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दण्ड के सिद्धान्त
न्याय प्रशासन का प्रमुख उद्देश्य अपराधी को दण्ड देना है. दण्ड के भय से ही शान्ति व्यवस्था कायम रहती हैं. दण्ड स्वयं में कोई प्रयोजन नहीं है बल्कि यह प्रयोजन की प्राप्ति है.
आपराधिक न्याय का मुख्य उद्देश्य अपराध से मुक्त समाज की कल्पना है. इसके लिए दण्ड की कल्पना की गई तथा उसे अपराध के विरुद्ध इस्तेमाल किया गया क्योंकि दण्ड का भय अपराधियों को अपराध करने से रोकने में सहायक होता था.
आपराधिक न्याय के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हो सकते हैं-
- दण्ड द्वारा अपराधियों में भय उत्पन्न करना,
- अपराधियों के प्रति प्रतिशोध की भावना से बदला लेना,
- अपराधों का निरोध,
- अपराधी को पश्चाताप कराना,
- अपराधी को सुधारना.
सजा के 5 सिद्धांत क्या हैं? इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए दण्ड के सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया गया है-
1. प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अन्तर्गत अपराधी को अपराध करने से रोकना होता है. इस सिद्धान्त के अनुसार, अपराधी को बहुत ही कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए ताकि केवल अपराधी के ही हृदय में अपराध के परिणामस्वरूप मिलने वाले दण्ड के प्रति भय न पैदा हो, वरन् भविष्य में इस प्रकार का अपराध करने की इच्छा करने वाले लोग भी इस प्रकार के दण्ड से भयभीत हो जायें और अपराध न करें.
इस प्रकार का सिद्धान्त एक ओर तो समाज को अपराधों से मुक्त कराता है और दूसरी ओर समाज में भविष्य में पनपने वाले अपराधियों के दिलों में डर पैदा करके अपराध करने से रोक देता है, इस प्रकार के सिद्धान्त भय के मनोविज्ञान पर आधारित हैं. यह समाज के संरक्षण पर विशेष बल देता है.
सीजर बेकारिया ने कहा कि दण्ड का उद्देश्य न तो व्यक्ति को घोर यंत्रणा देना है या सताना है बल्कि नई क्षति होने से रोकना है.
2. प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त
यह सिद्धान्त मुख्यत: प्राथमिक समाज के सिद्धान्त, आँख के लिये आँख तथा दाँत के लिए दाँत पर आधारित है. यह सिद्धान्त इसका भी समर्थन करता है जैसा तुम बोओगे वैसा काटोगे (As You Sow, So Shall You Reap).
न्यायाधीश होम्स भी इस बात से सहमत हैं. यह सिद्धान्त मुख्य रूप से दो बातों पर आधारित है. पहली तो यह कि अपराध समुदाय में बदला लेने की भावना पैदा करता है और अपराधी को दंडित करके आपराधिक न्याय इस प्रकार की भावना को शान्त करता है. इस प्रकार अपराध का बदला आहत व्यक्ति नहीं वरन् समुदाय लेता है. दूसरा यह कि प्रत्येक दण्ड स्वयं ही अपना उद्देश्य है. सामण्ड यह चाहता है कि समाज को होने वाले लाभ से पृथक अपराधी को अपराध के अनुसार हो समान दण्ड मिले. यह दृष्टिकोण नैतिकतापूर्ण है.
कांट के अनुसार केवल यही दृष्टिकोण दण्ड के लिए समुचित न्याय है और आपराधिक विधि के लिये रास्ता दिखाने वाला सिद्धान्त है. यह सिद्धान्त इस बात पर जोर देता है कि दण्ड केवल इसलिए नहीं दिया जाना चाहिये कि इससे किसी निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति होगी, वरन् इसलिए दिया जाना चाहिये कि अपराधी ने एक अपराध किया है.
