाज या प्रथायें विधि-स्रोत के रूप में उन नियमों को कहते हैं जो कि न तो विधायिका द्वारा बनाये जाते हैं और न तो कानून के पंडित न्यायाधीशों द्वारा खोजे जाते या लागू किये जाते हैं. ये जनसमूह की धारणा से उत्पन्न होते हैं, साथ ही साथ इन्हें जन-समूह द्वारा परम्परागत मान्यता प्राप्त होती है. इस प्रकार प्रथा का सम्बन्ध है; जन-समूह की आदत के रूप में नियमित कार्य करने से.
सामण्ड के अनुसार, प्रथा उन सिद्धान्तों का समूह है जो कि न्याय और जन-लाभ के सिद्धान्तों के रूप में राष्ट्रीय अन्तरात्मा के अनुकूल बन जाते हैं.
प्रथायें समाज के लिये उसी प्रकार महत्वपूर्ण हैं जिस प्रकार राज्य के लिए कानून प्रथायें राज्य की शक्ति द्वारा मान्यता नहीं प्राप्त करती हैं बल्कि ये जनसमूह की विचारधारा द्वारा मान्यता प्राप्त करती हैं.
आस्टिन के अनुसार, “रूढ़ि आचरण सम्बन्धी नियम है जिसका शासित लोग सहज एवं स्वैच्छिक रूप से पालन करते हैं परन्तु राजनैतिक प्रवर द्वारा निर्धारित विधि के रूप में नहीं है.”
C.K. ऐलन के अनुसार, रूढ़ि समाज में अन्तर्निहित ताकतों द्वारा विकसित विधिक और सामाजिक परिदृश्य है. ये ताकतें अंशतः युक्ति और आवश्यकता तथा अंशतः सुझाव और अनुकरण से उत्पन्न होती हैं.
हर प्रसाद बनाम शिवदयाल (1876, IA 259) में प्रिवी काउन्सिल ने कहा कि रूढ़ि एक विशिष्ट परिवार या क्षेत्र में लम्बे समय के अस्तित्व के कारण विधि का बल प्राप्त एक नियम है.
विधिमान्य प्रथा के आवश्यक तत्व
वैध प्रथा के आवश्यक तत्व? वैध प्रथा के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं-
1. प्राचीनता
किसी भी रूढ़ि की विधि के रूप में मान्यता तभी दी जा सकती है जब वह बहुत प्राचीन हो. किसी भी रूढ़ि को प्राचीन तभी माना जाता है जब वह लोगों की स्मरण शक्ति से परे हो.
2. निरन्तरता
एक बार रूढ़ि की उत्पत्ति होने के बाद वह निरन्तर चालू रहनी चाहिये. यदि रूढ़ि का प्रचलन कुछ समय बाद रुक जाय तो उसे विधि के रूप में मान्यता नहीं मिलती है. अतः रूढ़ि का निरन्तर व्यवहार में रहना जरूरी है.
सिम्पसन बनाम वेल्स [(1872) AL 7] के मामले में बीच चौराहे पर 50 वर्षों से लगातार दुकान को लगाते रहना एक वैध रूढ़ि माना गया.
3. वैध संविधियों से अनुरूपता
विधि विरुद्ध रूढ़ि को मान्यता नहीं मिलती है. रूढ़ि कानून या अधिनियमों के अनुकूल होनी चाहिये.
4. निश्चितता
अस्पष्ट या संदिग्ध रूढ़ि को विधि के रूप में मान्यता नहीं मिल सकती. रूढ़ि पूर्णरूप से स्पष्ट व निश्चित होनी चाहिये.
गुरुस्वामी बनाम पेरूमल (AIR 1927 मद्रास 815) के मामले में पेड़ की छाया के सम्बन्ध में रूढ़िगत सुखाधिकार की माँग की गई. न्यायालय ने अभिनिश्चिंत किया कि रूढ़ि की निश्चितता के लिए उसका प्रारम्भ होना आवश्यक है. वृक्ष की छाया इतनी. अनिश्चित तथा परिवर्तनशील है कि उससे कोई रूढ़ि उत्पन्न नहीं होती है.
5. युक्तियुक्तता
रूढ़ि अनैतिक या लोकनीति विरुद्ध नहीं होनी चाहिये. रूढ़ि युक्तिसंगत है या नहीं, यह न्यायालय के विवेकाधिकार पर निर्भर करता है.
गिरजाघर के पादरी द्वारा विवाह शुल्क 13 शिलिंग लिए जाने की 48 वर्ष से चली आ रही प्रथा/रूढ़ि इस कारण अयुक्तियुक्त मानी गई कि यह शुल्क अधिक है.
आर बनाम करसन (2 बाम्बे HCR 129) के मामले में पति को बिना उसकी सहमति के त्यागकर पत्नी द्वारा दूसरी शादी करने की प्रथा/रूढ़ि को अनैतिक मानते हुए शून्य घोषित किया गया.
