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दीवानी तथा आपराधिक मामलों में तथ्यों के प्रमाण के नियमों के अंतर
- आपराधिक (फौजदारी) कार्यवाहियों में साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 लागू होती है. यह धारा दीवानी (सिविल) मामलों में भी लागू होती है परन्तु धारा 116 एवं 117 केवल दीवानी मामलों में ही लागू होती है. पक्षकारों की सहमति द्वारा दीवानी प्रक्रिया में साक्ष्य के नियमों को रोका जा सकता है परन्तु आपराधिक मामलों में पक्षकारों की अनुमति या न्यायालय का आदेश साक्ष्य नियमों के पालन को रोकने में असमर्थ होता है.
- यदि साक्ष्य यह इंगित करे कि किसी तथ्य की उपस्थिति सम्भावित है जो दीवानी मामलों में उस तथ्य के बारे में यह मान लिया जाता है कि यह सिद्ध हो गया है, परन्तु आपराधिक मामलों में किसी तथ्य की उपस्थिति तब तक सिद्ध नहीं मानी जाती जब तक कि उसका अस्तित्व सन्देह की सीमा से पर सिद्ध नहीं हो जाता या उसके अनुपस्थित होने के बारे में लेशमात्र भी युक्तियुक्त संदेह रहे.
- दीवानी मामलों में निर्णय, स्थापन के समय संम्भाव्यता के आधिक्य अथवा पर्याप्तता के आधार पर सबूत भार को ध्यान में रखते हुए दिया जाता है. परन्तु आपराधिक मामलों में साक्ष्य की प्रबलता निर्णय को प्रभावित नहीं करती. निर्णय के समय अपराध न्यायालय साक्ष्य के इस पक्ष पर ध्यान देता है कि क्या साक्ष्य की सत्यता पर लेशमात्र भी संदेह किया जा सकता है? जब तक साक्ष्य युक्तियुक्त संदेह से पूर्णतया मुक्त नहीं होता, निर्णय का आधार नहीं हो सकता. ऐसे मामलों में सबूत किसी अभियुक्त के अपराधी होने या दोषमुक्त होने के सम्बंध में निर्णायक भूमिका निभाता है.
- दीवानी मामलों में साक्ष्य एकत्रीकरण एवं प्रस्तुतीकरण का दायित्व पक्षकारों का होता है क्योंकि दोनों ही पक्षकार जनसाधारण होते हैं, जबकि आपराधिक मामलों में एक पक्षकार राज्य होता है क्योंकि अपराध भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत होता है. इन मामलों में साक्ष्य एकत्रीकरण व प्रस्तुतीकरण का दायित्व अभियोजन पक्ष (राज्य सरकार) का होता है. न्यायालय यह कार्य राज्य के लिए करता है.
- दीवानी मामलों में विवायक तथ्यों का निर्धारण विवाद्यकों के निर्माण की प्रक्रिया द्वारा होता है. विवाधक तब पैदा होते हैं जब तथ्य अथवा विधि की कोई सारवान प्रस्थापना किसी एक पक्षकार द्वारा स्वीकृत व अन्य द्वारा अस्वीकृत की जाती है. आपराधिक मामलों में विवाधक तथ्य संगठित रूप से आरोप में अन्तर्दिष्ट होते हैं.
- दीवानी मामलों में वादी व प्रतिवादी न्यायालय के समक्ष अपने-अपने अधिकारों को सिद्ध करने हेतु सर्वथा उत्तम साध्य सर्वोत्तम रीति से प्रस्तुत करने के दायित्वाधीन होते हैं, जबकि आपराधिक मामलों में अभियोजन पक्ष अपराध सिद्ध करने हेतु साक्ष्य प्रस्तुतीकरण में संलग्न रहता है व अभियुक्त अपने बचाव में स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने हेतु साक्ष्य प्रस्तुत करता है.
- दीवानी मामलों में मात्र विबंधन के सिद्धान्त जिनमें भारा 116 व 117 में वर्णित सिद्धान्त भी सम्मिलित हैं, लागू होते हैं, जबकि आपराधिक मामलों में संस्वीकृति, मृत्युकालीन घोषणा, अभियुक्त का चरित्र तथा साक्षियों के रूप में अभियुक्त की अक्षमता प्रभावी होते हैं |
- दीवानी मामलों में सम्पूर्ण प्रक्रिया का समापन विवाद्यक तथ्य तथा विधि के सारवान नियमों का निस्तारण व स्थापना द्वारा होता है तथा इसे डिक्री के रूप में पारित किया जाता है. आपराधिक मामलों में दोषसिद्धि ही प्रक्रिया की परिणति होता है |
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दीवानी एवं आपराधिक मामलों में सिद्धिभार में अन्तर
दीवानी मामलों में मूलतः सिद्धिभार वादी पर होता है. भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 101 इस बात का उपबन्ध करती है कि सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो तथ्यों के अस्तित्व का दावा करता है. धारा 102 में भी कहा गया है कि वह पक्षकार साक्ष्य प्रस्तुत करने हेतु दायित्वाहीन होगा जो कि यदि असफल हो जाये यदि दोनों में से कोई पक्षकार साक्ष्य प्रस्तुत न करे, परन्तु आपराधिक मामलों में साक्ष्य प्रस्तुत करने का मूल दायित्व अभियोजन पक्ष का होता है, अभियुक्त को लगाए गये आरोपों के खण्डन हेतु साक्ष्य प्रस्तुत करने होते हैं |