3. प्रायश्चित्तात्मक सिद्धान्त
इस सिद्धान्त से आशय यह है कि अभियुक्त को दण्डित कर कारागार में रखना इसलिए आवश्यक है कि उसे अपने किये पर पश्चाताप हो. कारागार में अपराधी जब एकान्त पाता है तो उसके मन में आत्मग्लानि उत्पन्न होती है तथा वह स्वयं को सुधारने का प्रयास करता है. इस सिद्धान्त के अनुसार, दण्ड भोगने के बाद अपराध समाप्त हो जाता है.
4. सुधारात्मक सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार, यह कहा जाता है कि अपराध हितों के संघर्ष या आर्थिक परिस्थितियों के कारण नहीं होते वरन् अपराधी के चरित्र में विद्यमान कुछ भौतिक एवं मानसिक बुराइयों के कारण होते हैं. अपराधी का चरित्र भी इस प्रकार के अपराधों का कारण होता है. यह सिद्धान्त सुरक्षात्मक सिद्धान्त से पूरी तौर से अलग है. इस सिद्धान्त के अनुसार अपराधी भावावेश में आकर अपराध करता है. इस कारण यह सिद्धान्त अपराधी को एक रोगी मानता है और उसको दण्ड देने के स्थान पर उसका सुधार करना अधिक उपयोगी समझता है.
सुधारात्मक सिद्धान्त अपराधी को कारागार की कोठरियों में बन्द करके यातनाएं देना उचित नहीं समझता, वरन् यह अपराधियों की अपराधी प्रवृत्तियों का उपचार करके उसे सदा के लिए सुधार देना भी उचित समझता है. यह अपराधी के चरित्र में आमूल परिवर्तन करना ही अच्छा समझता है.
5. निरोधात्मक सिद्धान्त
न्याय प्रशासन का प्रमुख उद्देश्य अपराधों को रोकना है. निवारण इलाज से बेहतर होता है. होम्स के अनुसार निवारण दण्ड का अकेला उद्देश्य है. इस सिद्धान्त का प्रमुख उद्देश्य अपराधी को अपराध करने की पुनरावृत्ति से रोकना है |
मृत्युदण्ड
निरोधात्मक दण्ड के रूप में मृत्युदण्ड (Capital Punishment) सबसे कठोरतम दण्ड माना गया है क्योंकि इसके परिणामस्वरूप समाज से अपराधी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है. यह दण्ड-व्यवस्था प्रायः सभी देशों में आदिकाल से चली आ रही है. वर्तमान में सुधारात्मक सिद्धान्त को अधिक महत्व दिया जा रहा है जिसके तहत अपराधी को सुधारा जाता है अतः इस सिद्धान्त के समर्थकों ने मृत्युदण्ड को न्यायोचित न बताते हुए उसे समाप्त करने के लिए अपनी दलील दी है.
भारतीय SC का मृत्युदण्ड पर दृष्टिकोण
भारतीय दण्ड संहिता में मृत्युदण्ड की व्यवस्था की गई है तथा समय-समय पर उच्चतम न्यायालय (SC) द्वारा मृत्युदण्ड दिया जाता है. सर्वप्रथम 1949 में मृत्युदण्ड को समाप्त करने का विधेयक आया था जिसे तत्कालीन गृहमन्त्री श्री पटेल ने समयोचित न मानते हुए अस्वीकार कर दिया था.
उच्चतम न्यायालय ने पांडूरंग बनाम हैदराबाद राज्य (AIR 1955 SC 216) में अभिनिर्धारित किया कि मृत्युदण्ड केवल अनिवार्य स्थिति में ही दिया जाना चाहिए, वहीं
जगमोहन बनाम UP राज्य (AIR 1973 SC 947) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मृत्यु दण्ड लोकहित के विरुद्ध न होकर अनुच्छेद 19 का भी उल्लंघन नहीं करता है, और
बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य (AIR 1980 SC 898) में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मृत्युदण्ड संविधान के अनुच्छेद 14, 19 तथा 21 का उल्लंघन नहीं करता है अतः वह असंवैधानिक नहीं है. परन्तु न्यायमूर्ति श्री भगवती ने विरुद्ध में अपना अल्पमत निर्णय (Minority Judgment) सुनाते हुए कहा कि मृत्युदण्ड असंवैधानिक है तथा इसे समाप्त कर देना चाहिए |