6. ग्राह्यता एवं बाध्यकारी बल
रूढ़ि की विधिक मान्यता के लिए आवश्यक है कि लोग उसे स्वीकार करें. जो रूढ़ि सभी व्यक्तियों को पालन के लिए बाध्य नहीं करती है एवं लोग उसका पालन नहीं करते, वह अप्रचलित रूढ़ि कहलायेगी एवं वह विधि के रूप में मान्य नहीं होगी.
7. शान्तिपूर्ण उपभोग
जिस रूढ़ि के बारे में विवाद हो और उसका सम्पूर्ण रूप से शान्तिपूर्ण उपभोग नहीं होता है, विधिक रूप से मान्य नहीं होगी. जिस रूढ़ि को लोग शान्तिपूर्ण ढंग से बहुत लम्बे अरसे से उपभोग करते हैं, वह रूढ़ि विधिक रूप से मान्य होती है.
8. लोकनीति के अनुकूल
वैध रूढ़ि को लोकनीति के अनुकूल होना चाहिये. लोकनीति के प्रतिकूल होने पर रूढ़ि को लागू नहीं किया जा सकता है.
9. पारस्परिक संगतता
जहां एक से अधिक रूढ़ि है वहां वैधता के लिये आवश्यक है कि वे एक दूसरे से संगत हों, एक दूसरे से विरोध होने पर लागू नहीं होगी.
प्रथा/रूढ़ि के प्रकार
सामण्ड ने रूढ़ियों का वर्गीकरण निम्नानुसार किया है. उनके अनुसार रूढ़ियां दो प्रकार की होती हैं-
1. विधिक रूढ़ियां
विधिक रूढ़ियों का निर्माण स्वयमेव होता है. वे पक्षकारों की राय के बिना ही उन पर लागू की जाती हैं. ये दो प्रकार की होती हैं-
- स्थानीय रूढ़ि या
- सामान्य रूढ़ि.
1. स्थानीय रूढ़ियां
जो रूढ़ियां किसी विशिष्ट क्षेत्र में ही प्रचलित होती हैं और उनका पालन उस विशिष्ट क्षेत्र के लोग ही करते हैं उन्हें स्थानीय रूढ़ि कहते हैं.
सेखरबी बनाम कॉलमेन [(1867) AL 96] के मामले में एक गाँव के लोगों द्वारा अपने घोड़ों को दूसरे-दूसरे गाँव की भूमि में प्रशिक्षित किये जाने को स्थानीय रूढ़ि माना गया.
2. सामान्य रूढ़ियां
वे रूढ़ियां जो समस्त देश में लागू होती हैं अर्थात् जो राष्ट्र के सभी लोगों पर समान रूप से लागू होती हैं, सामान्य रूढ़ियां कहलाती हैं.
2. अभिसमयात्मक रूढ़ियां
अभिसमयात्मक रूढ़ियां पक्षकारों को तभी बाध्य करती हैं जब वे आपस में मानने के लिए सहमत होते हैं. अभिसमयात्मक रूड़ियाँ पक्षकारों के बीच की गई संविदाओं में निश्चित रूप में सम्मिलित की गई शर्तों पर आधारित होती हैं.
विधि के स्त्रोत के रूप में रूढ़ि या प्रथा का स्थान
प्रथाओं को विधि का स्रोत मानने के कई कारण हैं. सामण्ड के अनुसार, सामान्य रूप से प्रथाओं के अन्तर्गत वे बहुत से सिद्धान्त आते हैं जो न्याय एवं सार्वजनिक लाभ पर आधारित होते हैं. यदि किसी भी नियम को जनता मानने लगती है तो वही विधि बन जाती है. यह असलियत है कि किसी भी नियम अथवा कानून का आधार प्रथाओं में मौजूद रहता है.
प्रथाओं को समाज में वैसा ही स्थान है जैसा कि राज्य में कानून का.
प्रथाओं को विधि के स्रोत के रूप में मान्यता प्राप्त करने की तीन मुख्य धारणायें हैं-
- कुछ विद्वानों के अनुसार प्रथायें विधि की प्रमुख स्रोत हैं.
- कुछ विद्वानों के अनुसार प्रथा विधि का प्रमुख स्रोत नहीं है. उनके अनुसार प्रथा, पूर्वोक्ति और अधिनियमित विधि तीनों मिलाकर ही न्यायिक विधि के स्रोत हैं. वास्तविक विधि न्यायालय द्वारा लागू किये जाने वाले नियम हैं.
- तीसरी धारणा के अनुसार, जो केवल जर्मन में प्रचलित है, प्रथा विधि का स्रोत नहीं है, बल्कि विधि का ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक साधन या विधि की उपस्थिति को प्रमाणित करने के लिए साध्य ही होती है |